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जनवरी, 2023 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

बहुत समय से बोझिल मन को इस दीवाली खोला

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बहुत समय से बोझिल मन को  इस दीवाली खोला भारी भरकम भरा था उसमें  उम्मीदों का झोला कुछ अपने से कुछ अपनों से  उम्मीदें थी पाली कुछ थी अधूरी, कुछ अनदेखी  कुछ टूटी कुछ खाली बड़े जतन से एक एक को , मैंने आज टटोला बहुत समय से बोझिल मन को इस दीवाली खोला दीप जला करके आवाहन,  माँ लक्ष्मी से बोली मनबक्से में झाँकों तो माँ ! भरी दुखों की झोली क्या न किया सबके हित,  फिर भी क्या है मैने पाया क्यों जीवन में है मंडराता ,  ना-उम्मीदी का साया ? गुमसुम सी गम की गठरी में, हुआ अचानक रोला बहुत समय से बोझिल मन को इस दीवाली खोला प्रकट हुई माँ दिव्य रूप धर,  स्नेहवचन फिर बोली ये कैसा परहित बोलो,  जिसमें उम्मीदी घोली अनपेक्षित मन भाव लिए जो , भला सभी का करते सुख, समृद्धि, सौहार्द, शांति से,  मन की झोली भरते मिले अयाचित सब सुख उनको, मन है जिनका भोला बहुत समय से बोझिल मन को इस दीवाली खोला मैं माँ तुम सब अंश मेरे,  पर मन मजबूत रखो तो नहीं अपेक्षा रखो किसी से,  निज बल स्वयं बनो तो दुख का कारण सदा अपेक्षा,  मन का बोझ बढ़ाती बदले में क्या मिला सोचकर,  ...

असर

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माँजी खाना खा लीजिए न ! ऐसे खाने पर क्यों गुस्सा उतारना ? चलिए न माँजी ! फिर आपकी दवाओं का समय हो रहा है , तबियत बिगड़ जायेगी ! चलिए खाना खा लीजिए न ! कितनी देर से सीमा ऐसे ही अपनी सासू माँ को मना रही थी, पर सासू माँ आज  मुँह फुलाए बैठी थी , आखिर उनके लाडले पोते बंटी को उसके पापा से डाँट जो पड़ गयी थी । बंटी आजकल अपनी दादी के इसी प्यार का गलत फायदा उठा रहा था , कोई भी गलती करता और डाँट पड़े तो दादी से शिकायत ! वह जानता था कि दादी सबको डाँट-डपट कर उसे बचा लेंगी , नतीजतन वह बहुत ही लापरवाह होता जा रहा था । उसका सामान पूरे घर भर में बिखरा रहता । जूते - चप्पल भी वह कभी सही तरीके से सही जगह न रखता । उसका कमरा भी हमेशा अस्त-व्यस्त रहता, किताबें और कपड़े पूरे कमरे में तितर-बितर फैले रहते । सीमा (उसकी माँ) उसके कमरे में बिखरे सामानों को समेटते - समेटते थक जाती और जब भी कभी उसे इस बारे में डाँटती या कुछ भी कहती तो वह साथ-साथ जुबान लड़ाता । माँ को तो जैसे कुछ समझता ही नहीं था । तंग आकर सीमा ने आज उसके पापा से शिकायत कर दी । पापा की डाँट पड़ी तो घड़ियाली आँसू बहा आया दादी से लिपटकर । बस फिर दादी शुर...

वसुधा अम्बर एक हो गये

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दिग-दिग्गज हैं अलसाये से खग मृग भी सब सोये से हैं । थर थर थर है शिशिर काँपती, साग-पात सब रोये से हैं । लता वृक्ष सब मुरझाए से, पात बिछड़ने का झेलें गम । मारी-मारी फिरें तितलियाँ, फूलों का मकरंद गया जम । छुपम-छुपाई खेल रहे रवि, और पवन पुरजोर चल रही । दुबके सोये पता ना चलता, रात कटी कब भोर टल रही । दादुर मोर सभी चुप-चुप हैं, कोयल मैना कहीं खो गये । मौन मिलन आलिंगनबद्ध से वसुधा अम्बर एक हो गये । सकल सृष्टि स्तब्ध खड़ी सी, बाट जोहती ज्यों बसंत का । श्रृंगारित होगी दुल्हन सी, शुभागमन हो रति अनंग का ।

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