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मई, 2017 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

बहुत समय से बोझिल मन को इस दीवाली खोला

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बहुत समय से बोझिल मन को  इस दीवाली खोला भारी भरकम भरा था उसमें  उम्मीदों का झोला कुछ अपने से कुछ अपनों से  उम्मीदें थी पाली कुछ थी अधूरी, कुछ अनदेखी  कुछ टूटी कुछ खाली बड़े जतन से एक एक को , मैंने आज टटोला बहुत समय से बोझिल मन को इस दीवाली खोला दीप जला करके आवाहन,  माँ लक्ष्मी से बोली मनबक्से में झाँकों तो माँ ! भरी दुखों की झोली क्या न किया सबके हित,  फिर भी क्या है मैने पाया क्यों जीवन में है मंडराता ,  ना-उम्मीदी का साया ? गुमसुम सी गम की गठरी में, हुआ अचानक रोला बहुत समय से बोझिल मन को इस दीवाली खोला प्रकट हुई माँ दिव्य रूप धर,  स्नेहवचन फिर बोली ये कैसा परहित बोलो,  जिसमें उम्मीदी घोली अनपेक्षित मन भाव लिए जो , भला सभी का करते सुख, समृद्धि, सौहार्द, शांति से,  मन की झोली भरते मिले अयाचित सब सुख उनको, मन है जिनका भोला बहुत समय से बोझिल मन को इस दीवाली खोला मैं माँ तुम सब अंश मेरे,  पर मन मजबूत रखो तो नहीं अपेक्षा रखो किसी से,  निज बल स्वयं बनो तो दुख का कारण सदा अपेक्षा,  मन का बोझ बढ़ाती बदले में क्या मिला सोचकर,  ...

आशान्वित हुआ फिर गुलमोहर...

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खडा था वह आँगन के पीछे लम्बे ,सतत प्रयास  और  अथक, इन्तजार के बाद आयी खुशियाँ.... शाखा -शाखा खिल उठी थी, खूबसूरत फूलों से.... मंद हवा के झोकों के संग, होले-होले..... जैसे पत्ती-पत्ती खुशियों का, जश्न मनाती...... धीमी-धीमी हिलती-डुलती, खिलते फूलो संग...... जैसे मधुर-मधुर सा गीत, गुनगुनाती......... खुशियाँ ही खुशियाँ थी हर-पल, दिन भी थे हसीन...... चाँदनी में झूमती, मुस्कुराती टहनी, रातें भी थी रंगीन...... आते-जाते पंथी भी मुदित होते, खूबसूरत फूलोंं पर..... कहते "वाह ! खिलो तो ऐसे जैसे , खिला सामने गुलमोहर"...... विशाल गुलमोहर हर्षित हो प्रसन्न, देखे अपनी खिलती सुन्दर काया, नाज किये था मन ही मन...... कितना प्यारा था वह क्षण !......... खुशियों की दोपहर अभी ढली नहीं कि - दुख का अंधकार तूफान बनकर ढा गया, बेचारे गुलमोहर पे.... लाख जतन के बाद भी--- ना बचा पाया अपनी खूबसूरत शाखा, भंयकर तूफान से....... अधरों की वह मुस्कुराहट अधूरी सी , रह गयी..... जब बडी सी शाखा टूटकर जमीं पर , ढह गयी........... तब अवसा...

नारी ! अब तेरे कर्तव्य और बढ़ गये.....

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बढ़ रही दरिन्दगी समाज में, नारी ! तेरे फर्ज और बढ गये  माँ है तू सृजन है तेरे हाथ में, अब तेरे कर्तव्य और बढ गये संस्कृति, संस्कार  रोप बाग में , माली तेरे बाग यूँ उजड गये  दया,क्षमा की गन्ध आज है कहाँ ? फूल में सुगन्ध आज है कहाँ ? ममत्व,प्रेम है कहाँँ तू दे रही ? पशु समान पुत्र बन गये ..... नारी ! तू ही पशुता का नाश कर, समष्ट सृष्टि का नया विकास कर । नारी ! तेरे फर्ज और बढ़ गये अब तेरे कर्तव्य और बढ़ गये मशीनरी विकास आज हो रहा , मनुष्यता का ह्रास आज हो रहा । धर्म-कर्म भी नहीं रहे यहाँ , अन्धभक्ति ही पनप रही यहाँ । वृद्ध आज आश्रमों  में रो रहे , घर गिरे मकान आज हो रहे...... सेवा औऱ सम्मान अब रहा कहाँ ? घमंड और अपमान ही बचा यहाँ । संस्कृति विलुप्त आज हो रही माँ भारती भी रुग्ण हो के रो रही माँ भारती की है यही पुकार अब , बचा सके तो तू बचा संस्कार अब"। अनेकता में एकता बनी रहे .......... बन्धुत्व की अमर कथा बनी रहे । अनेक धर्म लक्ष्य सबके एक हों , सम्मान की प्राची प्रथा बनी रहे सत्यता का मार्ग अब दिखा उन्हें शिष्टता , सहिष्णुता...

