शुक्रवार, 22 अप्रैल 2022

आस का वातावरण फिर, इक नया विश्वास लाया



Hopfull way

आस का वातावरण फिर, 

इक नया विश्वास लाया ।

सो रहे सपनों को उसने,

आज फिर से है जगाया ।


चाँद ज्यों मुस्का के बोला,

चाँदनी भी दूर मुझसे ।

हाँ मैं तन्हा आसमां में,

पर नहीं मजबूर खुद से ।

है अमावश का अंधेरा,

पूर्णिमा में खिलखिलाया ।

आस का वातावरण फिर,

 इक नया विश्वास लाया ।



शूल से आगे निकल कर,

शीर्ष पर पाटल है खिलता ।

रात हो कितनी भी काली,

भोर फिर सूरज निकलता ।

राह के तम को मिटाने,

एक जुगनू टिमटिमाया ।

आस का वातावरण फिर,

इक नया विश्वास लाया ।


 

चाह से ही राह मिलती,

मंजिलें हैं मोड़ पर ।

कोशिशें अनथक करें जो,

संकल्प मन दृढ़ जोड़ कर ।

देख हर्षित हो स्वयं फिर,

साफल्य घुटने टेक आया ।

आस का वातावरण फिर,

इक नया विश्वास लाया ।


सोमवार, 18 अप्रैल 2022

चंदा मामा कभी उतरकर, धरती पर आ जाओ ना !

Moon and children


चंदा मामा कभी उतरकर 

धरती पर आ जाओ ना !

कैसे मामा हो मामा तुम ?

नाता कुछ तो निभाओ ना !


मम्मी के भाई हो मामा !

बहन से मिलने आओ ना !

कभी हमें भी साथ ले जा के 

तारों से मिलवाओ ना !


अपने होकर दूर क्यों इतने ?

अपनेपन से आओ ना !

रसना, माजा, लिम्का, कोला

जी भर के पी जाओ ना !


देखो कितने पर्व धरा पर

आकर साथ मनाओ ना !

होली पे आकर के मामा !

रंग गुलाल लगाओ ना !


दीवाली पे पूजन करके,

खील बताशे खाओ ना !

चरखी और अनार मजे से

सबके साथ छुड़़ाओ ना !


करवाचौथ, ईद पे आके

दर्शन आप कराओ ना !

खीर, पुए का भोग भी जी भर 

बड़े मजे से खाओ ना !


चंद्रलोक के किस्से मामा !

आकर हमें सुनाओ ना ।

अपने घट, बढ़, छुप जाने के 

राज हमें बतलाओ ना ।


आना-जाना करो ना मामा !

कुछ सम्बन्ध निभाओ ना !

अगुवानी को हम सब तत्पर,

मामी भी संग लाओ ना  !


चंदा मामा कभी उतरकर, 

धरती पर आ जाओ ना !

      

       चित्र साभार pixabay से



रविवार, 10 अप्रैल 2022

शबनम

 Shabnam a story


हमेशा की तरह सरला इस बार भी  नवरात्रि में कन्या पूजन के लिए कन्याएं लेने झोपड़पट्टी गयी तो उसकी नजरें शबनम को ढ़ूँढ़ने लगी । 

वही शबनम जो पिछले दो बार के कन्या पूजन के समय ये हिसाब किताब रखती थी कि किसके घर कौन लड़की जायेगी ।

परन्तु इस बार शबनम कहीं नजर नहीं आई तो सरला सोचने लगी कि कहाँ गयी होगी शबनम ? हाँ क्या कहा था उसने ? दो साल काम करके पैसे जमा करुँगी फिर यहीं किसी अच्छे विद्यालय में दाखिला करवायेंगे बाबा ।

अच्छा तो दो साल में पैसे जमा हो गये होंगे ,  अब विद्यालय जाती होगी और इस वक्त भी पढ़ रही होगी, वो है ही इतनी लगनशील ।

