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बधाई शुभकामनाएं

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  आओ लौटें ब्लॉग पर, लेखन सुलेख कर एक दूसरे से फिर, वही मेल भाव हो । पंच लिंक का आनंद,मंच सजे सआनंद हर एक लिंक सार, पढ़ने का चाव हो । सम्मानित चर्चाकार, सम्भालें हैं कार्यभार स्थापना दिवस आज, पूरा हर ख़्वाव हो । शुभकामना अनेक, मंच फले अतिरेक ऐसे नेक कार्य हेतु, मन से लगाव हो । पंच लिंक की चौपाल, सजे यूँ ही सालों साल बधाई शुभकामना, शुद्ध मन भाव हो । मेरी एक और रचना निम्न लिंक पर 👇 ब्लॉग से मुलाकात.. बहुत समय के बाद  

मैं मन्दोदरी बनूँ कैसे....?

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        प्रिय ! मैं हारा, दुख का मारा  लौट के आया      तेरे द्वार...... अब नयी सरकार जागी जनता !! भ्रष्टाचार पर मार...     "तिस पर " सी.बी.आई.के छापे मुझ जैसे डर के भागे...  पछतावा है मुझको अब  प्रिय ! मैने तुझको छोड़ा...  मतलबी निकले वे सब  नाता जिनसे मैंने जोड़ा..... आज मेरे दुख की इस घड़ी में उन सबने मुझसे है मुँह मोड़ा !!! अब बस तू ही है मेरा आधार ! मेरी धर्मपत्नी, मेरा पहला प्यार ! है तुझसे ही सम्भव,अब मेरा उद्धार ।  तू क्षमाशील, तू पतिव्रता....  प्रिय ! तू  बहुत ही चरित्रवान, सर्वगुण सम्पन्न है तू प्रिय ! तुझ पर प्रसन्न रहते भगवान !! अब जप-तप या उपवास कर प्रभु से माँगना ऐसा वरदान!!! वे क्षमा मुझे फिर कर देंगे..... मैं पुनः बन जाउँगा धनवान!!! आखिर मैं तेरा पति-परमेश्वर हूँ   कर्तव्य यही है फर्ज यही , प्रिय ! मैं ही तो तेरा ईश्वर हूँ !!! ;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;          ...

रिश्ते

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थोड़ा सा सब्र , थोड़ी वफा ... थोड़ा सा प्यार , थोड़ी क्षमा जो जीना जाने रिश्ते रिश्तों से है हर खुशी । फूल से नाजुक कोमल ये महकाते घर-आँगन खो जाते हैं गर  ये तो लगता सूना सा जीवन ।         क्या खोया क्या पाया, नानी -दादी ने बैठे-बैठे, यही तो हिसाब लगाया क्या पाया जीवन में ,जिसने इनका प्यार न पाया ।        दादाजी-नानाजी की वो नसीहत  मौसी-बुआ का प्यार ।  चाचू-मामू संग सैर-सपाटे  झट मस्ती तैयार ।        कोई हँसाए तो कोई चिढ़ाए  कोई पापा की डाँट से बचाए  जीवन के सारे गुर सीख जायें  हो अगर संयुक्त परिवार ।   कितनी भी दौड़ लगा लें, कितना भी आगे जा लें । सूरज चंदा से मिले या, तारे भी जमीं पर ला लें । दुनिया भर की शाबासी से दिल को चैन कहाँ है ? अपनोंं के आशीष में ही , अपना तो सारा जहाँ है । जो जीना जाने रिश्ते रिश्तों से  है हर खुशी । बड़ी ही कोमल नाजुक सी डोरी से बंधे प्रेम के रिश्ते । समधुर भावोंं की प्रणय बन्धन से जीवन  को सजाएं रिश्ते । जोश-ज...

नारी : अतीत से वर्तमान तक

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कुछ करने की चाह लिए अस्तित्व की परवाह लिए  मन ही मन सोचा करती थी बाहर दुनिया से डरती थी...... भावों में समन्दर सी गहराई हौसले की उड़ान भी थी ऊँची  वह कैद चहारदीवारी में भी, सपनों की मंजिल चुनती थी.... जग क्या इसका आधार है क्या ? धरा आसमां के पार है क्या,? अंतरिक्ष छानेगी वह इक दिन ख्वाबों में उड़ाने भरती थी..... हिम्मत कर निकली जब बाहर, देहलीज लाँघकर आँगन तक । आँगन खुशबू से महक उठा, फूलों की बगिया सजती थी........ अधिकार जरा सा मिलते ही, वह अंतरिक्ष तक हो आयी... जल में,थल में,रण कौशल में सक्षमता अपनी  दिखलायी....... बल, विद्या, हो या अन्य क्षेत्र इसने परचम अपना फहराया सबला,सक्षम हूँ, अब तो मानो अबला कहलाना कब भाया........ xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx जब सृष्टि सृजन की थी शुरूआत सोच - विचार के बनी थी बात....... क्योंकि....... दिल से दूर पुरुष था तब, नाकाबिल, अक्षम, अनायास... सृष्टि सृजन , गृहस्थ जीवन हेतु किया था सफल प्रयास..... पुरूषार्थ जगाने, प्रेम उपजाने, सक्षमता  का आभास कराने । कोमलांगी नाजुक गृहणी ब...

प्रेम

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                  प्रेम   अपरिभाषित एहसास।     'स्व' की तिलांजली...        "मै" से मुक्ति !    सर्वस्व समर्पण भाव    निस्वार्थ,निश्छल        तो प्रेम क्या ?      बन्धन या मुक्ति  !  प्रेम तो बस, शाश्वत भाव     एक सुखद एहसास !!             एहसास ?     हाँ !  पर  होता है..        दिल का दिल से     आत्मिक /अलौकिक        कहीं भी, कभी भी..   बिन सोचे,  बिन समझे  एक अनुभूति , अलग सी             बहुत दूर..     दिल के  बहुत  पास,  टीस बनकर चुभ जाती है, औऱ उस दर्द में आनन्द आता है,        असीम आनन्द !       और   चुभन   ?  आँसू  बनकर बहते आँखों से         ...

मन इतना उद्वेलित क्यों ?

