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सितंबर, 2020 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

बहुत समय से बोझिल मन को इस दीवाली खोला

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बहुत समय से बोझिल मन को  इस दीवाली खोला भारी भरकम भरा था उसमें  उम्मीदों का झोला कुछ अपने से कुछ अपनों से  उम्मीदें थी पाली कुछ थी अधूरी, कुछ अनदेखी  कुछ टूटी कुछ खाली बड़े जतन से एक एक को , मैंने आज टटोला बहुत समय से बोझिल मन को इस दीवाली खोला दीप जला करके आवाहन,  माँ लक्ष्मी से बोली मनबक्से में झाँकों तो माँ ! भरी दुखों की झोली क्या न किया सबके हित,  फिर भी क्या है मैने पाया क्यों जीवन में है मंडराता ,  ना-उम्मीदी का साया ? गुमसुम सी गम की गठरी में, हुआ अचानक रोला बहुत समय से बोझिल मन को इस दीवाली खोला प्रकट हुई माँ दिव्य रूप धर,  स्नेहवचन फिर बोली ये कैसा परहित बोलो,  जिसमें उम्मीदी घोली अनपेक्षित मन भाव लिए जो , भला सभी का करते सुख, समृद्धि, सौहार्द, शांति से,  मन की झोली भरते मिले अयाचित सब सुख उनको, मन है जिनका भोला बहुत समय से बोझिल मन को इस दीवाली खोला मैं माँ तुम सब अंश मेरे,  पर मन मजबूत रखो तो नहीं अपेक्षा रखो किसी से,  निज बल स्वयं बनो तो दुख का कारण सदा अपेक्षा,  मन का बोझ बढ़ाती बदले में क्या मिला सोचकर,  ...

मुक्तक-- 'नसीब'

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इधर  सम्भालते  उधर से छूट जाता है, आइना हाथ से फिसल के टूट जाता है, बहुत की कोशिशें सम्भल सकें,हम भी तो कभी, पर ये नसीब तो पल-भर में रूठ जाता है । सहारा ना मिला तो ना सही , उठ बैठे हम , घाव रिसते रहें, ना पा सके कोई मलहम। जमाना ये न समझे, हम गिरे भी राहों में, होंठ भींचे, मुस्कराये पी गये झट सारे गम । कभी रंगती दिखी हमको भी ये तकदीर ऐसे, लगा पतझड़ गयी अब खिल रही बसंत जैसे, चार दिन चाँदनी के फिर अंधेरी रात सी थी, बदा तकदीर में जो अब बदलता भी कैसे ? फिर भी हारे नहीं चलते रहे, चलना ही था, रात लम्बी थी मगर रात को ढ़लना ही था, मिटा तम तो सवेरे सूर्य ज्यों ही जगमगाया, घटा घनघोर छायी सूर्य को छुपना ही था। अंधेरों में ही मापी हमने तो जीवन की राहें, नहीं है भाग्य में तो छोड़ दी यूँ सुख की चाहें, राह कंटक भरी पैरों को ना परवाह इनकी, शूल चुभते रहे भरते नहीं अब दर्दे-आहें ।

सोसाइटी में कोरोना की दस्तक

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  "माफ कीजिएगा इंस्पेक्टर साहब ! आपसे एक रिक्वेस्ट है कृपया आप सोसाइटी के गेट को बन्द न करें और ये पेपर मेरा मतलब 'नोटिस', हाँ इसे भी गेट के बाहर चिपकाने की क्या जरूरत है आप न इसे हमें दे दीजिए हम सभी को वॉर्न कर देंगे, और इसे यहाँ चिपकाते हैं न , ये सोसाइटी ऑफिस के बाहर । यहाँ सही रहेगा ये। आप बेफिक्र रहिए"।  सोसायटी के प्रधान राकेश चौहान ने जब कहा तो इंस्पेक्टर साहब बोले, "चौहान जी मुझे ये नहीं समझ मे नहीं आ रहा कि आप गेट को सील क्यों नहीं करने देना चाहते, आपकी सोसाइटी में इसके अलावा दो गेट और हैं, और इस गेट के पास वाले अपार्टमेंट में कोरोना पॉजीटिव का पेशेंट मिला है , तो ये गेट सबकी सुरक्षा को देखकर बन्द होना चाहिए इसमें आपको क्या परेशानी है ? "परेशानी तो कुछ नहीं सर ! बस सोच रहे हैं इसे हम ही अन्दर से लॉक देंगे सबको बता भी देंगे तो कोई इधर से नहीं आयेगा वो क्या है न सर ! अगर आप बन्द करेंगे तो लोगोंं के मन में इस बिमारी को लेकर भय बैठ जायेगा और आप तो जानते ही हैं, भय से रोग प्रतिरोधक क्षमता भी कम हो सकती है , है न सर" ! "ठीक है चौहान जी आप इस गे...