परन्तु आज उसे यहाँ लड़कियों के हिसाब की फिकर न हुई , सोचकर सरला मुस्कराने लगी ,  याद करने लगी कि कैसे यहाँ शबनम हाथ में कागज और पैंसिल लिए खड़ी रहती कि कौन लड़की किसके घर भेजनी है सारा हिसाब रखती ...                                                 उस दिन बड़ी जल्दी में थी मैं, सामने ही रंग बिरंगी उतरन पहने एक दूसरे का रिबन ठीक करती तैयार खड़ी कन्याएं देखी तो सोचा झट से ले चलती हूँ सबको।

जब बुलाया तो वे बोली , "शबनम दीदी को आने दो आण्टी ! फिर दीदी जिसे भेजेगी वही आयेगी आपके साथ" ।

 "अरे ! ऐसा क्यों ? जाओ उसे भी ले आओ , और चलो जल्दी ! आओ  न  बेटा ! देर हो रही है"...

"आण्टी ! वो आ गयी शबनम दीदी"  ।

"तो बुला लो उसे भी !   और जल्दी करो"  !

तब तक शबनम पास आ गयी, नमस्ते करके बोली "आण्टी ! बस दो मिनट" ।

अरे ! अब क्या हुआ ?  चलो न बैठो गाड़ी में...

शबनम ने इशारा करके उन्हें गाड़ी की तरफ भेजा और बोली,  "जाइये आण्टी !  ले जाइये इन्हें ।  पर घर कहाँ है आपका" ?

"यहीं है पास में, और मैं छोड़ने खुद आउँगी सबको" ।

"ठीक है आण्टी" !

"अरे ! तुम क्यूँ नहीं आ रही" ?

"मैं ...मैं तो बड़ी हो गयी हूँ आण्टी" ! थोड़ा सकुचाते शरमाते शबनम बोली ।

कोई बड़ी नहीं हुई हो ! चलो ! जल्दी चलो !

सुनते ही एक पल में वो बड़ी बनी शबनम बच्ची हो गयी खुशी खुशी झट से गाड़ी में बैठ गयी ।

कन्या पूजन के बाद मैंने देखा कि सभी बच्चे दक्षिणा में मिलें पैसे भी शबनम से गिनवाकर उसी के पास जमा करवा रहे हैं । 

तभी पड़ौसन ने सिर्फ नौ कन्याएं बुलाई तो झुंड में से नौ कन्याएं छाँटकर भेजी शबनम ने । उनमें से एक छोटी लड़की जिद्द करने लगी मुझे भी जाना है । तो शबनम उसे पकड़कर समझाते हुए आँगन में ले गयी । तब औरों से पता चला कि वह नन्हीं सी लड़की शबनम की अपनी सगी बहन है । और वह पहले किसी और के घर हो आयी है अबकी उसका नम्बर नहीं है।

अच्छा ! अपनी ही सगी बहन को भी नम्बर पर भेजना ! तभी सब इसका कहना मान रहे हैं , नहीं तो सब अपने - अपने लिए भागते ।

अगली बार आयी तो शबनम को कुछ और जाना,  जाना कि वह पहले दादी के पास गाँव में थी तो दादी उसे पाठशाला भेजती थी ।  हिसाब (गणित) में बड़ी तेज है शबनम दीदी ! कक्षा पाँच तक पढ़ी है । हिसाब वाले गुरूजी बोले थे दादी को, आगे पढ़ाना इसे ।

"अच्छा ! फिर अब पढ़ती हो कि नहीं" ? पूछा तो  कुछ धीमें स्वर में बोली, "नहीं आण्टी ! अभी तो बाबा यहाँ ले आये न । बाबा बोले हैं कुछ समय काम करके पैसा बचा लो फिर पढ़ लेना ।  यहीं किसी अच्छे विद्यालय में दाखिला करवायेंगे" ।

"काम ! तुम क्या काम करोगी ? अभी तो इत्ती छोटी हो" ! 

"आण्टी मुझे सब आता है ! झाड़ू -पोछा कपड़े बर्तन... सब कर लेती हूँ मैं" ।  (उत्साहित होकर बोली)।

हैं ...!  ये सब कब और कैसे सीखा  ?   इतने छोटे में ही इतना सारा काम !