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मानव मन इतना उद्वेलित क्यों ? अस्थिर, क्रोधित, विचलित बन,  हद से ज्यादा उत्तेजित क्यों ? अटल क्यों नहीं ये पर्वत सा, नहीं आसमां सा सहनशील स्वार्थ समेटे है बोझिल मन ! नहीं नदियों सा इसमें निस्वार्थ गमन मात्र मानव को दी प्रभु ने बुद्धिमत्ता ! बुद्धि से मिली वैचारिक क्षमता इससे पनपी वैचारिक भिन्नता ! वैचारिक भिन्नता से टकराव टकराव से शुरू समस्याएं ? उलझी फिर मन से मानवता ! होता है वक्त और कारण  समुद्री ज्वार भाटे का पर मन के ज्वार भाटे का, नहीं कोई वक्त नहीं कारण  उद्वेलित मन ढूँढे इसका निवारण ! शान्ति भंग कर देता सबकी, पहले खुद की,फिर औरों की विकट समस्या बन जाता है, विचलित जब हो जाता मन । बाबाओं की शरण न जाकर, कुछ बातों का ध्यान रखें गर तुलनात्मक प्रवृति से उबरें, "संतुष्टि, धैर्य" भी अपनाकर योगासनों का सहारा लेकर, मानसिक ,चारित्रिक और आध्यात्मिक मजबूती ,निज मन को देकर "ज्ञान और आत्मज्ञान" बढायें मन-मस्तिष्क की अतुलनीय शक्ति से पुनः सर्व-शक्तिमान बन जायें ।           ...

आरक्षण और बेरोजगारी

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   चित्र : "साभार गूगल से" जब निकले थे घर से ,अथक परिश्रम करने, नाम रौशन कर जायेंगे,ऐसे थे अपने सपने । ऊँची थी आकांक्षाएं , कमी न थी उद्यम में, बुलंद थे हौसले भी तब ,जोश भी था तब मन में !! नहीं डरते थे बाधाओं से, चाहे तूफ़ान हो राहों में ! सुनामी की लहरों को भी,हम भर सकते थे बाहों में शिक्षित बन डिग्री लेकर ही, हम आगे बढ़ते जायेंगे। सुशिक्षित भारत के सपने को, पूरा करके दिखलायेंगे ।।  महंगी जब लगी पढ़ाई, हमने मजदूरी भी की ।  काम दिन-भर करते थे,  रात पढ़ने में गुजरी।। शिक्षा पूरी करके हम ,  बन गये डिग्रीधारी। फूटी किस्मत के थे हम ,झेलते हैं बेरोजगारी ।। शायद अब चेहरे से ही , हम पढ़े-लिखे दिखते हैं ! तभी तो हमको मालिक , काम देने में झिझकते हैं कहते ; पढ़े-लिखे दिखते हो कोई अच्छा सा काम करो !  ऊँचे पद को सम्भालो, देश का ऊँचा नाम करो" !   कैसे उनको समझाएं? हम सामान्य जाति के ठहरे,   देश के सारे पदोंं पर तो अब,  हैं आरक्षण के पहरे ! सोचा सरकार बदल जायेगी, अच्छे दिन अपने आयेंगे ! 'आरक्षण और जातिवाद' से, ...

इकतरफा प्रेम यूँ करना क्या ?.

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चित्र :  साभार, गूगल से- जब जान लिया पहचान लिया, नहीं वो तेरा यह मान लिया । बेरुखी उसकी स्वीकार तुझे, फिर घुट-घुट जीवन जीना क्या ? हर पल उसकी ही यादों में, गमगीन तेरा यूँ रहना क्या ? तेरा छुप-छुप आँँसू पीना क्या ? उसके आते ही तेरी नजर, बस उसमें थम जाती है । धड़कन भी बढ़ जाती है, आँखों में चमक आ जाती है। तू साथ चाहता क्यों उसका, वो तुझसे कोसों दूर खड़ा ? जब उसको ये मंजूर नहीं, इकतरफा प्रेम यूँ करना क्या ? उसकी राहें भी तुझसे जुदा, मंजिल उसकी कहीं और ही है, नहीं हो सकता तेरा उसका मिलन, दिल में उसके कुछ और ही है। वो चाँद आसमां का ठहरा, चकोर सा तेरा तड़पना क्या ? फिर मन ही मन यूँ जलना क्या, इकतरफा प्रेम यूँ करना क्या ? जीवन तेरा भी अनमोल यहाँ, तेरे चाहने वाले और भी हैं। इकतरफा सोच से निकल जरा, तेरे दुख से दुखी तेरे और भी हैं। वीरान पड़ी राहों में तेरा. यूँ फिर-फिर आगे बढ़ना क्या ? इकतरफा प्रेम यूँ करना क्या ? फिर मन ही मन यूँ जलना क्या ?

🕯मन- मंदिर को रोशन बनाएंं🕯

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   मन - मंदिर को रोशन बनाएंं चलो ! एक दिया आज मन मेंं जलाएं, अबकी दिवाली कुछ अलग हम मनाएंं । चलो ! एक दिया आज मन में जलाएं..... मन का एक कोना निपट है अंधेरा, जिस कोने को "अज्ञानता" ने घेरा । अज्ञानता के तम को दूर अब भगाएं  ज्ञान का एक दीप मन में जलाएं,     मन -मंदिर को रोशन बनाएं  । चलो ! एक दिया आज मन में जलाएं...... काम, क्रोध, लोभ, मोह मन को हैं घेरे , जग उजियारा है पर, मन हैं अंधेरे .... रात नजर आती है भरी दोपहरी में , रौशन दिवाली कब है, मन की अंधेरी में ।   प्रेम का एक दीप मन में जलाएं,      मन -मंदिर को रोशन बनाएं । चलो ! एक दिया आज मन में जलाएं....... निराशा न हो मन में, हिम्मत न हार जाएं, चाहे कठिन हो राहेंं, कदम न डगमगाएं ईर्ष्या न हो किसी से,लालच करें नहीं हम, परिश्रम की राह चलकर सन्तुष्टि सभी पाएं   आशा का एक दीप मन में जलाएं        मन-मंदिर को रोशन बनाएं चलो ! एक दिया आज मन में जलाएं  ।। भय, कुण्ठा संदेह भी ,मन को हैं घेरे दुख के ...

आराम चाहिए......

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                                                                                                      आज हर किसी को आराम चाहिए  न हो हाथ मैले,न हो पैर मैले.... ऐसा अब कोई काम चाहिए.... बिन हिले-डुले कुछ नया कर दिखायेंं !! हाँ ! सुर्खियों में अपना अब नाम चाहिए आज हर किसी को आराम चाहिए..... मुश्किलें तो नजर आती हैं सबको बड़ी-बड़ी, स्वयं कुछ कर सकें, ऐसी हिम्मत नहीं पड़ी । सब ठीक करने वाला, अवतारी आये धरा पर, नरतनधारी कोई "श्रीकृष्ण या श्रीराम" चाहिए !! आज हर किसी को आराम चाहिए......... बच्चों को दिखाते हैं, ये अन्तरिक्ष के सपने ! जमीं में नजर आये न इनको कोई अपने जमींं में रखा क्या, मिट्टी से है घृणा ..... पर घर में भरे अन्न के गोदाम चाहिए !! आज हर किसी को आराम चाहिए......... माँ-बाप मुसीबत लग रहे हैंं इनको आज , ...

