'प्रवासी'
मुक्तक---मेरा प्रथम प्रयास (1) हमें तो गर्व था खुद पे कि हम भारत के वासी हैं दुखी हैं आज जब जाना यहाँ तो हम प्रवासी हैं सियासत की सुनो जानो तो बस इक वोट भर हैं हम सिवा इसके नहीं कुछ भी बस अंत्यज उपवासी हैं ( 2) महामारी के संकट में आज दर-दर भटकते हैं जो मंजिल थी चुनी खुद ही उसी में अब अटकते हैं मदद के नाम पर नेता सियासी खेल हैं रचते कहीं मोहरे कहीं प्यादे बने हम यूँ लटकते हैं (3) सहारे के दिखावे में जो भावुकता दिखाते हैं बड़े दानी बने मिलके जो तस्वीरें खिंचाते हैं सजे से बन्द डिब्बे यों मिले अक्सर हमें खाली किसी की बेबसी पर भी सियासत ही सजाते हैं चित्र गूगल से साभार....