"आण्टी ! वो उधर वाली सेठानी जी हैं न...उन्ने एक महीना बुलाया बिना पैसे लिए काम किया उनके घर, और सब सीख लिया" ।

"अब पैसे लेकर करती हो" ?

जी,

"कहाँ जमा कर रही हो अपने पैसे ? बैंक में"?

"नहीं आण्टी ! बाबा को देती हूँ" ।

"अगर बाबा ने खर्च कर लिए तो" ?

"बाबा ऐसा नहीं करते आण्टी ! जमा कर रहे हैं बाबा" ।

"ओ दीदी ! कित्ती जिमाओगे कन्या ? इत्ती सारी तो आ गयी"। (माँग में मुट्ठी भर सिन्दूर  छोटे से माथे में बड़ी सी बिन्दी सूखे पपड़ाये होंठ बेटी को गोदी में लिए वह माँ जो अभी खुद भी बच्ची है ) सरला के सामने आकर पूछी तो यादों से बाहर निकलकर सरला बोली,  "हाँ हाँ बस हो गये न, चलो चलते हैं । पर आज शबनम नही दिखी इधर ? विद्यालय जाती होगी न अब वो" ?

"अरे दीदी ! शबनम तो गाँव गयी है ब्याह है उसका गाँव में"....।

"ब्याह  !  किसका" ? (चौंककर माथे पर बल देकर सरला ने पूछा )

"शबनम का,  दीदी !   शबनम का ब्याह है, पूरा परिवार गया है ब्याह कराने"।

"अभी कैसे ? अभी तो वह पढ़ना चाहती थी न" (सरला मन ही मन झुंझला उठी)

"पढ़ना ? नहीं दीदी ! वो तो अब बड़ी हो गयी,  अब क्या पढ़ती । अब तो ब्याह है उसका "।

"ब्याह है उसका"  शब्द बार-बार सरला के कानों से  टकराने लगे , मन करता था कुछ बोले बहुत कुछ बोले पर क्या...और किससे.......।





रविवार, 3 अप्रैल 2022

हैं सृष्टि के दुश्मन यही इंसानियत के दाग भी

Globle warming
चित्र साभार pixabay से


खामोश क्यों कोयल हुई ?

क्यों मौन है अब राग भी ?

बदल रहा है क्यों समाँ ?

तपने लगा क्यों फाग भी ?


पंछी उड़े उड़ते रहे,

ठूँठ तक ना पा सके ।

श्रीविहीन धरणी में अब,

गीत तक न गा सके ।

उजड़ा सा क्यों चमन यहाँ ?

सूने से क्यों हैं बाग भी ?


सर्द आयी कंपकंपाई,

ग्रीष्म अब तपने लगी ।

षट्ऋतु के अपने देश में,

द्वयऋतु ही क्यों फलने लगी ।

बिगड़ रही बरसात क्यों ?

सिकुड़ा सा क्यों ऋतुराज भी ?


बन सघन अब ना रहे,

क्षीण अति सरिता बहे ।

उगले क्यों सूरज उग्र ताप ?

ऊष्मीकरण ज्यों भू पे श्राप ।

बदल रहे हैं क्यों भला,

रुत के यहाँ मिजाज भी ?


अब भी किसी को ना पड़ी,

जब निकट है संकट घड़ी ।

घर सम्भलता है न जिनसे,

हथिया रहे वे विश्व भी ।

हैं सृष्टि के दुश्मन यही,

इंसानियत के दाग भी ।

           






शुक्रवार, 1 अप्रैल 2022

पुस्तक समीक्षा :- तब गुलमोहर खिलता है

 

Book review

मन की बंजर भूमि पर,

कुछ बाग लगाए हैं ।

मैंने दर्द को बोकर,

अपने गीत उगाए हैं

दर्द के बीजों से उगे गीत पढ़ने या सुनने की चाह संम्भवतः उन्हें होगी जो संवेदनशील होंगे भावुक होंगे और कुछ ऐसा पढ़ने की चाह रखते होंगे जो सीधे दिल को छू जाय । यदि आप भी ऐसा कुछ तलाश रहे हैं तो यकीनन ये पुस्तक आपके लिए ही है । श्रृंगार के चरम भावों को छूती इस पुस्तक का नाम है 'तब गुलमोहर खिलता है '