तब सोई थी जनता, स्वीकार गुलामी थी.......

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सोई थी जनता स्वीकार गुलामी थी रो-रो कर सहती प्रताड़ना को नियति मानती थी जैसे कीलों के आसन पर , कोई कुत्ता पल पल रोता जब चुभती कीलें उठ जाता फिर थककर सोता फिर बैठ वहीं, दुखकर बस थोड़ा उठ जाता पर कभी ना कोशिश करता आसन से बाहर आने की , अपने भारत की भी कुछ,ऐसे ही कहानी थी तब सोई थी जनता, स्वीकार गुलामी थी गर रोष में आकर कोई  आवाज उठा देता दुश्मन से फिर अपना सर्वस्व लुटा देता इस डर से चुप सहना ही सबने ठानी थी तब सोई थी जनता स्वीकार गुलामी थी। बड़ी कोशिश से बापू ने सोयों को जगाया था आजादी का सपना  फिर सबको दिखाया था अंग्रेज चले जायेंं , फिर देश सम्भालेंगे घर के लफड़े जो हैं , हम मिलकर निबटा लेंगे मन में भावना ऐसी, बापू ने ठानी थी जब सोयी थी जनता, स्वीकार गुलामी थी । दुश्मन तो हार गया ! अपनो ने हरा डाला आजाद किया जिस देश को टुकड़े में बदल डाला विरोधी तत्वों की मिली भगत पुरानी थी तब सोयी थी जनता स्वीकार गुलामी थी भला किया जिनका अपमान मिला उनसे सीधे सच्चे बापू धोखे मिले अपनो से अब भी ना जाने क्या जनता ने ठा...

चुप सो जा ! मेरे मन ! चुप सो जा !!

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             रात छाई है घनी, पर कल सुबह होनी नयी,         कर बन्द आँखें ,  सब्र रख तू ,             मत रो ,मुझे न यूँ सता ! चुप सो जा !  मेरे मन ! चुप सो जा !!       तब तक तू चुप सोया ही रह !      जब तक न हो जाये सुबह     नींद में सपनों की दुनिया तू सजा ! चुप सो जा ! मेरे मन ! चुप सो जा !!        सोना जरुरी है नयी शुरुआत करनी है        भूलकर सारी मुसीबत, आस भरनी है     जिन्दगी के खेल फिर-फिर खेलने तू जा ! चुप सो जा ! मेरे मन ! चुप सो जा !!       सोकर जगेगा तब नया सा प्राण पायेगा      जो खो दिया अब तक, उसे भी भूल जायेगा     पाकर नया कुछ, फिर पुराना तू यहाँ खो जा चुप सो जा ! मेरे मन ! चुप सो जा !!      दस्तूर हैं दुनिया के कुछ वो तू भी सीख ले       है सुरमई सुबह यहाँ,  तो साँझ भी ढ़...

जाने कब खत्म होगा ,ये इंतज़ार......

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  ये अमावस की अंधेरी रात तिस पर अनवरत बरसती        ये मुई बरसात  टपक रही मेरी झोपड़ी       की घास-फूस        भीगती सिकुड़ती        मिट्टी की दीवारें       जाने कब खत्म होगा           ये इन्तजार ?       कब होगी सुबह..?            और मिटेगा         ये घना अंधकार !        थम ही जायेगी किसी पल              फिर यह बरसात       तब चमकेंगी किरणें रवि की         खिलखिलाती गुनगुनी सी ।        सूख भी जायेंगी धीरे-धीरे            ये भीगी दीवारें     गुनगुनायेंगी गीत आशाओं के,     मिट्टी की सौंधी खुशबू के साथ ।    झूम उठेगी इसकी घास - फूस की छत            बहेगी जब मधुर बयार  फिर भ...

आओ बुढ़ापा जिएं ..

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वृद्धावस्था अभिशाप नहीं । यदि आर्थिक सक्षमता है तो मानसिक कमजोर नहीं बनना । सहानुभूति और दया का पात्र न बनकर, मनोबल रखते हुए आत्मविश्वास के साथ वृद्धावस्था को भी जिन्दादिली से जीने की कोशिश जो करते हैंं , वे वृृद्ध अनुकरणीय बन जाते है । मानसिक दुर्बलता से निकलने के लिए यदि कुछ ऐसा सोचें तो - जी लिया बचपन , जी ली जवानी       आओ बुढापा जिएं । यही तो समय है, स्वयं को निखारेंं      जानेंं कि हम कौन हैं ?     कभी नाम पहचान था फिर हुआ काम पहचान अपनी   आगे रिश्तों से जाने गये  सांसारिकता में हम खो गये । ये तन तो है साधन जीवन सफर का     ये पहचान किरदार है इन्हीं में उलझकर क्या जीवन बिताना जरा अब तो जाने ,कहाँँ हमको जाना ? यही तो समय है स्वयं को पहचाने         जाने कि हम कौन हैं ? क्या याद बचपन को करना   क्या फिर जवानी पे मरना     यदि ये मोह माया रहेगी तो फिर - फिर ये काया मिलेगी  भवसागर की लहरों में आकर     क्या डूबना क्या उतरना...

कृषक अन्नदाता है....

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आज पुरानी डायरी हाथ लग गयी,टटोलकर देखा तो यह रचना आज के हालात पर खरी उतरती हुई दिखी ,आज किसानों की स्थिति चिन्ताजनक है। मुझे अब याद नहीं कि तब करीब 30 वर्ष पहले किन परिस्थितियों से प्रभावित होकर मैंने यह रचना लिखी होगी ? कृषकोंं की चिन्ताजनक स्थिति या फिर लोगों में बढ़ती  धनलोलुपता  ? तब परिस्थितियाँ जो भी रही हो, अपने विद्यार्थी जीवन के समय की रचना आप लोगों के साथ साझा कर रही हूँ आप सभी की प्रतिक्रिया के इंतज़ार में- मेरे छुटपन की कविता ! कागज का छोटा सा टुकड़ा (रुपया) पागल बना देता है जन को खेती करना छोड़कर डाकू बना रहा है मन को । इसके लिए ही भाग रहे श्रमिक मजदूर सिपाही इसी के लिए दौड़-भागकर देते हैं सब सुख - चैन को भी तबाही.... हे देश के नवजवानोंं ! सुनो प्रकृति का़ संदेश इसके पीछे मत भागो, यह चंचल अवशेष । कृषकों के मन को भी अगर रुपया भा जायेगा  तो खेती छोड़कर उनको भी दौड़ना ही भायेगा । फिर कृषक जन भी खेती छोड़ रुपया कमायेंगे  तब क्या करेंंगे पूँजीपति , जब अन्न कहीं नहीं पायेंगे ? रुपये को सब कुछ समझने वालों एक बार आजमा लो ! कृषकों की...

