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तन में मन है या मन में तन ?

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ये मन भी न पल में इतना वृहद कि समेट लेता है अपने में सारे तन को, और हवा हो जाता है जाने कहाँ-कहाँ ! तन का जीव इसमें समाया उतराता उकताता जैसे हिचकोले सा खाता, भय और विस्मय से भरा, बेबस ! मन उसे लेकर वहाँ घुस जाता है जहाँ सुई भी ना घुस पाये, बेपरवाह सा पसर जाता है। बेचारा तन का जीव सिमटा सा अपने आकार को संकुचित करता, समायोजित करता रहता है बामुश्किल स्वयं को इसी के अनुरूप वहाँ जहाँ ये पसर चुका होता है सबके बीच।  लाख कोशिश करके भी ये समेटा नहीं जाता,  जिद्दी बच्चे सा अड़ जाता है । अनेकानेक सवाल और तर्क करता है समझाने के हर प्रयास पर , और अड़ा ही रहता है तब तक वहीं जब तक भर ना जाय । और फिर भरते ही उचटकर खिसक लेता वहाँ से तन की परवाह किए बगैर । इसमें निर्लिप्त बेचारा तन फिर से खिंचता भागता सा चला आ रहा होता है इसके साथ, कुछ लेकर तो कुछ खोकर अनमना सा अपने आप से असंतुष्ट और बेबस । हाँ ! निरा बेबस होता है ऐसा तन जो मन के अधीन हो।  ये मन वृहद् से वृहद्तम रूप लिए सब कुछ अपने में समेटकर करता रहता है मनमानी । वहीं इसके विपरीत कभी ये पलभर में सिकुड़कर या सिमटकर अत्यंत सूक्ष्म रूप में छिपक...

बदलाव - 'अपनों के खातिर'

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  आज जब आकाश ने धरा का हाथ अपने हाथ में लेकर बड़े प्यार से कहा, "इधर आओ धरा ! हमेशा जल्दी में रहती हो, जरा पास में बैठो तो" ! तो अपने कानों पर विश्वास नहीं कर पायी वह, विस्मित नेत्रों से आकाश को देखते हुए बोली, "क्या ?.. वो...मैं...मैंने ठीक से सुना नहीं " ! "सुना नहीं या सुनकर भी दोबारा सुनना चाहती हो ! मुस्कुराते हुए उसे प्यार से अपने पास खींचकर आकाश बोला तो आश्चर्य से उसकी आँखें फैल गयी !  आकाश को इतने रोमांटिक मूड में वह सालों बाद देख रही थी । उसने खुद को हल्की चूटी काटी कि ये मैं हमेशा की तरह कोई सपना तो नहीं देख रही, उम्ह!...दर्द से कराह उठी वो ! फिर संयत होकर इधर उधर देखकर बोली , "जी ! आप ठीक तो हैं ? कहिए क्या बात है ? उसके ऐसे व्यवहार से आकाश भी झेंप सा गया । फिर नरम लहजे में बोला, "क्या बात है धरा ! आजकल तुम कुछ बदल सी गयी हो ? घरवाले भी कह रहे हैं और मुझे भी लग रहा है कि तुम पहले सी नहीं रही अब ! क्यों धरा ! क्या जरूरत है इस बदलाव की ? एक तुम ही तो हो जिसके कारण इस घर में सुख शांति रहती आयी है ।  मैं दिल से मानता हूँ धरा ! कि तुम्हारी जगह ...

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