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मार्च, 2021 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

बहुत समय से बोझिल मन को इस दीवाली खोला

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बहुत समय से बोझिल मन को  इस दीवाली खोला भारी भरकम भरा था उसमें  उम्मीदों का झोला कुछ अपने से कुछ अपनों से  उम्मीदें थी पाली कुछ थी अधूरी, कुछ अनदेखी  कुछ टूटी कुछ खाली बड़े जतन से एक एक को , मैंने आज टटोला बहुत समय से बोझिल मन को इस दीवाली खोला दीप जला करके आवाहन,  माँ लक्ष्मी से बोली मनबक्से में झाँकों तो माँ ! भरी दुखों की झोली क्या न किया सबके हित,  फिर भी क्या है मैने पाया क्यों जीवन में है मंडराता ,  ना-उम्मीदी का साया ? गुमसुम सी गम की गठरी में, हुआ अचानक रोला बहुत समय से बोझिल मन को इस दीवाली खोला प्रकट हुई माँ दिव्य रूप धर,  स्नेहवचन फिर बोली ये कैसा परहित बोलो,  जिसमें उम्मीदी घोली अनपेक्षित मन भाव लिए जो , भला सभी का करते सुख, समृद्धि, सौहार्द, शांति से,  मन की झोली भरते मिले अयाचित सब सुख उनको, मन है जिनका भोला बहुत समय से बोझिल मन को इस दीवाली खोला मैं माँ तुम सब अंश मेरे,  पर मन मजबूत रखो तो नहीं अपेक्षा रखो किसी से,  निज बल स्वयं बनो तो दुख का कारण सदा अपेक्षा,  मन का बोझ बढ़ाती बदले में क्या मिला सोचकर,  ...

बदलती सोच 【1】

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पहले से ही खचाखच भरी बस जब स्टॉप पर रुकी तो बहुत से लोगों के साथ एक शराबी भी बस में चढ़ा जो खड़े रह पाने की हालत में नहीं था...। सभी सीट पहले से ही फुल थी, उसे लड़खड़ाते देख बस में खड़ी महिलाएं इधर उधर खिसकने की कोशिश करने लगी। तभी एक उन्नीस - बीस साल की लड़की अपनी सीट से उठी और शराबी को सीट पर बैठने का आग्रह किया। शराबी बड़े रौब से लड़खडा़ती आवाज में बोला, "इट्स ओके…आइ विल मैनेज"...। लड़की ने बस कंडक्टर से इशारा कर शराबी को अपनी सीट पर बिठा दिया। बस में खड़ी सभी महिलाओं के चेहरे पर सहजता के भाव साफ नजर आ रहे थे ..... अब वह लड़की भी उन्ही के साथ खड़ी थी। तभी एक बुजुर्ग महिला बस के झटके से गिरने को हुई तो लड़की ने उन्हें सम्भाला और पास में बैठे लड़के से बोली "भाई क्या आप अपनी सीट इन ऑण्टी को दे सकते हैं"...? लड़का तपाक से बोला "मैं आपकी तरह बेवकूफ नहीं हूँ, कि अपनी सीट दूसरों को देकर धक्के खाता फिरूँ...। आपने उस शराबी को सीट क्यों दी ? देनी ही थी तो इन ऑण्टी जैसे लोंगो को देती जो खड़े रहने में अक्षम हैं..... और वैसे भी तुम्हारी सीट तो महिला आरक्षित सीट थी न"....?   लड़की बड़...

अहा ! कितने व्यूअर् होंगे !

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  अपनी चादर में पैर रुकते नहीं जमाने के ऐसे फैला कि हक उसी का है । चुप है दूजा कि छोड़ रहने दो, कलह न हो वो तो निपट कायर ही समझ बैठा है। शान्ति से शान्ति की वार्ता अगर चाहे कोई गीदड़ भभकी से भय बनाके ऐसे ऐंठा है। शेर कब तक सहे गीदड़ की ये ललकार आखिर एक गर्जन से ही लाचार छुपा दुबका है। करें तो क्या करें बिल में छुपे इन जयचन्दों का कहीं अर्जुन भी वही प्रण लिए ऐंठा हैं। तमाशा देखने को हैं कितने आतुर  देखो ! मुँह में राम बगल में छुरी दबा के बैठा है। मदद की गुहारें भी हवा में दफन होती हैं यहाँ इयरफोन में सुनने लायक ही कौन रहता है । महाभारत हुआ तो अहा ! कितने 'व्यूअर' होंगे ! कलयुगी व्यास अब वीडियो बनाने बैठा है।

पाई-पाई जोड़ती

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  कमाई अठन्नी पर खरचा रुपया कर तिस पे मंहगाई देखो कमर है तोड़ती सिलटी दुफटी धोति तन लाज ढ़क रही  पेट काट अपना वो पाई-पाई जोड़ती। तीस में पचास सी बुढ़ायी गयी सूरत से व्याधियां भी हाड़ -मांस सब हैं निचोड़ती सूट-बूट पहन पति,नजर फेर खिसके आज अकल पे निज अब , सर-माथ फोड़ती। मन तोड़ पाई जोड़ , संचित करे जो आज रोगन शिथिल तन ,  कुछ भी न सोहती सेहत अनमोल धन, बूझि अब दुखी मन मन्दमति जान अपन भाग अब कोसती। चित्र साभार  ' pixabay .com'

नयी सोच

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 ठुड्डी को हथेली में टिकाए उदास बैठी बिन्नी से माँ ने बड़े प्यार से पूछा, "क्या हुआ बेटा ये उदासी क्यों"? "मम्मा ! आज मेरे इंग्लिश के मार्क्स पता चलेंगें " "तो ? आपने तो अच्छी तैयारी की थी न एक्जाम की !फिर डर क्यों ? मम्मा ! मुझे लगता है, मैं फेल हो जाउंगी। अरे ! नहीं बेटा ! शुभ-शुभ बोलो, और अच्छा सोचो ! वो कहते हैं न , बी पॉजिटिव ! हम्म, कहते तो हैं पर क्या करूं मम्मा ! खुशी चाहिए तो गंदा सोचना ही पड़ता है । अरे !  ये क्या बात हुई भला ! अच्छा सोचोगे तब अच्छा होगा न ! और बुरा सोचोगे तो बुरा ही होगा, खुशी भी कहाँ से मिलेगी बेटा ! ओह मम्मा ! अच्छा सोचती हूँ तो एक्सपेक्टेशन बढ़ती है, फिर जो भी मार्क्स आते हैं वो कम लगने लगते हैं, फिर दुखी होती हूँ । और इसके अपॉजिट बुरा सोचकर एक्सपेक्टेशन खतम, फिर जो भी मार्क्स आयें वो खुशी देते हैं । इसीलिये खुशी चाहिए तो बुरा सोचना ही पड़ता है मम्मा ! हैं  ! कहते हुए अब माँ असमंजस में पड़ गयी। चित्र ,साभार गूगल से पढ़िए एक लघु कहानी ●  सोसायटी में कोरोना की दस्तक

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