" धरती माँ की चेतावनी "

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     मानव तू संतान मेरी   मेरी ममता का उपहास न कर ।   सृष्टि - मोह वश मैंं चुप सहती, अबला समझ अट्टहास न कर ।       सृष्टि की श्रेष्ठ रचना तू !   तुझ पर मैने नाज़ किया ।    कल्पवृक्ष और कामधेनु से , अनमोल रत्न उपहार दिया ।  क्षुधा मिटाने अन्न उपजाने,    तूने वक्ष चीर डाला मेरा ।  ममतामयी - माँ  बनकर  मैने,     अन्न दे , साथ दिया तेरा ।     तरक्की के नाम पर तूने , खण्ड -खण्ड किया मुझको ।     नैसर्गिकी छीन ली मेरी ,  फिर भी माफ किया तुझको ।  पर्यावरण प्रदूषित करके तू ,     ज्ञान बढाये जाता है ।  अंतरिक्ष तक जाकर तू ,      विज्ञान बढाये जाता है । वृक्षों को काटकर तू अपनी    इमारत ऊँची करता है । प्राण वायु दूषित कर अब , खुद मास्क पहनकर चलता है । गौमाता को आहार बना तू,   दानव जैसा बन बैठा । चल रहा विध्वंस की राह पर तू ,   सर्वनाशी बनकर ऐंठा । दानव बनकर जब जब तूने , मानवता ...

सियासत और दूरदर्शिता

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                                                            प्रभु श्री राम के रीछ-वानर हों या, श्री कृष्ण जी के ग्वाल - बाल महात्मा बुद्ध के परिव्राजक हों या, महात्मा गाँधी जी के  सत्याग्रही दूरदर्शी थे समय के पारखी थे, समय की गरिमा को पहचाने थे अपनी भूमिका को निखारकर जीवन अपना संवारे थे आजकल भी कुछ नेता बड़े दूरदर्शी हो गये, देखो ! कैसे दल-बदल मोदी -लहर में बह गये इसी को कहते हैं चलती का नाम गाड़ी, गर चल दिया तो हुआ सयाना छूट गया तो हुआ अनाड़ी । नीतीश जी को ही देखिये, कैसे गठबंधन छोड़ बैठे ! व्यामोह के चक्रव्यूह से, कुशलता से निकल बैठे ! दूरदर्शिता के परिचायक नीतीश जी  राजनीति के असली दाँव पेंच चल बैठे। भाजपा का दामन पकड़ अनेक नेता सफल हो गये दल - बदलू बनकर ये सियासत के रंग में रंग लिये बहुत बड़ी बात है,देशवासियों का विश्वासमत हासिल करना ! उससे भी बड़ी बात है विश्वास पर खरा उतरना ...

*कुदरत की मार*

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देखो ! अब का मनभावन सावन,  कैसे  अस्त-व्यस्त  है जीवन ! कहीं पड़ रही उमस भरी गर्मी,  कहींं मौसम की ज्यादा ही नर्मी..... कहीं भरा है पानी - पानी, कहीं बाढ़ देख हुई हैरानी ! कहीं घर में भर आया पानी , घर छोड़ी फिर मुनिया रानी....... भीगी सारी किताबें उसकी, भीग  गया  जब  बस्ता... कैम्पस में दिन काट रहे, खाने को मिले न खस्ता.... घर पर बछिया छोटी सी बाँधी थी वह  खूँटी  से... वहीं बंधी गौरा(गाय) प्यारी.... दूध निकाले थी महतारी कैसी होगी बछिया बेचारी, क्या सोची होगी गौरा प्यारी....? छोड़ा उनको खुद आ भागे !! उन सबका वहाँ कौन है आगे...? सूखी थी जब नदी गर्मी में तब कचड़ा फैंके थे नदी में....? रास्ता जब नदी का रोका...... पानी ने घर आकर टोका ! मौसम को बुरा कहते अब सब, सावन को "निरा" कहते हैंं सब । मत भूलो अपनी ही करनी है , फिर ये सब खुद ही तो भरनी है...... राजस्थान हुआ बाढ़ से बेहाल, गुजरात  का भी है  बुरा हाल.... पहाड़ों पर हो रहा भूस्खलन..... कहीं बादल फटने का है चलन । "विज...

तुम और वो

तुम तो तुम हो न !  अप्राप्य को हर हाल मेंं प्राप्त करना तुम्हारी फितरत भी है, और पुरुषार्थ भी । जो भी जब तक अलभ्य है, अनमोल है तुम्हारे लिए ! उसे पाना ही तो है तुम्हारा सपना, तुम्हारी मंजिल ! है न ! प्राप्त कर लिया तो बस  । जीत गये ! अब क्या ? कुछ भी नहीं !  कोई मोल नहीं  ! घर में डाल दिया सामान की तरह ! और फिर शुरू तुम्हारे नये सपने ,नयी मंजिल ! इधर वो पगली ! और उसके स्वयं से समझौते ! फिर अपना नसीब समझकर तुम्हारी निठुराई से भी प्रेम ! उफ ! हद है पागलपन की ! नफरत के बीज तुम उगाते रहे वो प्रेम जल से भिगाती रही दूरियां इस कदर तुम बढाते रहे पास आने की उम्मीद लगाती रही तुम छीनने की कोशिश में थे उसने ये अवसर दिया ही कहाँ ? तुम मुट्ठी भर चुराने चले वो अंजुल भर लुटाती रही मनहूस कह जिसे दरकिनार कर तुम बेवफाई निभाने चले किस्मत समझ कर स्वीकार कर वो एतबार अपना बढ़ाती रही क्रोध की आग में तुम जलते रहे प्रेम से मरहम वो लगाती रही तुम्ही खो गये हो सुख-चैन अपना वो तो तुमपे ही बस मन लगाती रही तुम पाकर भी सुखी थे कहाँ ? वो खोकर भी पाती रही तुम जीत कर भी हा...

"एक सफलता ऐसी भी"

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मिठाई का डिब्बा मेरी तरफ बढाते हुए वह मुस्कुरा कर बोली  "नमस्ते मैडम जी !मुँह मीठा कीजिए" मैं मिठाई उठाते हुए उसकी तरफ देखकर सोचने लगी ये आवाज तो मंदिरा की है परन्तु चेहरा ! नहीं नहीं वह तो अपना मुंह दुपट्टे से छिपा कर रखती है ।  नहीं पहचाना मैडम जी !   मैं मंदिरा  मंदिरा तुम ! मैने आश्चर्य से पूछा, यकीनन मैं उसे नहीं पहचान पायी ,पहचानती भी कैसे , मंदिरा तो अपना चेहरा छिपाकर रखती है । न रखे तो करे क्या बेचारी,पल्लू सर से हटते ही सारे बच्चे चिल्ला उठते हैं, भूत!...भूत!!......फिर कहते,"आण्टी !आपका चेहरा कितना डरावना है" !!! उसका होंठ कटा हुआ था,  जन्म से !  इसीलिए तो हमेशा मुँह दुपट्टे से ढ़ककर रखती है वह। पर आज तो होंठ बिल्कुल ठीक लग रहा था।  ना ही उसने मुँह छिपाया था औऱ न ही इसकी जरूरत थी । मैने मिठाई उठाते हुए उसके मुँह की तरफ इशारा करते हुए पूछा कैसे ? और सुना है तुमने काम भी छोड़ दिया ..? वह मुस्कुराते हुए बोली ; "अभी आप मुँह मीठा कीजिये मैडम जी !  बताती हूँ ।   आप सबको बताने ही तो आयी हूँ ,नहीं तो सब सोचते होंगे मंदिरा च...