जी हाँ ! ये अद्भुत काव्य संग्रह ब्लॉग जगत की सुपरिचित लेखिका एवं सुप्रसिद्ध कवयित्री आदरणीया मीना शर्मा जी की तृतीय पुस्तक 'तब गुलमोहर खिलता है' के रूप में साहित्य प्रेमियों के लिए अनुपम भेंट हैं । 

आदरणीया मीना शर्मा जी 2016 से ब्लॉग जगत में ' चिड़िया' नामक ब्लॉग पर कविताएं एवं  'प्रतिध्वनि' ब्लॉग पर गद्य रचनाएं प्रकाशित करती हैं । सौभाग्य से ब्लॉग जगत में ही मेरा परिचय भी आपसे हुआ और मुझे आपकी रचनाओं के आस्वादन करने एवं आपसे बहुत कुछ सीखने समझने के सुअवसर प्राप्त हुए ।

प्रस्तुत पुस्तक आपकी तृतीय पुस्तक है,  इससे पहले 2018 में प्रथम कविता संग्रह  'अब ना रुकूँगी' और उसके बाद 2020 में 'काव्य प्रभा' नामक साझा संकलन एवं 2021 में साझा कविता संग्रह 'ओस की बूँदे' भी प्रकाशित हो चुकी हैं।

साहित्यिक गतिविधियों में शालीनता एवं संवेदनशीलता की परिचायक आदरणीया मीना शर्मा जी की पुस्तक 'तब गुलमोहर खिलता है' में इनकी पूरी 68 कविताएं संकलित हैं, जिन्हें दो भागों में विभक्त किया गया है प्रत्येक भाग में 34 , 34  कविताएं हैं। 

बहुत ही मनमोहक सिंदूरी गुलमोहर की छटा बिखेरता आकर्षक कवर पृष्ठ एवं भूमिका में हिन्दी के प्राध्यापक प्रसिद्ध हिन्दी ब्लॉगर एवं लेखक आदरणीय दिलवाग सिंह विर्क जी द्वारा लिखित सम्पूर्ण रचनाओं का सारांश इसकी महत्ता को और भी रुचिकर बना रहा है ।

तदुपरांत 'पाठकों से' में स्वयं लेखिका के भावोद्गारों का समावेश हैं जिसमें आपने अपना परिचय देते हुए अपने जीवन के विभिन आयामों को साझा कर पाठकों से  संवाद स्थापित किया है एवं अंत में अपनी इस बौद्धिक सम्पत्ति को अपने अराध्यदेव मीरा और राधा के प्राणप्यारे मनमोहन को सप्रेम समर्पित किया है।

अब स्वयं प्रेम के प्रतीक मुरलीधर मनमोहन जिनके अराध्य हैं उनकी लेखनी से प्रेम उद्धृत ना हो ऐसा कैसे हो सकता है , अतः इनकी रचनाओं का मुख्य स्वर प्रेम है। प्रेम और श्रृंगार रस से ओतप्रोत इनकी कविताओं में चिंतन उसके अर्थ को गहराई प्रदान करता है।

एक उदाहरण देखिये..

गीत के सुर सजे, भाव नुपुर बजे,

किन्तु मन में न झंकार कोई उठी।

चेतना प्राण से,  वेदना गान से,

प्रार्थना ध्यान से, कब अलग हो सकी ?

लाख पर्वत खड़े मार्ग को रोकने,

प्रेम सरिता का बहना कहाँ थम सका ?

दो नयन अपनी भाषा में जो कह गये

वो किसी छन्द में कोई कब लिख सका ?

प्रेम नयनों की भाषा है, अपरिभाषित प्रेम मूक है, प्रेम की अभिव्यक्ति करना आसान नहीं। और क्या- क्या है प्रेम ? देखिये क्या कहती हैं कवयित्री !

