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फ़रवरी, 2018 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

बहुत समय से बोझिल मन को इस दीवाली खोला

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बहुत समय से बोझिल मन को  इस दीवाली खोला भारी भरकम भरा था उसमें  उम्मीदों का झोला कुछ अपने से कुछ अपनों से  उम्मीदें थी पाली कुछ थी अधूरी, कुछ अनदेखी  कुछ टूटी कुछ खाली बड़े जतन से एक एक को , मैंने आज टटोला बहुत समय से बोझिल मन को इस दीवाली खोला दीप जला करके आवाहन,  माँ लक्ष्मी से बोली मनबक्से में झाँकों तो माँ ! भरी दुखों की झोली क्या न किया सबके हित,  फिर भी क्या है मैने पाया क्यों जीवन में है मंडराता ,  ना-उम्मीदी का साया ? गुमसुम सी गम की गठरी में, हुआ अचानक रोला बहुत समय से बोझिल मन को इस दीवाली खोला प्रकट हुई माँ दिव्य रूप धर,  स्नेहवचन फिर बोली ये कैसा परहित बोलो,  जिसमें उम्मीदी घोली अनपेक्षित मन भाव लिए जो , भला सभी का करते सुख, समृद्धि, सौहार्द, शांति से,  मन की झोली भरते मिले अयाचित सब सुख उनको, मन है जिनका भोला बहुत समय से बोझिल मन को इस दीवाली खोला मैं माँ तुम सब अंश मेरे,  पर मन मजबूत रखो तो नहीं अपेक्षा रखो किसी से,  निज बल स्वयं बनो तो दुख का कारण सदा अपेक्षा,  मन का बोझ बढ़ाती बदले में क्या मिला सोचकर,  ...

धरा तुम महकी-महकी बहकी-बहकी सी हो

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फूलों की पंखुड़ियों से धरा तुम यूँ मखमली हो गयी महकती बासंती खुशबू संग शीतल बयार हौले से बही खुशियों की सौगात लिए तुम अति प्रसन्न सी हो । धरा तुम महकी - महकी बहकी - बहकी सी हो ! सुमधुर सरगम गुनगुनाती धानी चुनरी सतरंगी फूलों कढ़ी हौले-हौले से सरसराती, नवोढ़ा सा सोलह श्रृंगार किये आज खिली - खिली सजी-धजी सी हो । धरा तुम महकी - महकी बहकी-बहकी सी हो ! कोई बदरी संदेशा ले के आई  क्या ? आसमां ने प्रेम-पाती भिजवाई क्या ? प्रेम रंग में भीगी भीगी आज मदहोश सी हो । धरा तुम महकी-महकी बहकी - बहकी सी हो ! मिलन की ऋतु आई धरा धानी चुनरीओढे मुख छुपाकर यूँ लजाई , नव - नवेली सुमुखि जैसे सकुचि बैठी मुँह दिखाई आसमां से मिलन के पल "हाल ए दिल" तुम कह भी पायी ? आज इतनी खोई खोई सी हो । धरा तुम महकी - महकी बहकी - बहकी सी हो ! चाँद भी रात सुनहरी आभा लिए था । चाँदनी लिबास से अब ऊब गया क्या ? तुम्हारे पास बहुत पास उतर आया ऐसे , सगुन का संदेश ले के आया जैसे सुनहरी चाँदनी से तुम नहायी रात भर क्या ? ऐसे निखरी और निखरी सी हो । धरा तुम महकी-महकी बहकी-बहकी सी हो !    ...

"अब इसमें क्या अच्छा है ?...

