देखो तो अब आयी महारानी !...क्या कह रही थी जाते समय ..."नहीं यार आज जाने का मन नहीं है तुम दोनों इतने सालों बाद मेरे घर मुझसे मिलने आये हो और मैं चली जाऊं ...नहीं नहीं आज के लिए माफी माँग लूंगी ठाकुर जी से...आज नहीं जा पाउँगी सत्संग में.....
हैं न मीना ! यही कह रही थी न ये"(कमला ने चुटकी लेते हुए कहा)।
"हाँ सखी! कहा तो यही था और हमने ही इसे जबरदस्ती भेजा इसका दोहरा मन देखते हुए .....।
और अब देखो सबके बाद आयी ....अरे लगता है इसे तो याद भी न रहा होगा वहाँ कि हम आये हैं ......हैं न!...
दोनों सखियाँ सरला का मजाक बनाते हुए हँसने लगी
तो सरला बोली; "हँसो हँसो खूब हँसो तुम दोनों भी......खूब मजाक उड़ाओ मेरा.......
पर मैं भी बता देती हूँ कि मैं भूली नहीं थी तुमको वहाँ भी.....
अरे !सच बताऊँ तो आज मन ही नहीं लगा सत्संग में....
बचपन की जिन मस्तियों को याद कर हम तीनों खूब हँसे थे न सुबह से...रह रहकर वही यादें वहाँ भी कुलबुला रही थी मन में".......
"अच्छा तब ही देरी हुई न हमारे पास आने में"...कहकर दोनों सखियां फिर खिल्ली उड़ाई।
अरे नहीं सखी ! सुनो तो बताऊं न कि क्यों देरी हुई.. पर तुम तो अपनी ही चलाये जा रही हो...सरला बोली।
"अच्छा! चल बता ...कौन सा बहाना बनायेगी सुनते हैं" कहते हुए एक दूसरे के हाथ पे ताली मारकर दोनों खिलखिलाई।
सरला बोली; "बहाना नहीं सखी, सच कह रही हूँ जब जा रही थी न तो सोचा आज सबसे आखिरी में दरवाजे के पास ही बैठूंगी सत्संग खत्म होते ही सबसे पहले प्रसाद लेकर दौड़ी चली आउंगी ।
सत्संग भवन के बाहर पहुंची तो चप्पलें उतारते हुए ख्याल आया कहीं चप्पलें इधर-उधर न हो जायें, मुझे जल्दी जाना है न, इसलिये सबसे आखिरी मे सबसे हटकर अपनी चप्पलें उतारी ताकि झट से पहन कर आ सकूँ।
और संत्संग में भी कहाँ मन लगा, बचपन की मस्तियाँ जो याद की थी न हमने, अनायास ही याद आकर होंठों में मुस्कराहट फैला रही थी, तभी ध्यान आता सत्संग में हूँ तो मन ही मन माफी माँग रही थी ठाकुर जी से...
संत्संग खत्म होते ही अपनी बारी का इंतज़ार किये बिना ही झपटकर प्रसाद लिया और बाहर की तरफ भागी।
चप्पलें पहनने लगी तो देखा एक चप्पल गायब... हड़बड़ाकर चप्पल ढूंढने लगी तो सबकी चप्पलें इधर-उधर कर दी.....
क्या बताऊँ सखी! कुछ लोग ताने मारने लगे तो कुछ आश्चर्य से घूर रहे थे मुझे......।
बहुत कोशिश के बाद भी चप्पल न मिली तो मैं समझ गयी और चुपचाप एक कोने में खड़ी इस ठिठोली का आनंद लेने लगी।
ठिठोली ! कैसी ठिठोली ? दोनों सखियों ने एक साथ पूछा।
तब सरला बोली; "हाँ सखी! ठिठोली नहीं तो और क्या?...जब सब अपनी चप्पलें पहनकर चले गये न, तब मेरी चप्पल पूर्ववत स्थान पर जहाँ मैंने रखी थी वहीं पर वैसे ही नजर आयी...
हैं !!!....पर ये ठिठोली की किसने....? आश्चर्यचकित होकर दोनों समवेत स्वर में बोली।
भक्ति भाव से आनंदित होते हुए सरला बोली;"मेरे हरि ने....हाँ सखी ! ये ठिठोली मेरे हरि ने की।
आज मुझे तुम्हारे साथ हँसी ठिठोली करते देख स्वयं सखा भाव में आ गये, और मेरे मन के भावों को समझ स्वयं भी ठिठोली कर बैठे....।
सच सखी ! मेरे हरि बड़े विनोदी हैं"।