सोमवार, 28 दिसंबर 2020

हाइबन

 

Cheetah

                             【1】

एक विधवा वन से लकड़ियां काटकर उन्हें घर -घर बेचकर अपने परिवार का भरण पोषण करती थी अचानक वन विभाग से लकड़ी काटने पर सख्त मनाही होने से वह जंगल से लकड़ियां नहीं ला पायी तो घर में भुखमरी की नौबत आ गयी उससे ये सब सहा न गया तो वह रात के अंधेरे में जंगल से लकड़ियां चुराने निकल पड़ी, उसने लकड़ियां काटकर गट्ठर तैयार किया और उठाने ही वाली थी कि तभी भयंकर चिंघाड़ सुनकर उसके हाथ पैर ठंडे पड़ गये देखा तो उसके ठीक सामने चीता खड़ा था , काटो तो खून नहीं वाली हालत थी उसकी डर से...बचने का कोई तरीका नहीं सूझ रहा था उसे...अनायास ही उसने दोनो हाथ जोड़ दिये और जैसी थी वैसी ही जड़ हो गयी, उसने बताया चीता उसके और करीब आया इतना करीब कि अब उसे उसका पीछे का हिस्सा ही दिखाई दे रहा था और वह अपलक स्थिर हाथ जोड़े खड़ी थी उसे लगा कि चीते ने उसे सूंघा और क्षण भर बाद वह मुड़ गया और वहां से चला गया। इसी खौफनाक दृश्य पर निर्मित्त् हाइबन ......


लकड़ी गट्ठा~

करबद्ध महिला

चीता सम्मुख



                            【2】

ओशो की जानकारी के अनुसार1937 में तिब्‍बत और चीन के बीच बोकाना पर्वत की एक गुफा में 716 पत्‍थर के रिकार्डर मिले हैं । आज से कोई साढ़े 13 हजार साल पुराने। ये रिकॉर्डर बड़े आश्‍चर्य के हैं, क्‍योंकि ये रिकॉर्डर ठीक वैसे ही हैं, जैसे ग्रामोफोन का रिकॉर्ड होता है। ठीक उसके बीच में एक छेद है और पत्‍थर पर ग्रूव्‍ज है, जैसे कि ग्रामोफोन के रिकॉर्ड पर होते हैं। अब तक यह नहीं पता चला कि ये किस यंत्र पर बजाए जा सकेंगे।

रूस के एक बड़े वैज्ञानिक डॉ. सर्जीएव ने वर्षों तक मेहनत करके यह प्रमाणित तो कर दिया है कि वे रिकॉर्ड ही हैं। बस यह तय नहीं हो पाया कि किस यंत्र पर और किस सुई के माध्‍यम से ये पुनर्जीवित हो सकेंगे, अगर ये एकाध पत्‍थर का टुकड़े होते तो हम इन्हें सांयोगिक भी मान सकते थे, पर ये पूरे 716 हैं। और सब एक जैसे, जिनमें बीच में छेद हैं। सब पर ग्रूव्‍ज है और इनकी पूरी तरह साफ-सफाई करने के बाद जब विद्युत यंत्रों से परीक्षण किया गया तो बड़ी हैरानी हुई कि उनसे प्रतिपल विद्युत की किरणें विकिरणित हो रही हैं। लेकिन आज से 13 हजार साल पहले भी क्या ऐसी कोई व्‍यवस्‍था थी कि वह पत्‍थरों में कुछ रिकॉर्ड कर सके , हैरानी की बात है। पत्थर के इन रिकॉर्डर पर निर्मित हाइबन-----

बोकाना गिरी~

शिला के रिकॉर्डर

कंदरा मध्य।


 

            चित्र, साभार गूगल से....


सोमवार, 21 दिसंबर 2020

जन्म 'एक और गरीब का'



                                                               

 
खिल ही जाते हैं गरीब की बगिया में भी

मौसमानकूल कुछ फूल चाहे अनचाहे,

सिसकते सुबकते कुछ अलसाये से ।

जिनके स्पर्श से जाग उठती है ,

उनकी अभावग्रस्त मरियल सी आत्मा ।

आशा की बुझती चिनगारी को

फूँकनी से फूँक मार-मारकर,

जलाते हैं हिम्मत की लौ ।

पीठ पर चिपके पेट और कंकाल सी देह को

उठाकर धोती के चिथड़े से कमर कसकर

सींचने लगते हैं ये अपनी बगिया ।

सिसकियाँ फिर किलकारियों में बदलती हैं !