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जो भी होता है अच्छे के लिए होता है      जो हो गया अच्छा ही हुआ। जो हो रहा है वह भी अच्छा ही हो रहा है।    जो होगा वह भी अच्छा ही होगा ।              अच्छा ,  अच्छा ,  अच्छा !!!     जीवन में सकारात्मक सोच रखेंगे            तो सब अच्छा होगा !!!                         मूलमंत्र माना इसे और अपने मन में, सोच में , व्यवहार में          भरने की कोशिश भी की। परन्तु हर बार कुछ ऐसा हुआ अब तक,          कि प्रश्न किया मन ने मुझसे ,          कभी अजीब सा मुँह बिचकाकर,            तो कभी कन्धे उचकाकर        "भला अब इसमें क्या अच्छा है" ?                     क्या करूँ ?        कैसे बहलाऊँ इस नादान मन को ?  ...

मेरे दीप तुम्हें जलना होगा

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    है अंधियारी रात बहुत, अब तुमको ही तम हरना होगा... हवा का रुख भी है तूफानी, फिर भी    मेरे दीप तुम्हें जलना होगा !!! मंदिम-मंदिम ही सही तुम्हें, हर हाल में रोशन रहना होगा....    अब आशाएं बस तुमसे ही, मेरे दीप तुम्हें जलना होगा !!!  तूफान सामने से गुजरे जब, शय मिले जिधर लौ उधर झुकाना... शुभ शान्त हवा के झोकों संग, फिर हौले से  तुम जगमगाना !!! अब हार नहीं लाचार नहीं हर तिमिर तुम्हेंं हरना होगा... उम्मीदों की बाती बनकर, मेरे दीप तुम्हें जलना होगा !!! राहों में अंधेरापन इतना,गर तुम ही नहीं तो कुछ भी नहीं.... क्या पाया यों थककर हमने, मंजिल न मिली तो कुछ भी नहीं !!! हौसला निज मन में रखकर, तूफ़ानों से अब लड़ना होगा .... मन ज्योतिर्मय करने को मेरे दीप तुम्हें जलना होगा !!! जलने मिटने से क्या डरना, नियति यही किस्मत भी यही.... रोशन हो जहांं कर्तव्य निभे, अविजित तुमको रहना होगा !!! अंधियारों में प्रज्वलित रहके  जग ज्योतिर्मय करना होगा तूफानो में अविचलित रह के अब ज्योतिपुंज बनना होगा अब आशाएं बस तुमसे ही म...

जीवन जैसी ही नदिया निरन्तर बहती जाती....

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पहाड़ों से उद्गम, बचपन सा अल्हड़पन, चपल, चंचल वेगवती,झरने प्रपात बनाती अलवेली सी नदिया, इठलाती बलखाती राह के मुश्किल रौड़ो से,कभी नहीं घबराती काट पर्वत शिखरों को,अपनी राह बनाती इठलाती सी बालपन में,सस्वर आगे बढ़ती जीवन जैसी ही नदिया, निरन्तर बहती जाती.... अठखेलियां खेलते, उछलते-कूदते पर्वतों से उतरकर,मैदानों तक पहुँचती बचपन भी छोड़ आती पहाड़ों पर ही यौवनावस्था में जिम्मदारियाँँ निभाती कर्मठ बन मैदानों की उर्वरा शक्ति बढ़ाती कहीं नहरों में बँटकर,सिंचित करती धरा को कहीं अन्य नदियों से मिल सुन्दर संगम बनाती अब व्यस्त हो गयी नदिया रिश्ते अनेक निभाती जीवन जैसी ही नदिया, निरन्तर बहती जाती........ अन्नपूरित धरा होती, सिंचित होकर नदियों से हर जीवन चेतन होता,तृषा मिटाती सदियों से, अनवरत गतिशील प्रवृति, थामें कहाँ थम पाती है थमती गर क्षण भर तो,विद्युत बना जाती है परोपकार करते हुये कर्मठ जीवन अपनाती जीवन जैसी ही नदिया, निरन्तर बहती जाती....... वेगवती कब रुकती, आगे बढ़ना नियति है उसकी अब और सयानी होकर, आगे पथ अपना स्वयं बनाती छोड़ चपलता चंचलता , गंभीरता अपनाती कहीं डेल्टा कहीं...

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