भीख माँगती छोटी सी लड़की

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जूस(fruit juice) की दुकान पर,    एक छोटी सी लड़की एक हाथ से,  अपने से बड़े,    फटे-पुराने,मैले-कुचैले       कपड़े सम्भालती एक हाथ आगे फैलाकर सहमी-सहमी सी,          सबसे भीख माँगती । वह छोटी सी लड़की उस दुकान पर      हाथ फैलाए भीख माँगती आँखों में शर्मिंदगी,सकुचाहट लिए,       चेहरे पर उदासी ओढे ललचाई नजर से हमउम्र बच्चों को        सर से पैर तक निहारती वह छोटी सी लड़की ,खिसियाती सी,          सबसे भीख माँगती । कोई कुछ रख देता हाथ में उसके ,         वह नतमस्तक हो जाती कोई "ना" में हाथ हिलाता,तो वह        गुमसुम आगे बढ जाती ।       अबकी  जब उसने हाथ  बढाया,     सामने एक सज्जन को पाया सज्जन ने  निज हाथों  से अपनी,       सारी जेबों को थपथपाया लड़की आँखों में  उम्मीदें  लेकर,        देख रही विनम्र वहाँ प...

"मन और लेखनी"

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लिखने का मन है, लिखती नहीं लेखनी, लिखना मन चाहता, कोई जीवनी कहानी । शब्द आते नहीं, मन बोझिल है दुःखी लेखनी । लिखने का मन है, लिखती नहीं लेखनी । मन मझधार में है , लेखनी पार जाना चाहती, मन में अपार गम हैं, लेखनी सब भुलाना चाहती । सारे दुखों  को भूल अन्त सुखी बनाना चाहती, मन मझधार में है, लेखनी पार जाना चाहती । चन्द लेख बन्द रह गये, यूँ  ही  किताबों  में । जैसे कुछ राज छुपे हों , जीवन की यादों में, वक्त बेवक्त उफनती , लहरेंं 'मन-सागर' में, देखूँ ! कब तक सम्भलती हैं, ये यादें जीवन में।? लेखनी समझे उलझन, सम्भल के लिख भी पाये। वो लेख ही क्या लिखना जो 'सुलझी-सीख' न दे पाये।

अहंकार

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               चित्र, साभार गगूल से...... मानसूनी मौसम में बारिश के चलते, सूखी सी नदी में उफान आ गया । देख पानी से भरा विस्तृत रूप अपना, इतराने लगी नदी, अहंकार छा गया बहाती अपने संग कंकड़-पत्थर, फैलती काट साहिल को अपने! हुई गर्व से उन्मत इतनी, पास बने कुएं से उलझी। बोली कुआं ! देखो तो मुझको, देखो ! मेरी गहराई चौड़ाई , तुम तो ठहरे सिर्फ कूप ही , मैं नदी कितनी भर आयी !! शक्ति मुझमें इतनी कि सबको बहा दूँ , चाहूँ  गर  तो  तुमको भी खुद में समा दूँ। मैं उफनती नदी हूँ. ! देखो जरा मुझको, देखो ! बढ रही कैसे मेरी गहराई चौड़ाई। मेरा नीर हिल्लौरें भरता, मंजिल तक जायेंगे हम तो । कूप तू सदा यहीं तक सीमित, सागर हो आयेंगे हम तो ! कुआं मौन सुन रहा,नदी को , नहीं प्रतिकार किया तब उसने। जैसे  दादुर  की टर्र - टर्र से , कोयल मौन हुई तब खुद में । चंद समय में मौसम बदला , बरसाती जल अब नहीं बरसा। नदी बेचारी फिर से सूखी पुनः पतली धारा में बदली। कुआं नदी को सम्बोधित करके, फिर बोला ...

लौट आये फिर कहीं प्यार

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सांझ होने को है, रात आगे खड़ी। बस भी करो अब शिकवे, बात बाकी पड़ी । सुनो तो जरा मन की, वह भी उदास है । ऐसा भी क्या तड़पना अपना जब पास है । ना कर सको प्रेम तो, चाहे झगड़ फिर लो । नफरत की दीवार लाँघो, चाहे उलझ फिर लो । शायद सुलझ भी जाएंं, खामोशियों के ये तार । लौट आयेंं बचपन की यादें, लौट आये फिर कहीं प्यार  ? खाई भी गहरी सी है, चलो पाट डालो उसे । सांझ ढलने से पहले, बगिया बना लो उसे । नन्हींं नयी पौध से फिर, महक जायेगा घर-बार । लौट आयें बचपन की यादें, लौट आये फिर कहीं प्यार ? अहम को बढाते रहोगे, स्वयं को भुलाते रहोगे । वक्त हाथों से फिसले तभी, कर न पाओगे तुम कुछ भी सार । लौट आयें बचपन की यादें लौट आये फिर कहीं प्यार ? ढले साँझ समझे अगर बस सिर्फ पछताओगे बस में न होगा समय फिर क्या तुम कर पाओगे आ भी जाओ जमीं कह रही अब गिरा दो अहम की दीवार लौट आयें बचपन की यादें लौट आये फिर कहीं प्यार ? लौट आओ वहींं से जहाँँ हो, बना लो पुनः परिवार लौट आयेंं बचपन की यादें, लौट आये फिर कहीं प्यार ?                      ...

समय तू पंख लगा के उड़ जा......