लघुकथा - नानी दादी के नुस्खे

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आज दादी की तबीयत ठीक नहीं है । अक्कू बेटा मुझे कीचन में कुछ काम है तुम दादी के पास बैठकर इनका ख्याल रखो ! मैं अपने काम निबटाकर अभी आती हूँ।  "हाँ माँ ! मैं यही पर हूँ आप चिंता मत करो, मैं ख्याल रखूंगा दादी का ।  दादी !  मैं हूँ आपके पास, कुछ परेशानी हो तो मुझे बताइयेगा"। कहकर अक्षय अपने मोबाइल में व्यस्त हो गया। थोड़ी देर बाद दादी ने कराहते आवाज दी, "अक्कू! बेटा ! पैरों में तेज दर्द हो रहा है,देख तो चारपाई के नीचे मैंने दर्द निवारक तेल बनाकर शीशी मेंं रखा है , थोड़ा तेल लगा दे बेटा पैरों में, आराम पड़ जायेगा"। "ओह दादी !  तेल लगाने से कुछ नहीं होगा । रुको ! मैं मोबाइल में गूगल पर सर्च करता हूँ , यहाँ 'नानी दादी के नुस्खे'  में बहुत सारे घरेलू उपाय लिखे रहते हैं, उन्हें पढ़कर आपके  पैरों के दर्द को मिटाने का कोई अच्छा सा उपाय देखता हूँ, और वही दवा बनाकर आपके पैरों में लगाउंगा"।  कहकर अक्षय पुनः मोबाइल में व्यस्त हो गया। बेचारी दादी कराहते हुए बोली, "हम्म अपनी दादी नानी तो जायें भाड़ में, गूगल पे दादी नानी के नुस्खे ! हे मेरे राम जी !  क्या जमाना आ ग...

मेरे ऐक्वेरियम की वो नन्हींं फिश...

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  मेरे ऐक्वेरियम की वो नन्हींं फिश देखो जीना हमें है सिखा रही है बंधी फिर भी उन्मुक्त सोच से काँच घर  को समन्दर बना रही मेरे ऐक्वेरियम की वो नन्हींं फिश देखो जीना हमें है सिखा रही जब वो आयी तो थोड़ा उदास थी बहुत प्यारी थी अपने में खास थी जल्द हिलमिल गयी बदले परिवेश में हर हालात मन से अपना रही मेरे ऐक्वेरियम की वो नन्हीं फिश देखो जीना हमें है सिखा रही दाने दाने की जब वो मोहताज है  खुद पे फिर भी उसे इतना नाज है है विधाता की अनुपम सी कृति वो मूल्यांकन स्वयं का सिखा रही मेरे ऐक्वेरियम की वो नन्हींं फिश देखो जीना हमें है सिखा रही।                          चित्र साभार गूगल से...

हरि मेरे बड़े विनोदी हैं

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देखो तो अब आयी महारानी !...क्या कह रही थी जाते समय ..."नहीं यार आज जाने का मन नहीं है तुम दोनों इतने सालों बाद मेरे घर मुझसे मिलने आये हो और मैं चली जाऊं ...नहीं नहीं आज के लिए माफी माँग लूंगी ठाकुर जी से...आज नहीं जा पाउँगी सत्संग में..... हैं न मीना ! यही कह रही थी न ये"(कमला ने चुटकी लेते हुए कहा)। "हाँ सखी! कहा तो यही था और हमने ही इसे जबरदस्ती भेजा इसका दोहरा मन देखते हुए .....। और अब देखो सबके बाद आयी ....अरे लगता है इसे तो याद भी न रहा होगा वहाँ कि हम आये हैं ......हैं न!... दोनों सखियाँ सरला का मजाक बनाते हुए हँसने लगी तो सरला बोली;   "हँसो हँसो खूब हँसो तुम दोनों भी......खूब मजाक उड़ाओ मेरा....... पर मैं भी बता देती हूँ कि मैं भूली नहीं थी तुमको वहाँ भी..... अरे !सच बताऊँ तो आज मन ही नहीं लगा सत्संग में.... बचपन की जिन मस्तियों को याद कर हम तीनों खूब हँसे थे न सुबह से...रह रहकर वही यादें वहाँ भी कुलबुला रही थी मन में"....... "अच्छा तब ही देरी हुई न हमारे पास आने में"...कहकर दोनों सखियां फिर खिल्ली उड़ाई। अरे नहीं सखी ! सुनो तो बताऊं न कि क्यों ...

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