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जुलाई, 2021 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

बहुत समय से बोझिल मन को इस दीवाली खोला

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बहुत समय से बोझिल मन को  इस दीवाली खोला भारी भरकम भरा था उसमें  उम्मीदों का झोला कुछ अपने से कुछ अपनों से  उम्मीदें थी पाली कुछ थी अधूरी, कुछ अनदेखी  कुछ टूटी कुछ खाली बड़े जतन से एक एक को , मैंने आज टटोला बहुत समय से बोझिल मन को इस दीवाली खोला दीप जला करके आवाहन,  माँ लक्ष्मी से बोली मनबक्से में झाँकों तो माँ ! भरी दुखों की झोली क्या न किया सबके हित,  फिर भी क्या है मैने पाया क्यों जीवन में है मंडराता ,  ना-उम्मीदी का साया ? गुमसुम सी गम की गठरी में, हुआ अचानक रोला बहुत समय से बोझिल मन को इस दीवाली खोला प्रकट हुई माँ दिव्य रूप धर,  स्नेहवचन फिर बोली ये कैसा परहित बोलो,  जिसमें उम्मीदी घोली अनपेक्षित मन भाव लिए जो , भला सभी का करते सुख, समृद्धि, सौहार्द, शांति से,  मन की झोली भरते मिले अयाचित सब सुख उनको, मन है जिनका भोला बहुत समय से बोझिल मन को इस दीवाली खोला मैं माँ तुम सब अंश मेरे,  पर मन मजबूत रखो तो नहीं अपेक्षा रखो किसी से,  निज बल स्वयं बनो तो दुख का कारण सदा अपेक्षा,  मन का बोझ बढ़ाती बदले में क्या मिला सोचकर,  ...

नभ तेरे हिय की जाने कौन

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  नभ ! तेरे हिय की जाने कौन ? ये अकुलाहट पहचाने कौन ? नभ ! तेरे हिय की जाने कौन ? उमड़ घुमड़ करते ये मेघा बूँद बन जब न बरखते हैं स्याह वरण हो जाता तू  जब तक ये भाव नहीं झरते हैं भाव बदली की उमड़-घुमड़ मन का उद्वेलन जाने कौन ? ये अकुलाहट पहचाने कौन ? तृषित धरा तुझे जब ताके कातर खग मृग तृण वन झांके आधिक्य भाव उद्वेलित मन... रवि भी रूठा, बढती है तपन घन-गर्जन तेरा मन मंथन वृष्टि दृगजल हैं,  माने कौन ये अकुलाहट पहचाने कौन ? कहने को दूर धरा से तू पर नाता रोज निभाता है सूरज चंदा तारे लाकर चुनरी धानी तू सजाता है धरा तेरी है धरा का तू ये अर्चित बंधन माने कौन ये अकुलाहट पहचाने कौन ? ऊष्मित धरणी श्वेदित कण-कण आलोड़ित नभ हर्षित तृण-तृण अरुणिम क्षितिज ज्यों आकुंठन ये अमर आत्मिक अनुबंधन सम्बंध अलौकिक माने कौन ये अकुलाहट पहचाने कौन ? नभ तेरे हिय की जाने कौन...?

नोबची

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"ये क्या है मम्मा ! आजकल आप हमसे भी ज्यादा समय अपने पौधों को देते हो"...? शिकायती लहजे में पलक और पल्लवी ने माँ से सवाल किया। "हाँ बेटा !  ये पौधे हैं ही इतने प्यारे...अगर तुम भी इन पर जरा सा ध्यान दोगे न , तो मोबाइल टीवी छोड़कर मेरी तरह इन्हीं के साथ समय बिताना पसन्द करोगे,  आओ मैं तुम्हें इनसे मिलवाती हूँ"....माँ उनका ध्यान खींचते हुए बोली। दोनों  पास आये तो माँ ने उन्हें गमले में उगे पौधे की तरफ इशारा करते हुए कहा  "देखो !  ये है नोबची" नोबची ! ये कैसा नाम है ?...दोनों ने आँख मुँह सिकोड़ते हुए एक साथ पूछा। "हाँ ! नोबची,  और जानते हो इसे नोबची क्यों कहते है" ? "क्यों कहते हैं" ?   उन्होंने पूछा तो माँ बोली, "बेटा ! क्योंकि ठीक नौ बजे सुबह ये पौधा अपने फूल खिलाता है"। हैं !!.नौ बजे !!...हमें भी देखना है।  (दोनों बड़े आश्चर्यचकित एवं उत्साहित थे) और अगली सुबह समय से पहले ही दोनों बच्चे नोबची पर नजर गड़ाए खड़े हो गये। बस नौ बजने ही वाले है दीदी !  हाँ  पलक ! और देख  नोबची भी खिलने लगा है !!!... नोबची की खिलखिलाहट के साथ अपनी बेटियों...

पावन दाम्पत्य निभाने दो

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  अब नहीं प्रेम तो जाने दो जैसा जी चाहे जी लो तुम कर्तव्य मुझे तो निभाने दो अब नहीं प्रेम तो जाने दो हमराही बन के जीवन में चलना था साथ यहाँ मिलके काँटों में खिले कुछ पुष्पों को चुनना था साथ यहाँ मिलके राहों में बिखरे काँटों को साथी मुझको तो उठाने दो... अब नहीं प्रेम तो जाने दो... ये फूल जो अपनी बगिया में  प्रभु के आशीष से पाये हैं नन्हें प्यारे मासूम बहुत दोनों के मन को भाये हैं दोनों की जरुरत है इनको इनका दायित्व निभाने दो अब नहीं प्रेम तो जाने दो.... चंद दिनों के साथ में साथी कुछ पल तो खुशी के बिताये हैं आज की मेरी इन कमियों में वो दिन भी तुमने भुलायें हैं यादों को सहेज लूँ निज दिल में अनबन के पल बिसराने दों अब नहीं प्रेम तो जाने दो.... छोटी - छोटी उलझन में यूँ परिवार छोड़ना उचित नहीं अनबन को सर माथे रखकर घर-बार तोड़ना उचित नहीं इक - दूजे के पूरक बनकर पावन दाम्पत्य निभाने दो अब नहीं प्रेम तो जाने दो...... चित्र साभार, गूगल से....

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