माँँ !  मुझे भी हॉस्टल में रहना है,मेरे बहुत से दोस्त हॉस्टल में रहते हैं, कितने मजे है उनके !....हर पल दोस्तों का साथ नहीं कोई डाँट-डपट न ही कोई किचकिच । मुझे भी जाना है हॉस्टल, शौर्य अपनी माँ से कहता तो माँ उसे समझाते हुए कहती "बेटा ! जब बड़े हो जाओगे तब तुम्हे भी भेज देंगे हॉस्टल ।फिर तुम भी खूब मजे कर लेना" । समझते समझाते शौर्य कब बड़ा हो गया पता ही नहीं चला, और आगे की पढ़ाई के लिए उसे भी हॉस्टल भेज दिया गया। बहुत अच्छा लगा शुरू-शुरू में शौर्य को हॉस्टल मेंं ।परन्तु जल्दी ही उसे घर और बाहर का फर्क समझ में आने लगा । अब वह घर जाने के लिए छुट्टियों का इन्तजार करता है,और घर व अपनोंं की यादों में कुछ इस तरह गुनगुनाता है । समय तू पंख लगा के उड़ जाकर उस पल को पास ले आ । जब मैंं मिल पाऊँ माँ -पापा से , माँ-पापा मिल पायें मुझसे वह घड़ी निकट तो ला ! समय तू पंख लगा के उड़ जा । छोटे भाई बहन मिलेंगे प्यार से मुझसे, हम खेलेंगे और लडे़ंगे फिर से । वो बचपन के पल फिर वापस ले आ ! समय तू थोड़ा पीछे मुड़ जा ! तब ना थी कोई टेंशन-वेंशन ना था कोई लफड़ा, ना आगे की फि...

सुख-दुख

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   दुख एक फर्ज है, फर्ज तो है एहसान नहीं ।   फर्ज है हमारे सर पर, कोई भिक्षा या दान नहीं ।  दुख सहना किस्मत के खातिर, कुछ सुख आता पर दुख आना फिर ।  दुख सहना किस्मत के खातिर ।     दुख ही तो है सच्चा साथी सुख तो अल्प समय को आता है ।     मानव जब तन्हा  रहता है, दुख ही तो साथ निभाता है । फिर दुख से यूँ घबराना क्या ? सुख- दुख में भेद  बनाना क्या ? जीवन है तो सुख -दुख भी हैं, ख्वाबों मे सुख यूँ सजाना क्या ? एक  सिक्के के ही ये दो पहलू सुख तो अभिलाषा में अटका दुख में अटकलें लगाना क्या ?  मानव रूपी अभिनेता हम सुख-दुख अपने किरदार हुए. । जो मिला सहज स्वीकार करें  सुख- दुख में हम इकसार बने ।

कर्तव्य परायणता

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उषा की लालिमा पूरब में नजर आई....... जब  दिवाकर रथ पर सवार, गगन पथ पर बढने लगे..... निशा की विदाई का समय निकट था...... चाँद भी तारों की बारात संग जाने लगे .......... एक दीपक अंधकार से लडता, एकाकी खडा धरा पर..... टिमटिमाती लौ लिए फैला रहा  प्रकाश तब...... अनवरत करता रहा कोशिश वह अन्धकार मिटाने की...... भास्कर की अनुपस्थिति में उनके दिये उत्तदायित्व निभाने की.... उदित हुए दिनकर, दीपक ने मस्तक अपना झुका लिया...... दण्डवत किया प्रणाम ! पुनः कर्तव्य अपना निभा लिया...... हुए प्रसन्न भास्कर ! देख दीपक की कर्तव्य परायणता को...... बोले "पुरस्कृत हो तुम कहो क्या पुरस्कार दें तुमको".......? सहज भाव बोला दीपक, देव ! "विश्वास भर रखना"........ कर्तव्य सदा निभाऊंगा, मुझ पर आश बस रखना....... उत्तरदायित्व मिला आपसे,कर्तव्य मैं निभा पाया....... "कर्तव्य" ही सर्वश्रेष्ठ पुरस्कार है ,  जो मैने आपसे पाया......

आशान्वित हुआ फिर गुलमोहर...

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खडा था वह आँगन के पीछे लम्बे ,सतत प्रयास  और  अथक, इन्तजार के बाद आयी खुशियाँ.... शाखा -शाखा खिल उठी थी, खूबसूरत फूलों से.... मंद हवा के झोकों के संग, होले-होले..... जैसे पत्ती-पत्ती खुशियों का, जश्न मनाती...... धीमी-धीमी हिलती-डुलती, खिलते फूलो संग...... जैसे मधुर-मधुर सा गीत, गुनगुनाती......... खुशियाँ ही खुशियाँ थी हर-पल, दिन भी थे हसीन...... चाँदनी में झूमती, मुस्कुराती टहनी, रातें भी थी रंगीन...... आते-जाते पंथी भी मुदित होते, खूबसूरत फूलोंं पर..... कहते "वाह ! खिलो तो ऐसे जैसे , खिला सामने गुलमोहर"...... विशाल गुलमोहर हर्षित हो प्रसन्न, देखे अपनी खिलती सुन्दर काया, नाज किये था मन ही मन...... कितना प्यारा था वह क्षण !......... खुशियों की दोपहर अभी ढली नहीं कि - दुख का अंधकार तूफान बनकर ढा गया, बेचारे गुलमोहर पे.... लाख जतन के बाद भी--- ना बचा पाया अपनी खूबसूरत शाखा, भंयकर तूफान से....... अधरों की वह मुस्कुराहट अधूरी सी , रह गयी..... जब बडी सी शाखा टूटकर जमीं पर , ढह गयी........... तब अवसा...

नारी ! अब तेरे कर्तव्य और बढ़ गये.....

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बढ़ रही दरिन्दगी समाज में, नारी ! तेरे फर्ज और बढ गये  माँ है तू सृजन है तेरे हाथ में, अब तेरे कर्तव्य और बढ गये संस्कृति, संस्कार  रोप बाग में , माली तेरे बाग यूँ उजड गये  दया,क्षमा की गन्ध आज है कहाँ ? फूल में सुगन्ध आज है कहाँ ? ममत्व,प्रेम है कहाँँ तू दे रही ? पशु समान पुत्र बन गये ..... नारी ! तू ही पशुता का नाश कर, समष्ट सृष्टि का नया विकास कर । नारी ! तेरे फर्ज और बढ़ गये अब तेरे कर्तव्य और बढ़ गये मशीनरी विकास आज हो रहा , मनुष्यता का ह्रास आज हो रहा । धर्म-कर्म भी नहीं रहे यहाँ , अन्धभक्ति ही पनप रही यहाँ । वृद्ध आज आश्रमों  में रो रहे , घर गिरे मकान आज हो रहे...... सेवा औऱ सम्मान अब रहा कहाँ ? घमंड और अपमान ही बचा यहाँ । संस्कृति विलुप्त आज हो रही माँ भारती भी रुग्ण हो के रो रही माँ भारती की है यही पुकार अब , बचा सके तो तू बचा संस्कार अब"। अनेकता में एकता बनी रहे .......... बन्धुत्व की अमर कथा बनी रहे । अनेक धर्म लक्ष्य सबके एक हों , सम्मान की प्राची प्रथा बनी रहे सत्यता का मार्ग अब दिखा उन्हें शिष्टता , सहिष्णुता...