और मुस्कराने लगती है इनकी कुटिया !             

फिर इन्हीं का सहारा लिए  बढने लगती है   

इनकी भी वंशबेल।


हर माँ-बाप की तरह ये भी बुनते हैंं,

चन्द रंगीन सपने !

और फिर अपनी औकात से बढ़कर,

केंचुए सा खिंचकर तैयार करते हैं,

अपने नौनिहाल के सुनहरे भविष्य का बस्ता !

उसे शिक्षित और स्वावलंबी बनाने हेतु

भेजते हैं अपनी ही तरह 

घिसते-पिटते सरकारी विद्यालय में !

 

बड़ा होता बच्चा मास्टर जी के 

सवालों के जबाब ढूँढ़ता है,

अपने जन्मदाता की खाँसती उखड़ती साँसों में !

बचपन का चोला, किताबों भरे बस्ते में 

लपेटकर झाड़ी में छुपा, 

समझदारी का लिबास ओढ़े

समय से पहले सयाना बनकर 

ढ़ूँढ़ता है रास्ता जनरल स्टोर जैसी दुकानों का,

और बन जाता है विद्यार्थी से डिलीवरी ब्वॉय 

ताकि अपने बीमार, लाचार जन्मदाता के 

काँपते जर्जर कन्धों का बोझ 

कुछ हल्का कर सके !


ऐसा नहीं कि वो उन्नति नहीं करता,

करता है न,

डिलीवरी ब्वॉय के छोटे-मोटे आइटम 

उठाना छोड़  बड़े-बड़े भंडारगृहों में 

भारी-भारी अनाज की बोरियों से लेकर

 रेलवे स्टेशनों में अमीरों के 

भारी-भरकम सूटकेसों तक ।

ये अपने बड़े होकर उन्नति करने का 

पर्याप्त प्रमाण देता है ।

जिन्दगी अपनी रफ्तार से आगे खिसकती है,

और ये सारा दिन बोझ तले दबी 

टेढ़ी हुई कमर को जबरन सीधा कर 

पानी के छीटों से चेहरे की थकान और बेबसी 

को धो-पोंछकर खुशी के मुखोटे पे 

बड़ी सी मुस्कराहट सजा हर साँझ पहुँचता है ,

सिटी हॉस्पिटल जिन्दगी और मौत से लड़ते 

अपने जन्मदाता से मिलने ।

जहाँ जीवन भर की भुखमरी, रक्ताल्पता और 

कुपोषण के चलते असाध्य से बन बैठे हैंं 

उनके लिए साधारण से क्षयरोग या कुछ और भी ।


अपने लल्लन को देख चमक उठती हैं                  

बुझी-बुझी आँखें हर साँझ !                                

और फिर एक दिन पड़ौसी मरीज से सुनते है कि,   

"बड़ा समझदार लागे थारा लल्ला!                           

म्हारी छोरी संग ब्याह लो इने ! चैन से मर पावेंगे तब"


बस अपनी जिम्मेदारी को प्रणयबंधन में बाँध              

जीने की वजह देकर 

उखड़ती साँसों से मुक्त होती है 

इधर एक जर्जर देह !                   

और उधर फिर खिलता है एक और                      

अलसाया सा पुष्प गरीब की बगिया में

अपने इतिहास को दोहराने हेतु                            

फिर-फिर होता है                                                  

जन्म 'एक और गरीब का '   ।।     


         चित्र , साभार pixabay से.


पढिए ऐसे ही भावों के मंथन पर आधारित एक और सृजन

 ●   विचार मंथन









गुरुवार, 17 दिसंबर 2020

दर्द होंठों में दबाकर....

old man feet ;full of dust ;

उम्र भर संघर्ष करके

रोटियाँ अब कुछ कमाई

झोपड़ी मे खाट ताने

नींद नैनों जब समायी

नींद उचटी स्वप्न भय से

क्षीण काया जब बिलखती

दर्द होठों में दबाकर

भींच मुट्ठी रूह तड़पती...