इसी प्रेम ने राधाजी को

कृष्ण विरह में था तड़पाया,

इसी प्रेम ने ही मीरा को,

जोगन बन, वन-वन भटकाया ।

आभासी ही सदा क्षितिज पर

गगन धरा से मिलता है ।

प्रेम बड़ा छलता है

साथी प्रेम बड़ा छलता है ।

तो प्रेम छलिया है ? नहीं सिर्फ छलिया नहीं । बहुत कुछ है प्रेम, तभी तो आप अपनेआप को असमर्थ पाती हैं प्रेम को परिभाषित करने में ।  'उलझन' में कहती हैं-

परिभाषित प्रेम को कैसे करू्ँ,

शब्दों में प्यार कहूँ कैसे ?

जो वृंदावन की माटी है,

उसको श्रृंगार कहूँ कैसे ?


प्रेम नहीं शैय्या का सुमन,

वह पावन पुष्प देवघर का !

ना चंदा है ना सूरज है,

वह दीपक है मन मंदिर का !

है प्यार तो पूजा ईश्वर की,

उसको अभिसार कहूँ कैसे ?


है प्रेम तो नाम समर्पण का,

उसको अधिकार कहूँ कैसे ?

आपकी रचनाओं में प्रेम की ऐसी अनुभूति है जो हृदय को झंकृत कर दे ।  साथ ही एक अध्यापिका होने के कारण अभिव्यक्ति का हर शब्द बहुत ही संयमित और मर्यादित भी ।

अब जहाँ प्रेम वहाँ सुखद संयोग या फिर वियोग !इसीलिए तो कहते हैं इसे प्रेम रोग ! एक बार लग गया तो लग गया । ऐसा स्वयं कवयित्री करती हैं..

प्रीत लगी सो लगि गई, अब ना फेरी जाय ।

बूँद समाई सिंधु में, अब ना हेरी जाय ।।


परदेसी के प्रेम की , बड़ी अनोखी रीत ।

बिना राग की रागिनी, बिना साज का गीत ।।

इनकी कविताओं की नायिका परदेशी के प्रेम में बंध गयी है  एक उदाहरण 'क्यों बाँधा मुझको बंधन में'..

बंधन यह उर से धड़कन का,

बंधन श्वासों से स्पंदन का,

यह बंधन था मन से मन का,

बंधन प्राणों से ज्यों तन का !

मन के अथाह अंधियारे में,

जीवन बीतेगा भटकन में !

क्यों बाँधा मुझको बंधन में ?

विछोह की पीड़ा में अपने प्रेम की यादों को अपना अवलंबन बनाया तो चेतना का 'दीप जल उठा' ।

प्राणों की वर्तिका,

बुझी-बुझी अनंत काल से !

श्वासों के अब सुमन 

लगे थे, टूटने ही डाल से !

यूँ लगा था आत्मा

बिछड़ गई हो देह से !

चेतना का दीप 

जल उठा, तुम्हारे स्नेह से !

प्रेम मे वियोग पीड़ादायक है लेकिन वफा हो तो वियोग की घड़ियां भी जैसे तैसे कट ही जाती हैं , इसके विपरीत धोखेबाज और बेवफाओं से आगाह करते हुए कवयित्री कहती हैं

मंजिल है दूर कितनी,

इसकी फिकर न करिए

बस हमसफर राहों के 

चुनिए जरा सम्भलकर...


काँटे भी ढूँढ़ते हैं,

नजदीकियों के मौके

फूलों को भी दामन में,

भरिये जरा सम्भलकर...

कितना भी सम्भलकर चलो फिर भी कुछ अनहोनियाँ हो ही जाती हैं जिंदगी में ।  हमें तो बस कुछ सीखते जाना चाहिए जिन्दगी से, आपकी तरह...