"सैनिक---देश के"

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कब तक चलता रहेगा बोलो, लुका-छुपी का खेल ये ?....... अब ये दुश्मन बन जायेंगे, या फिर होगा मेल रे ?......... उसने सैनिक मार गिराये, तुमने बंकर उडा दिये........ ईंट के बदले पत्थर मारे, ताकत अपनी दिखा रहे........ संसद की कुर्सी पर बैठे, नेता रचते शेर रे........... एक दिन सैनिक बनकर देखो, कैसे निकले रेड़ रे......... शहादत की चाह से सैनिक कब सरहद पर जाता है ?....... हर इक पिता कब पुत्र-मरण में, सीना यहाँ फुलाता है ?........ गर्वित देश और अपने भी, ये हैंं शब्दों के फेर रे........... कब तक चलता रहेगा बोलो, लुका-छिपी का खेल ये ?......... भरी संसद में नेताओं पर , जूते फेंके जाते हैं........... सरहद पर क्यों हाथ बाँधकर, सैनिक भेजे जाते हैं ?......... अजब देश के गजब हैं नुख्से , या हैं ये भी राजनीति के खेल रे ?........ कब तक चलता रहेगा बोलो, लुका-छिपी का खेल ये ?........... विपक्षी के दो शब्दों से जहाँ, स्वाभिमान हिल जाते हैं........ नहीं दिखे तब स्वाभिमान जब, सैनिकों पे पत्थर फैंके जाते हैं......     आजाद देश को रखने वाले, स्वयं ग...

"माँ"

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माँ इतनी आशीष दें ! कर सके कोई अर्पण तुम्हें... प्रेम से तुमने सींचा हमें बढ सकें यूँ कि छाँव दें तुम्हें... तेरे ख्वाबों को आबाद कर मंजिलों तक पहुँच पायेंं हम सपने बिखरे न तेरे कोई काम इतना तो कर जाएंं हम तेरे आँचल की साया तले हम बढें तपतपी राह में... ना डरें मुश्किलों से कभी ना गलत राह अपनायें हम तेरा आशीष मिलता रहे बस इतना सुधर जायें हम हाथ सर में रखे माँ सदा चरणों में जगह पायें हम । चित्र :-गूगल से...साभार

वीरांगना बन जाओ बिटिया....

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नाजुकता अब छोडो बिटिया, वीरांगना बन जाओ ना । सीखो जूडो और करांटे, बल अपना फिर बढाओ ना । भैया दण्ड-पेल हैं करते, तुम भी वही अपनाओ ना । गुड्डा-गुड्डी  खेल छोड़ तुम वीरांगी बन जाओ ना । मात-पिता की चिन्ता हो तुम, रूप नया अपनाओ ना । खेलो दंगल बवीता सा तुम, देश का मान बढाओ ना । छोड़ो कोमलता भी अपनी , समय को मात दे जाओ ना । रणचण्डी,दुर्गा तुम बनकर, दुष्टों को धूल चटाओ ना । निर्भया ज्योति थी माँ-पापा की , तम उनका भी मिटाओ ना । ऐसे दरिन्दो का काल बनो तुम , इतिहास नया ही रचाओ ना । अब कोई भी कली धरा पर , ऐसे रौंदी जाये ना । बीज पनपने से पहले ये , भ्रूण में कुचली जाये ना । दहेज के भिखमंगों को भी, बीच सडक पर लाओ ना । बहू जलाने वालों के घर- आँगन आग लगाओ ना । वीरांगना बनो तुम बिटिया सम्बल होगा देश अपना । उत्कृष्ट भविष्य के नव-निर्माण से, होगा पूरा तेरा हर सपना । चित्र ; साभार गूगल से...

आस हैं और भी.....राह हैं और भी....

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जब कभी अकेली सी लगी जिन्दगी,  तन्हाई भी आकर जब सताने लगी ।  आस-पास चहुँ ओर नजरें जो गयी,  एक नयी सोच मन मेरे आने लगी। देख ऐसी कला उस कलाकार की,  भावना गीत बन गुनगनाने लगी ।  मंजिल दूर थी रात छायी घनी, चाँद-तारों से उम्मीद करने लगी बादलों ने भी तब ही ठिठोली की चाँद-तारे छुपे आँख-मिचौली की घुप्प अंधेरे में डर जब सताने लगा राह सूझी नहीं मन घबराने लगा टिमटिमाते हुए जुगनू ने कहा ; "आस बाकी अभी टूट जाओ नहीं मुस्कुरा दो जरा ! रूठ जाओ नहीं है बची रौशनी होसला तुम रखो ! दिख रही राह मंजिल तक तुम चलो ! आस हैंं और भी राह हैं औऱ भी", इक नयी सोच तब मन में आने लगी ! देख ऐसी कला उस कलाकार की, भावना गीत बन गुनगुनाने लगी । करवटें जब बदलने लगी जिन्दगी धोखे और नफरत से हुए रूबरू फिर डरे देख जीवन का ये पहलू विश्वास भी डगमगाने लगा शब्द सीधे कहे अर्थ उल्टे हुये हर कोशिश नाकामी दिखाने लगी रुक गये हम जहाँ थे वहीं हारकर तब जीने की चाहत भी जाने लगी एक हवा प्रेम की सरसराते हुए बिखरी जुल्फों को यूँ सहलाने लगी देख ऐसी कला उस ...

खोये प्यार की यादें......

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वो ऐसा था/वो ऐसी थी यही दिल हर पल कहता है, गुजरती है उमर, यादों में खोया प्यार रहता है......... भुलाये भूलते कब हैं वो यादें वो मुलाकातें, भरे परिवार में अक्सर अकेलापन ही खलता है । कभी तारों से बातें कर कभी चंदा को देखें वो, कभी गुमसुम अंधेरे में खुद ही खुद को समेटें वो । नया संगी नयी खुशियाँ कहाँ स्वीकार करते हैं, उन्हीं कमियों में उलझे ये तो बस तकरार करते हैं । कहाँ जीते हैं ये दिल से, ये घर नाबाद रहता है, गुजरती है उमर यादोंं में खोया प्यार रहता है.......... साथी हो सगुण फिर भी इन्हेंं कमियां ही दिखती हैं, जो पीछे देख चलते हैं, उन्हेंं ठोकर ही मिलती हैं.। कशमकश में रहे साथी, कमीं क्या रह गयी मुझमें समर्पित है जिन्हेंं जीवन,वही खुश क्यों नहीं मुझमें । करीब आयेंगे ये दिल से, यही इन्तजार रहता है, गुजरती है उमर यादों में खोया प्यार रहता है.......। बड़े जिनकी वजह से दूर हो जीना इन्हेंं पडता, नहीं सम्मान और आदर उन्हें इनसे कभी मिलता.। खुशी इनकी इन्हें देकर बड़प्पन खुद निभाते हैं, वही ताउम्र  छोटों  से  उचित  सम्मान पाते हैं .। दिल ...

