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सितंबर, 2021 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

मौसम बदल जाने को है

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                     चित्र साभार photopin.com से अभी फलित भी ना हुई कि बेल मुरझाने को है देखते ही देखते ,  मौसम बदल जाने को है देर से जागे हैं तो , तत्पर संभालें आप को है गतिज ये दोपहर फिर साँझ ढ़ल जाने को है । चार दिन चौमास में , बादल घुमड़ के चल दिये दमक उठा अम्बर बदन, समझो शरद आने को है। सिमट रही नदी भी अब, नालों का साथ ना मिला सैकत भरे इस तीर का , उफान अब जाने को है । बुढिया रही बरसात अब, फूले हैं काँस केश से दादुर दुबक रहे कहीं, 'खंजन' भी अब आने को है । खिल रही कली-कली , पुष्पित सभी प्रसून हैं पयाम पुष्प पा मधुप,  सुर मधुर गाने को है ।

आसमाँ चूम लेंगे हम

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                    चित्र साभार pixabay से...  हौसला माँ ने दिया , 'पर'  दे रहे पापा कहकही सुन डर भला,क्यों खोयें हम आपा यूँ ना अब से डरेंगे हम , आसमाँ चूम लेंगे हम  खुशी से झूम लेंगे हम । ख्वाब हर पूरा करेंगे, भेड़ियों से ना डरेंगे सीख कर जूड़ो-कराँटे, अपने लिए खुद ही लडेंगे हर बुरी नजर की नजरें नोंच लेंगे हम आसमाँ चूम लेंगे हम खुशी से झूम लेंगे हम । देहलीज से निकले कदम अब ना रूकेंगे निर्भय बढेंगे हौसले अब ना झुकेंगे संस्कार हैं सरताज अपने,  बेड़ियां इनको कभी बनने न देंगे हम आसमांँ चूम लेंगे हम खुशी से झूम लेंगे हम । सब एक जैसे तो नहीं, दुनिया भली है तम है किसी कोने पे, रौशन हर गली है जब साथ है अपनों का तो अब ना डरेंगे हम आसमाँ चूम लेंगे हम खुशी से झूम लेंगे हम। कंटकों को चुन जिन्होंने राह बनाई जीत ली अस्तित्व की हर इक लड़ाई हैं उन्ही की बानगी फिर क्यों रुकेंगे हम आसमांँ चूम लेंगे हम खुशी से झूम लेंगे हम। है खुला परवाज़, 'पर' हमको मिले हैं अपनों का है साथ तो अब क्या गिले हैं अनुसरित पदचिह्न से कुछ और बढकर आने वालों को पुनः नवचिह्न देंगे हम आसमाँ चूम लेंगे हम खुशी से झूम लें

आर्थिक दरकार

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                                चित्र साभार pixabay.com से  बड़ी मेहनत से कमाया इच्छाओं पर अंकुश लगा  पाई-पाई कर बचाया कुछ जरूरी जरूरतों के अलावा नहीं की कभी मन की  न बच्चों को करने दी बचपन से ही उन्हें सर सहलाकर समझाया और कमी-बेसियों के संग ही पढाया-लिखाया। बुढापे की देहलीज में जाते -जाते अपनी जमापूँजी को बड़े जतन से बेटी - बेटों में बाँटने के लिए सपरिवार बैठकर सबने दिमाग घुमाया बेटियों के ब्याह में दहेज का बराबर हिसाब लगाया बेटियों को विदा कर बचे - खुचे पैसों में  बेटे की नौकरी के मार्फत लोन का जुगाड़ लगाया दिन-रात एक कर शहर में दो कमरों का  छोटा सा घर बनाया अपनी सफलता पर  आप ही जश्न मना दसों रोगों के चलते असमय ही विदा ले ली संसार से... इधर बेटा नई-नई नौकरी माता-पिता का अंतिम संस्कार बहन-बहनोइयों का सत्कार लोन का बोझ ढोते बड़ा ऐश कर रहा  लोगों की नजर में........ सुनी-सुनाई कही-कहाई सुन अब बहनें भी आ धमकी अपने शहरी घर कानूनी कागजात लेकर भाई ! हम भी हैं हिस्सेदार इस शहरी घर पर  हमारा भी है अधिकार  हिस्सा दे हमारा !  करे भी तो क्या कानून का मारा ?... तिस पर ये विभिन्न त्योहार  रक्षा बंधन फि

