तुम और वो.....
तुम तो तुम हो न ........अप्राप्य को हर हाल मेंं प्राप्त करना तुम्हारी फितरत भी है, और पुरुषार्थ भी...... जब तक अलभ्य है, अनमोल है.......उसे पाना ही तो है तुम्हारा सपना, तुम्हारी मंजिल....... प्राप्त कर लिया ,बस...जीत गये.......अब क्या.... कुछ भी नहीं......कोई मोल नहीं ...... घर में डाल दिया सामान की तरह.........और फिर शुरू तुम्हारे नये सपने ,नयी मंजिल........ इधर वो पगली ! और उसके स्वयं से समझौते.......फिर नसीब समझ तुम्हारी निठुराई से भी प्रेम...... उफ ! हद है पागलपन की........ नफरत के बीज तुम उगाते रहे वो प्रेम जल से भिगाती रही दूरियां इस कदर तुम बढाते रहे पास आने की उम्मीद लगाती रही तुम छीनने की कोशिश में थे उसने ये अवसर दिया ही कहाँ ? तुम मुट्ठी भर चुराने चले वो अंजुल भर लुटाती रही मनहूस कह जिसे दरकिनार कर तुम बेवफाई निभाने चले किस्मत समझ कर स्वीकार कर वो एतबार अपना बढ़ाती रही क्रोध की आग में तुम जलते रहे प्रेम से मरहम वो लगाती रही तुम्ही खो गये हो सुख-चैन अपना वो तो तुमपे ही बस मन लगाती रही तुम पाकर भी सुखी थे कहाँ ? वो खोकर भी पाती रही तुम जीत कर भी