"सैनिक---देश के"

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कब तक चलता रहेगा बोलो, लुका-छुपी का खेल ये ?....... अब ये दुश्मन बन जायेंगे, या फिर होगा मेल रे ?......... उसने सैनिक मार गिराये, तुमने बंकर उडा दिये........ ईंट के बदले पत्थर मारे, ताकत अपनी दिखा रहे........ संसद की कुर्सी पर बैठे, नेता रचते शेर रे........... एक दिन सैनिक बनकर देखो, कैसे निकले रेड़ रे......... शहादत की चाह से सैनिक कब सरहद पर जाता है ?....... हर इक पिता कब पुत्र-मरण में, सीना यहाँ फुलाता है ?........ गर्वित देश और अपने भी, ये हैंं शब्दों के फेर रे........... कब तक चलता रहेगा बोलो, लुका-छिपी का खेल ये ?......... भरी संसद में नेताओं पर , जूते फेंके जाते हैं........... सरहद पर क्यों हाथ बाँधकर, सैनिक भेजे जाते हैं ?......... अजब देश के गजब हैं नुख्से , या हैं ये भी राजनीति के खेल रे ?........ कब तक चलता रहेगा बोलो, लुका-छिपी का खेल ये ?........... विपक्षी के दो शब्दों से जहाँ, स्वाभिमान हिल जाते हैं........ नहीं दिखे तब स्वाभिमान जब, सैनिकों पे पत्थर फैंके जाते हैं......     आजाद देश को रखने वाले, स्वयं ग...

"माँ"

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माँ इतनी आशीष दें ! कर सके कोई अर्पण तुम्हें... प्रेम से तुमने सींचा हमें बढ सकें यूँ कि छाँव दें तुम्हें... तेरे ख्वाबों को आबाद कर मंजिलों तक पहुँच पायेंं हम सपने बिखरे न तेरे कोई काम इतना तो कर जाएंं हम तेरे आँचल की साया तले हम बढें तपतपी राह में... ना डरें मुश्किलों से कभी ना गलत राह अपनायें हम तेरा आशीष मिलता रहे बस इतना सुधर जायें हम हाथ सर में रखे माँ सदा चरणों में जगह पायें हम । चित्र :-गूगल से...साभार

वीरांगना बन जाओ बिटिया....

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नाजुकता अब छोडो बिटिया, वीरांगना बन जाओ ना । सीखो जूडो और करांटे, बल अपना फिर बढाओ ना । भैया दण्ड-पेल हैं करते, तुम भी वही अपनाओ ना । गुड्डा-गुड्डी  खेल छोड़ तुम वीरांगी बन जाओ ना । मात-पिता की चिन्ता हो तुम, रूप नया अपनाओ ना । खेलो दंगल बवीता सा तुम, देश का मान बढाओ ना । छोड़ो कोमलता भी अपनी , समय को मात दे जाओ ना । रणचण्डी,दुर्गा तुम बनकर, दुष्टों को धूल चटाओ ना । निर्भया ज्योति थी माँ-पापा की , तम उनका भी मिटाओ ना । ऐसे दरिन्दो का काल बनो तुम , इतिहास नया ही रचाओ ना । अब कोई भी कली धरा पर , ऐसे रौंदी जाये ना । बीज पनपने से पहले ये , भ्रूण में कुचली जाये ना । दहेज के भिखमंगों को भी, बीच सडक पर लाओ ना । बहू जलाने वालों के घर- आँगन आग लगाओ ना । वीरांगना बनो तुम बिटिया सम्बल होगा देश अपना । उत्कृष्ट भविष्य के नव-निर्माण से, होगा पूरा तेरा हर सपना । चित्र ; साभार गूगल से...

आस हैं और भी.....राह हैं और भी....

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जब कभी अकेली सी लगी जिन्दगी,  तन्हाई भी आकर जब सताने लगी ।  आस-पास चहुँ ओर नजरें जो गयी,  एक नयी सोच मन मेरे आने लगी। देख ऐसी कला उस कलाकार की,  भावना गीत बन गुनगनाने लगी ।  मंजिल दूर थी रात छायी घनी, चाँद-तारों से उम्मीद करने लगी बादलों ने भी तब ही ठिठोली की चाँद-तारे छुपे आँख-मिचौली की घुप्प अंधेरे में डर जब सताने लगा राह सूझी नहीं मन घबराने लगा टिमटिमाते हुए जुगनू ने कहा ; "आस बाकी अभी टूट जाओ नहीं मुस्कुरा दो जरा ! रूठ जाओ नहीं है बची रौशनी होसला तुम रखो ! दिख रही राह मंजिल तक तुम चलो ! आस हैंं और भी राह हैं औऱ भी", इक नयी सोच तब मन में आने लगी ! देख ऐसी कला उस कलाकार की, भावना गीत बन गुनगुनाने लगी । करवटें जब बदलने लगी जिन्दगी धोखे और नफरत से हुए रूबरू फिर डरे देख जीवन का ये पहलू विश्वास भी डगमगाने लगा शब्द सीधे कहे अर्थ उल्टे हुये हर कोशिश नाकामी दिखाने लगी रुक गये हम जहाँ थे वहीं हारकर तब जीने की चाहत भी जाने लगी एक हवा प्रेम की सरसराते हुए बिखरी जुल्फों को यूँ सहलाने लगी देख ऐसी कला उस ...

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