संदेश

अप्रैल, 2022 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

तन में मन है या मन में तन ?

चित्र
ये मन भी न पल में इतना वृहद कि समेट लेता है अपने में सारे तन को, और हवा हो जाता है जाने कहाँ-कहाँ ! तन का जीव इसमें समाया उतराता उकताता जैसे हिचकोले सा खाता, भय और विस्मय से भरा, बेबस ! मन उसे लेकर वहाँ घुस जाता है जहाँ सुई भी ना घुस पाये, बेपरवाह सा पसर जाता है। बेचारा तन का जीव सिमटा सा अपने आकार को संकुचित करता, समायोजित करता रहता है बामुश्किल स्वयं को इसी के अनुरूप वहाँ जहाँ ये पसर चुका होता है सबके बीच।  लाख कोशिश करके भी ये समेटा नहीं जाता,  जिद्दी बच्चे सा अड़ जाता है । अनेकानेक सवाल और तर्क करता है समझाने के हर प्रयास पर , और अड़ा ही रहता है तब तक वहीं जब तक भर ना जाय । और फिर भरते ही उचटकर खिसक लेता वहाँ से तन की परवाह किए बगैर । इसमें निर्लिप्त बेचारा तन फिर से खिंचता भागता सा चला आ रहा होता है इसके साथ, कुछ लेकर तो कुछ खोकर अनमना सा अपने आप से असंतुष्ट और बेबस । हाँ ! निरा बेबस होता है ऐसा तन जो मन के अधीन हो।  ये मन वृहद् से वृहद्तम रूप लिए सब कुछ अपने में समेटकर करता रहता है मनमानी । वहीं इसके विपरीत कभी ये पलभर में सिकुड़कर या सिमटकर अत्यंत सूक्ष्म रूप में छिपक...

आस का वातावरण फिर, इक नया विश्वास लाया

चित्र
आस का वातावरण फिर,  इक नया विश्वास लाया । सो रहे सपनों को उसने, आज फिर से है जगाया । चाँद ज्यों मुस्का के बोला, चाँदनी भी दूर मुझसे । हाँ मैं तन्हा आसमां में, पर नहीं मजबूर खुद से । है अमावश का अंधेरा, पूर्णिमा में खिलखिलाया । आस का वातावरण फिर,  इक नया विश्वास लाया । शूल से आगे निकल कर, शीर्ष पर पाटल है खिलता । रात हो कितनी भी काली, भोर फिर सूरज निकलता । राह के तम को मिटाने, एक जुगनू टिमटिमाया । आस का वातावरण फिर, इक नया विश्वास लाया ।   चाह से ही राह मिलती, मंजिलें हैं मोड़ पर । कोशिशें अनथक करें जो, संकल्प मन दृढ़ जोड़ कर । देख हर्षित हो स्वयं फिर, साफल्य घुटने टेक आया । आस का वातावरण फिर, इक नया विश्वास लाया ।

चंदा मामा कभी उतरकर, धरती पर आ जाओ ना !

चित्र
चंदा मामा कभी उतरकर  धरती पर आ जाओ ना ! कैसे मामा हो मामा तुम ? नाता कुछ तो निभाओ ना ! मम्मी के भाई हो मामा ! बहन से मिलने आओ ना ! कभी हमें भी साथ ले जा के  तारों से मिलवाओ ना ! अपने होकर दूर क्यों इतने ? अपनेपन से आओ ना ! रसना, माजा, लिम्का, कोला जी भर के पी जाओ ना ! देखो कितने पर्व धरा पर आकर साथ मनाओ ना ! होली पे आकर के मामा ! रंग गुलाल लगाओ ना ! दीवाली पे पूजन करके, खील बताशे खाओ ना ! चरखी और अनार मजे से सबके साथ छुड़़ाओ ना ! करवाचौथ, ईद पे आके दर्शन आप कराओ ना ! खीर, पुए का भोग भी जी भर  बड़े मजे से खाओ ना ! चंद्रलोक के किस्से मामा ! आकर हमें सुनाओ ना । अपने घट, बढ़, छुप जाने के  राज हमें बतलाओ ना । आना-जाना करो ना मामा ! कुछ सम्बन्ध निभाओ ना ! अगुवानी को हम सब तत्पर, मामी भी संग लाओ ना  ! चंदा मामा कभी उतरकर,  धरती पर आ जाओ ना !               चित्र साभार pixabay से पढ़िए चाँद पर आधारित एक और रचना ●  🌜नन्हें चाँद की जिद्द🌛