जिंदगी हर पल कुछ नया सिखा गई,

ये दर्द में भी हँसकर जीना सिखा गई ।


यूँ मंजिलों की राह भी आसान नहीं थी,

बहके कदम तो फिर से सम्भलना सिखा गई

इतना कुछ सिखाती जिंदगी आखिर है क्या ये जिंदगी ? देखिये आपके अनुसार -

गम छुपाकर मुस्कराना, बस यही है जिंदगी !

अश्क पीकर खिलखिलाना, बस यही है जिंदगी !


टूटकर गिरना मेरे दिल का, तेरे कदमों में यूँ

और तेरा ठोकर लगाना,  बस यही है जिंदगी !

कब तक कोई इस तरह ठोकरें सहे । इकतरफा प्यार  नायक की बेरुखी आखिरकार नायिका ने जब एकाकी रहने का मन बनाया , निःशब्द करती रचना  'एकाकी मुझको रहने दो' ।


कोमल कुसुमों में, 

चुभते काँटे हाय मिले,

चंद्र नहीं वह अंगारा था

जिसको छूकर हाथ जले,

सह-अनुभूति सही ना जाये

अपना दर्द स्वयं सहने दो ।

एकाकी मुझको रहने दो ।

मीना जी की सभी कविताएं पाठक के मन में एक कहानी सी बुनती हैं । कहीं-कहीं तो भाव इतने गहन हैं कि मन ठहर सा जाता है ! 

कह गया कुछ राज की बातें, मेरा नादान दिल

अब लगे उस अजनबी को क्यों सुनाई दोस्तों !


कुछ तड़प कुछ बेखयाली और कुछ गफलत मेरी,

उफ ! मोहब्बत नाम की आफत बुलाई दोस्तों !

एक से बढ़कर एक  'तल्खियां'  उनके मन की जिन पर बीती हो । बीती भी ऐसी कि क्या कहें ,'हद हो गयी'

देखकर हमको,  तेरा वो मुँह घुमा लेना सनम,

बेरुखी तेरी, दिल ए बेजार की हद हो गई ।

हद कितनी भी हो , मोहब्बत में बेरुखी मिले बेबफाई मिले, आपकी कविताओं की नायिका हौसला नही छोड़ती । 

एक उदाहरण -  'सजदे नहीं लिखती' से --

छुप-छुप के रोयें कब तलक, घुट-घुट के क्यों मरें?

जो सच लगा वह कह दिया, परदे नहीं लिखती ।


'हर दौर गुजरता रहा' में --

कच्चे घड़े सी ना मैं, छूते ही बिखर जाऊँ,

भट्टी में आफतों की, मजबूत दिल बनता रहा ।

प्रेम का प्रतिफल नहीं मिलने पर वे टूटकर बिखरती नहीं हैं बल्कि अपने अन्दर प्रेम की खुशबू को जज्ब कर लेती हैं। उनका प्रेम अमर्त्य है. इसलिए उनकी अंतरात्मा में प्रेम की लौ जलती रहती है।

'दर्द का रिश्ता' में देखिये--

निर्मलता की उपमा से,

क्यों प्रेम मलिन करूँ अपना


'जरूरत क्या दलीलों की' शीर्षक कविता में कहती हैं

तुम हारे तो मैं हारी जो तुम जीते तो मैं जीती

करूँ क्यों प्रेम को साबित, जरूरत क्या दलीलों की ?

आपकी कविताओं की नायिकाएं सिर्फ रोती नहीं हैं. वे संघर्ष करती हैं और अपने सम्मान एवं स्वाभिमान को अंत तक बचाए रखती हैं । यही आपके काव्य की खासियत भी है ।

जहाँ मिल रहे गगन धरा

मैं वहीं तुमसे मिलूँगी,

अब यही तुम जान लेना 

राह एकाकी चलूँगी ।

संग्रह की पहली कविता 'तब गुलमोहर खिलता है'(जो इस संग्रह का शीर्षक भी है) में भी कवियत्री गुलमोहर के माध्यम से विकट परिस्थितियों में भी हार न मानकर जीवन संघर्ष करते रहने की प्रेरणा देते हुए कहती हैं-

फूले पलाश खिल जाते हैं,

टेसू आँसू बरसाते हैं,

दारुण दिनकर की ज्वाला में,

जब खिले पुष्प मुरझाते हैं,

सृष्टि होती आकुल व्याकुल,

हिमगिरि का मुकुट पिघलता है

तब गुलमोहर खिलता है !

