Sketch by sneha devrani बहुत हुई जब मन के मन की, तो तन को गुस्सा आया । खोली में छुपकर बैठा मन , तन जब मन पर गरमाया । अपनी अपनी हाँका करता, फिर भी मैंने तुझको माना। पर मुझमें ही रहकर भी क्या, तूने कभी मुझे जाना ? सबकी कदर औ' फिकर तुझे , जब तेरी कोई जो सुने ना । तब गमगीन रहे तू तुझमें, अश्रु मुझ से ही बहे ना। आँखें असमय फूटी जाती, फर्क तुझे नहीं पड़ता । हाल वही बेहाल है तेरा, अपनी जिद्द पे तू अड़ता। जाने क्या-क्या शौक तेरे ये, मुझ पर पड़ते भारी । तेरी मनमानी के कारण, मैं झेल रहा बीमारी। तेरा क्या...दुर्गत जो हुआ मैं, तू त्याग मुझे उड़ जायेगा । ढूँढ़ कोई नवतन तू फिर से, यही प्रपंच रचायेगा।। सबको मान दिया करता तू, तनिक मुझे भी माना होता ! मेरे दुख-सुख सामर्थ्यों को, कुछ तो कभी पहचाना होता ! सामंजस्य हमारा होता, सुन मन ! निरोगी काया हम पाते । निभा स्वयं से पहला रिश्ता, फिर दुनिया को अपनाते ।। पढ़िए मेरी एक और रचना निम्न लिंक पर -- ● जिसमें अपना भला है, बस वो होना है