शबनम

चित्र
  हमेशा की तरह सरला इस बार भी  नवरात्रि में कन्या पूजन के लिए कन्याएं लेने झोपड़पट्टी गयी तो उसकी नजरें शबनम को ढ़ूँढ़ने लगी ।  वही शबनम जो पिछले दो बार के कन्या पूजन के समय ये हिसाब किताब रखती थी कि किसके घर कौन लड़की जायेगी । परन्तु इस बार शबनम कहीं नजर नहीं आई तो सरला सोचने लगी कि कहाँ गयी होगी शबनम ? हाँ क्या कहा था उसने ? दो साल काम करके पैसे जमा करुँगी फिर यहीं किसी अच्छे विद्यालय में दाखिला करवायेंगे बाबा । अच्छा तो दो साल में पैसे जमा हो गये होंगे ,  अब विद्यालय जाती होगी और इस वक्त भी पढ़ रही होगी, वो है ही इतनी लगनशील । परन्तु आज उसे यहाँ लड़कियों के हिसाब की फिकर न हुई , सोचकर सरला मुस्कराने लगी ,  याद करने लगी कि कैसे यहाँ शबनम हाथ में कागज और पैंसिल लिए खड़ी रहती कि कौन लड़की किसके घर भेजनी है सारा हिसाब रखती ...                                                 उस दिन बड़ी जल्दी में थी मैं, सामने ही रंग बिरंगी उतरन पहने एक दूसरे का रिबन...

हैं सृष्टि के दुश्मन यही इंसानियत के दाग भी

चित्र
चित्र साभार pixabay से खामोश क्यों कोयल हुई ? क्यों मौन है अब राग भी ? बदल रहा है क्यों समाँ ? तपने लगा क्यों फाग भी ? पंछी उड़े उड़ते रहे, ठूँठ तक ना पा सके । श्रीविहीन धरणी में अब, गीत तक न गा सके । उजड़ा सा क्यों चमन यहाँ ? सूने से क्यों हैं बाग भी ? सर्द आयी कंपकंपाई, ग्रीष्म अब तपने लगी । षट्ऋतु के अपने देश में, द्वयऋतु ही क्यों फलने लगी । बिगड़ रही बरसात क्यों ? सिकुड़ा सा क्यों ऋतुराज भी ? बन सघन अब ना रहे, क्षीण अति सरिता बहे । उगले क्यों सूरज उग्र ताप ? ऊष्मीकरण ज्यों भू पे श्राप । बदल रहे हैं क्यों भला, रुत के यहाँ मिजाज भी ? अब भी किसी को ना पड़ी, जब निकट है संकट घड़ी । घर सम्भलता है न जिनसे, हथिया रहे वे विश्व भी । हैं सृष्टि के दुश्मन यही, इंसानियत के दाग भी ।            

पुस्तक समीक्षा :- तब गुलमोहर खिलता है

चित्र
  मन की बंजर भूमि पर, कुछ बाग लगाए हैं । मैंने दर्द को बोकर, अपने गीत उगाए हैं दर्द के बीजों से उगे गीत पढ़ने या सुनने की चाह संम्भवतः उन्हें होगी जो संवेदनशील होंगे भावुक होंगे और कुछ ऐसा पढ़ने की चाह रखते होंगे जो सीधे दिल को छू जाय । यदि आप भी ऐसा कुछ तलाश रहे हैं तो यकीनन ये पुस्तक आपके लिए ही है । श्रृंगार के चरम भावों को छूती इस पुस्तक का नाम है ' तब गुलमोहर खिलता है ' । जी हाँ ! ये अद्भुत काव्य संग्रह ब्लॉग जगत की सुपरिचित लेखिका एवं सुप्रसिद्ध कवयित्री आदरणीया मीना शर्मा जी की तृतीय पुस्तक 'तब गुलमोहर खिलता है' के रूप में साहित्य प्रेमियों के लिए अनुपम भेंट हैं ।  आदरणीया मीना शर्मा जी 2016 से ब्लॉग जगत में ' चिड़िया' नामक ब्लॉग पर कविताएं एवं  'प्रतिध्वनि' ब्लॉग पर गद्य रचनाएं प्रकाशित करती हैं । सौभाग्य से ब्लॉग जगत में ही मेरा परिचय भी आपसे हुआ और मुझे आपकी रचनाओं के आस्वादन करने एवं आपसे बहुत कुछ सीखने समझने के सुअवसर प्राप्त हुए । प्रस्तुत पुस्तक आपकी तृतीय पुस्तक है,  इससे पहले 2018 में प्रथम कविता संग्रह  'अब ना रुकूँगी' और उसके बा...

फ़ॉलोअर