भावों की गहनता में छुपा संदेश मंत्रमुग्ध करता है  गुलमोहर जो प्रेम मे खिला है समस्त सृष्टि से प्रतिकार में उसे क्या मिला है ? तब भी गुलमोहर खिलता है।

ऐसे ही जीवन अनुभवों एवं मानवीय संवेदनाओं को काव्य रूप में संप्रेषित करती रचनाएं ' नदिया के दो तट',  मैं वहीं रह गयी, शरद पूर्णिमा के मयंक से, इन्द्रधनुष, कवि की कविता, कहो न कौन से सुर में गाऊँ, मौन दुआएं अमर रहेंगी, ओ मेरे शिल्पकार,  बाँसुरी (1)और (2) ,  द्वीप, स्वप्न गीत, एक कहानी अनजानी, फासला क्यूँ है, सपना, सवाल अजीब से, नुमाइश करिये, कहता होगा चाँद, बंदिश लबों पर,  शिकायत, ढूढ़े दिल आदि  बहुत ही उत्कृष्ट, अप्रतिम एवं पठनीय कविताओं का संग्रह है - 'तब गुलमोहर खिलता है'

 मानवीय संवेदनाओं एवं गरिमामय प्रेम पर आधारित आपकी कविताओं की भाषा सहज एवं सरल है ।अधिकांश कविताएं गीत एवं गजल विधा में हैं विभिन्न अलंकारों से अलंकृत तत्सम एवं देशज शब्दों का सुन्दर प्रयोग काव्य को और आकर्षक बना रहा है।

कवयित्री स्वयं हिन्दी भाषा की शिक्षिका हैं अतः भाषागत त्रुटियाँ एवं किसी तरह की कोई कमी काव्य संग्रह में ढूँढकर भी नहीं मिल सकती फिर भी समीक्षा के नियमानुसार आलोचना की कोशिश करूँ तो बस एक कमी जो मुझे लगी वह है काव्य संग्रह का शीर्षक ।  चूँकि अधिकांश कविताएं प्रेम पर आधारित हैं तो शीर्षक प्रेम से सम्बंधित होता तो और भी बेहतर होता क्योंकि सतही तौर पर देखकर पाठक शीर्षक से शायद अंदाजा ना लगा पायें कि पुस्तक का आधार प्रेम है ।  हालांकि प्रस्तुत शीर्षक में वह संदेश छुपा है जो कवयित्री अपनी लेखनी के जरिए पाठकों तक पहुँचाना चाहती हैं एवं यही उनकी अधिकांश रचनाओं का सार भी है ।

अन्ततः काव्य सृजन की दृष्टि से प्रस्तुत काव्य संग्रह शिल्प सौंदर्य से युक्त बेहद उत्कृष्ट, पठनीय एवं संग्रहणीय हैं जो पाठक को अपने काव्याकर्षण में बाँध सकने में पूर्णतः सक्षम है ।

मुझे उम्मीद ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि मीना जी की यह पुस्तक साहित्य जगत में अपना स्थान निहित करेगी ।  मेरी समीक्षा की सत्यता को परखने हेतु आप भी पुस्तक अवश्य पढ़िएगा ! 

अंत में मीनाजी को हार्दिक बधाई असीम शुभकामनाएं।

पुस्तक :- तब गुलमोहर खिलता है

लेखक :- मीना शर्मा

प्रकाशकईमेल :- publish@bookrivers.com

मूल्य :- 200/-रूपये

बेबसाइट :-www.bookrivers.com


हो सके तो समभाव रहें

जीवन की धारा के बीचों-बीच बहते चले गये ।  कभी किनारे की चाहना ही न की ।  बतेरे किनारे भाये नजरों को , लुभाए भी मन को ,  पर रुके नहीं कहीं, ब...