तुम उसके जज्बातों की भी कद्र कभी करोगे

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                        चित्र साभार गूगल से.... जो गुण नहीं था उसमें हरदम देखा तुमने , हर कसौटी पर खरी उतरे ये भी चाहा तुमने ! पर जो गुण हैं उसमें उसको समझ सकोगे? तुम उसके जज्बातों की भी कद्र कभी करोगे   ? बचपन की यादों से जिसने समझौता कर डाला । और तुम्हारे ही सपनों को सर आँखों रख पाला । पर उसके अपने ही मन से उसको मिलने दोगे ? तुम उसके जज्बातों की भी कद्र कभी करोगे ? सबको अपनाकर भी  सबकी हो ना पायी । है बाहर की क्यों अपनों  संग सदा परायी ? थोड़ा सा सम्मान  कभी उसको भी दोगे ? तुम उसके जज्बातों की भी कद्र कभी  करोगे ? सुनकर तुमको सीख ही जाती आने वाली पीढ़ी । सोच यही फिर बढ़ती जाती हर पीढ़ी दर पीढ़ी । परिर्वतन की नव बेला में खुद को कभी बदलोगे ?  तुम उसके जज्बातों की भी कद्र कभी करोगे ? समाधिकार उसे दोगे तो वह हद में रह लेगी । अनुसरणी सी घर-गृहस्थी की बागडोर खुद लेगी । निज गृहस्थी के खातिर तुम भी अपनी हद में रहोगे ? तुम उसके जज्बातों की भी कद्र कभी करोगे ?    

ये भादो के बादल

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चित्र साभार,pixabay से...  भुट्टे मुच्छे तान खड़े तोरई टिण्डे हर्षाते हैं  चढ़ मचान फैला प्रतान  अब सब्ज बेल लहराते हैं चटक चमकती धूप छुपा  ये घुमड़ घुमड़ गहराते हैं उमस भरे मौसम में ये  राहत थोड़ी दे जाते हैं हरियाये हैं खेत धान के, देख इन्हें बतियाते हैं जान इल्तजा उमड़-घुमड़  ये धूप मे वर्षा लाते हैं श्रृंगित प्रकृति के भाल मुकुट  जब इन्द्रधनुष बन जाते हैं नाच मयूरा ठुमक ठुमक घन गर्जन ताल बजाते हैं ये भादो के बादल हैं  अब बचा-खुचा बरसाते हैं ये चंचल कजरारे मेघा सबके मन को भाते हैं। पढ़िए, बादलों पर आधारित मेरी एक और रचना ●  अक्टूबर के अनाहूत अभ्र

निभा स्वयं से पहला रिश्ता

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Sketch by sneha devrani  बहुत हुई जब मन के मन की, तो तन को गुस्सा आया । खोली में छुपकर बैठा मन , तन जब मन पर गरमाया । अपनी अपनी हाँका करता, फिर भी मैंने तुझको माना। पर मुझमें ही रहकर भी क्या,   तूने कभी मुझे जाना ? सबकी कदर औ' फिकर तुझे , जब तेरी कोई जो सुने ना । तब गमगीन रहे तू तुझमें, अश्रु मुझ से ही बहे ना। आँखें असमय फूटी जाती, फर्क तुझे नहीं पड़ता । हाल वही बेहाल है तेरा, अपनी  जिद्द पे तू अड़ता। जाने क्या-क्या शौक तेरे ये, मुझ पर पड़ते भारी । तेरी मनमानी के कारण, मैं झेल रहा बीमारी। तेरा क्या...दुर्गत जो हुआ मैं, तू त्याग मुझे उड़ जायेगा । ढूँढ़ कोई नवतन तू फिर से,   यही प्रपंच रचायेगा।। सबको मान दिया करता तू, तनिक मुझे भी माना होता ! मेरे दुख-सुख सामर्थ्यों को, कुछ तो कभी पहचाना होता ! सामंजस्य हमारा होता, सुन मन ! निरोगी काया हम पाते । निभा स्वयं से पहला रिश्ता,  फिर दुनिया को अपनाते ।।

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