मनमुटाव तो कहीं से भी शुरू हो सकता हैं न !
![चित्र](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjx6_DdRFusOipdJh7Zc6JlWmZ7R-TDoRUMG2NnYivvBvfWqoS9KmlLlygXfasqBvE4NbLZCpyhcT-gJ1IaEaeqE70ZgoSWRgmv0a6j5_sU7y7dut2uX8DVXIHaKHt3A7u7gcLdENIguHDHQ7G9DPJvz7Gvcv1d-7iZwYVNUMyEchA3IhBcRC-rocgKlOIe/w133-h200/1703775781170.jpg)
"जाने दे बेटा ! एक कुर्सी ही तो है ,वो या ये, क्या फर्क पड़ता है, बैठना ही तो है न । इसी से काम चला ले"। "नहीं मम्मा ! इस टेबल के साथ की वही चेयर है । हाइट वगैरह से फिट है वो इसके साथ,और ये चेयर उसके टेबल से साथ की है फिर भी उसने"... "जाने दे न बेटा ! रहने दे , शायद उसे पसन्द आ गई ! अब ले गई तो ले जाने दे" ! "ऐसे कैसे मम्मा ! कैसे जाने दूँ ? इस चेयर के साथ मैं कम्फर्टेबल नहीं हूँ" ! उसने कुछ चिढ़कर कहा तो माँ डाँटते हुए बोली, "ऐडजस्ट कर ले अब ऐसे ही ! "अच्छा थोड़े ना लगता है कि तू भी वैसे ही चुपचाप उठा लाये" ! "मैं क्यों चुपचाप उठाकर लाउँगी मम्मा" ? "तो शिकायत करेगी ऑनर से ? चुप रह ले ! माँ ने फिर घुड़क दिया"। "नहीं मम्मा ! कोई कम्प्लेन नहीं कर रही मैं ! आप चिंता मत करो ! मैं उसे बताकर इस टेबल के साथ की चेयर लाउँगी या फिर इस चेयर के साथ का टेबल" ! "पर बेटा जाने दे न ! उसने दे भी दिया तो मन में क्या सोचेगी ? ऐसे तो तुम्हारी दोस्ती में मनमुटाव"... "मम्मा ! ना लाई तो मैं मन में क्या सोचु