शिथिल देह सूखा गला जब

घूँट जल को है तरसता

हस्त कंपित जब उठा वो

सामने मटका भी हँसता

ब्याधियाँ तन बैठकर फिर

आज बिस्तर हैं पकड़ती

दर्द होंठों में दबाकर

भींच मुट्ठी रुह तड़पती


ये मिला संघर्ष करके

मौत ताने मारती है

असह्य सी इस पीर से

अब जिन्दगी भी हारती है

खत्म होती देख लिप्सा

रोटियाँ भी हैं सुबकती

दर्द होंठों में दबाकर

भींच मुट्ठी रुह तड़पती



                          चित्र साभार गूगल से....



ऐसे ही एक और नवगीत  "वृद्धावस्था  "








मंगलवार, 8 दिसंबर 2020

अपनों को परखकर....



men walking on a lonely road ;blur memory


 अपनों को परखकर यूँ परायापन दिखाते हो 

पराए बन वो जाते हैं तो आंसू फिर बहाते हो

न झुकते हो न रुकते क्यों बातें तुम बनाते हो 

उन्हें नीचा दिखाने को खुद इतना गिर क्यों जाते हो

पराये बन वो जाते हैं तो आँसू फिर बहाते हो


अपनों को परखकर......


मिले रिश्ते जो किस्मत से निभाना है धरम अपना

जीत लो प्रेम से मन को यही सच्चा करम अपना

तुम्हारे साथ में वो हैं तो हक अपना जताते हो

पराये बन वो जाते हैं तो आँसू फिर बहाते हो।


अपनों को परखकर ......


कोई रिश्ता जुड़ा तुमसे निभालो आखिरी दम तक

सुन लो उसके भी मन की, सुना लो नाक में दम तक

बातें घर की बाहर कर, तमाशा क्यों बनाते हो

पराये बन वो जाते हैं तो आँसू फिर बहाते हो


अपनों को परखकर......


ये घर की है तुम्हारी जो, उसे घर में ही रहने दो

कमी दूजे की ढूँढ़े हो, कमी अपनी भी देखो तो

बही थी प्रेम गंगा जो, उसे अब क्यों सुखाते हो

पराये बन वो जाते हैं तो आँसू फिर बहाते हो


अपनों को परखकर....


चले घर त्याग करके जो, तो जाने दो न रोको तुम

जहाँ खुश हैं रहें जाकर, न जाके उनको टोको तुम

क्यों जाने वालों को घर की राह फिर फिर दिखाते हो

पराये बन वो जाते हैं तो आँसू फिर बहाते हो


 अपनों को परखकर....


            चित्र साभार गूगल से...

बुधवार, 2 दिसंबर 2020

कभी ले हरी नाम अरी रसना!

Lord Krishna

फूटे घट सा है ये जीवन

भरते-भरते भी खाली है

कभी ले हरि नाम अरी रसना !

अब साँझ भी होने वाली है.....


जब से हुई भोर और आँख खुली

जीवन, घट भरते ही बीता

कितना भी किया सब गर्द गया

खुद को पाया रीता-रीता


धन-दौलत जो भी कमाई है

सब यहीं छूटने वाली है।

कभी ले हरी नाम अरी रसना!

अब साँझ भी होने वाली है......


इस नश्वर जग में नश्वर सब

रिश्ते-नाते भी मतलब के

दिन-रैन जिया सब देख लिया

अन्तर्मन को अब तो मथ ले....


मुरलीधर माधव नैन बसा

छवि जिनकी बहुत निराली है

कभी ले हरी नाम अरी रसना!

अब साँझ भी होने वाली है......



                           चित्र, photopin.comसे...




मरे बिना स्वर्ग ना मिलना

 कंधे में लटके थैले को खेत की मेंड मे रख साड़ी के पल्लू को कमर में लपेट उसी में दरांती ठूँस बड़े जतन से उस बूढ़े नीम में चढ़कर उसकी अधसूखी टहनिय...