शुक्रिया प्रभु का.......

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हम चलें एक कदम फिर कदम दर कदम यूँ कदम से कदम हम फिर बढाते चले । जिन्दगी राह सी,और चलना ही अगर मंजिल नयी उम्मीद मन में जगाते रहें। खुशियाँ मिले या गम हम चले, हर कदम शुकराने तेरे मन में गाते रहें। डर भी है लाजिमी, इन राहों पर, कहीं खाई है, तो कभी तूफान हैं । कभी राही मिले जाने-अनजाने से, कहीं राहें बहुत ही सुनसान हैं । आशा उम्मीद के संग हो थोड़ा सब्र साहस देना तो उसकी पहचान है । मन मेंं हर पल करे जो शुकराना तेरा मंजिलें पास लाना तेरा काम है । ये दुनिया तेरी, जिन्दगानी तेरी, बस यूँ जीना सिखाना तेरा काम है । कभी चिलमिलाती उमस का कहर, कभी शीत जीवन सिकुडाती सी है । कभी रात काली अमावश बनी, कभी चाँद पूनम दे जाती जो है । न हो कोई शिकवा ,न कोई गिला बस तेरे गुण ही यूँ गुनगुनाते रहें, जीवन दर्शन जो दिया तूने, शुकराने तेरे मन में गाते रहें । नयी उम्मीद मन में जगाते रहें ।

उफ्फ ! "गर्मी आ गयी"

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      बसंत की मेजबानी अभी चल ही रही थी, तभी दरवाजे पर दस्तक दे गर्मी बोली ,                "लो मैंं आ गई" औऱ फिर सब एक साथ बोल उठे,            उफ ! गर्मी आ गई  ! हाँ !  मैं आ गयी, अब क्या हुआ ? सखी सर्दी  जब थी यहाँ आई, तब भी तुम कहाँ खुश थे भाई ! रोज स्मरण कर मुझे कोसे थे सर्दी को तुम ताने - बाने सर्दी सुनकर चुप लौटी बेचारी बनकर । उसे मिटाने और निबटाने, क्या-क्या नहीं किये थे तुम । पेड़ भी सारे काट गिराये, बस तुमको तब धूप ही भाये ? छाँव कहीं पर रह ना जाए, राहों के भी वृक्ष कटाये । जगह-जगह अलाव जलाकर, फिर सर्दी को तुम निबटाये । गयी बेचारी अपमानित सी होकर, बसंत आ गया फिर मुँह धोकर दो दिन की मेहमानवाजी फिर तुम सबको भा गयी। "पर अब लो मैं आ गयी" करो जतन मुझसे निबटो तुम, मैं हर घर -आँगन में छा गयी       "लो मैं आ गयी" -सुधा देवरानी पढ़िए एक और रचना इसी ब्लॉग पर ● ज्येष्ठ की तपिश और प्यासी चिड़िया

जब से मिले हो तुम

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जीवन  बदला ,दुनिया बदली, मन को अनोखा,ज्ञान मिला। मिलकर तुमसे मुझको मुझमें  एक नया इंसान मिला। रोके भी नहीं रुकती थी जो, आज चलाए चलती हूँ। जो तुम चाहते वही हूँ करती जैसे कोई कठपुतली हूँ माथे की तुम्हारी एक शिकन, मन ऐसा झकझोरे क्यों... होंठों की तुम्हारी एक हँसी मानूँ जीवन की बडी खुशी गलती भी तुम्हारी सिर्फ़ शरारत, दुख अपना गर तुम्हें मुसीबत । दुनिया अपनी उजड सी जाती, आँखों में दिखे गर थोड़ी नफरत । बेवशी सी कैसी छायी मुझमें क्यों हर सुख-दुख देखूँ तुममें..... कब चाहा ऐसे बन जाऊँँ, जजबाती फिर कहलाऊँ। प्रेम-दीवानी सी बनकर...... फिर विरह-व्यथा में पछताऊँ ।

दो दिन की हमदर्दी में, जीवन किसका निभ पाया....

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जाने इनके जीवन में , ये कैसा मोड आया, खुशियाँँ कोसों दूर गयी दुख का सागर गहराया । कैसे खुद को संभालेंगे सोच के मन मेरा घबराया । आयी है बसंत मौसम में, हरियाली है हर मन में । पतझड़ है तो बस इनके, इस सूने से जीवन में । इस सूने जीवन में तो क्या, खुशियाँ आना मुमकिन है ? अविरल बहते आँसू इनके मन मेरा देख के घबराया । छिन गया बचपन बच्चों का, उठ गया सर से अब साया, हुए अनाथ जो इक पल में जर्जर तन मन की काया । मुश्किल जीवन बीहड राहें, उस पर मासूम अकेले से, कैसे आगे बढ़ पायेंगे, सोच के मन मेरा घबराया । बूढे़ माँ-बाप आँखें फैलाकर, जिसकी राह निहारा करते थे। उसे "शहीद"कह विदा कर रहे, खुद विदा जिससे लेने वाले थे । बहती बूढ़ी आँखें जो अब  कौन पोंछने आयेगा ? गर्व करे शहीदों पर पूरा देश घरवालों को कौन संभालेगा ? दो दिन की हमदर्दी में, जीवन किसका निभ पाया ? कैसे खुद को संभालेंगे ? सोच के मन मेरा घबराया । जाने इनके जीवन में, एक ऐसा ही मोड़ आया। खुशियाँ कोसों दूर गयी, दुख का सागर गहराया ।

"पुष्प और भ्रमर"

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तुम गुनगुनाए तो मैने यूँ समझा प्रथम गीत तुमने मुझे ही सुनाया तुम पास आये तो मैं खिल उठी यूँ अनोखा बसेरा मेरे ही संग बसाया । हमेशा रहोगे तुम साथ मेरे, बसंत अब हमेशा खिला ही रहेगा तुम मुस्कुराये तो मैंं खिलखिलाई ये सूरज सदा यूँ चमकता रहेगा । न आयेगा पतझड़ न आयेगी आँधी, मेरा फूलमन यूँ ही खिलता रहेगा। तुम सुनाते रह़ोगे तराने हमेशा और मुझमें मकरन्द बढता रहेगा। तुम्हें और जाने की फुरसत न होगी मेरा प्यार बस यूँ ही फलता रहेगा ।।            "मगर अफसोस" !!! तुम तो भ्रमर थे मै इक फूल ठहरी वफा कर न पाये ? / था जाना जरूरी ? मैंं पलकें बिछा कर तेरी राह देखूँ                    ये इन्तजार अब यूँ ही चलता रहेगा । मौसम में जब भी समाँ लौट आये मेरा दिल हमेशा तडपता रहेगा कि ये "शुभ मिलन" अब पुनः कब बनेगा                                                      ...

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