संदेश

नवंबर, 2017 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

तन में मन है या मन में तन ?

चित्र
ये मन भी न पल में इतना वृहद कि समेट लेता है अपने में सारे तन को, और हवा हो जाता है जाने कहाँ-कहाँ ! तन का जीव इसमें समाया उतराता उकताता जैसे हिचकोले सा खाता, भय और विस्मय से भरा, बेबस ! मन उसे लेकर वहाँ घुस जाता है जहाँ सुई भी ना घुस पाये, बेपरवाह सा पसर जाता है। बेचारा तन का जीव सिमटा सा अपने आकार को संकुचित करता, समायोजित करता रहता है बामुश्किल स्वयं को इसी के अनुरूप वहाँ जहाँ ये पसर चुका होता है सबके बीच।  लाख कोशिश करके भी ये समेटा नहीं जाता,  जिद्दी बच्चे सा अड़ जाता है । अनेकानेक सवाल और तर्क करता है समझाने के हर प्रयास पर , और अड़ा ही रहता है तब तक वहीं जब तक भर ना जाय । और फिर भरते ही उचटकर खिसक लेता वहाँ से तन की परवाह किए बगैर । इसमें निर्लिप्त बेचारा तन फिर से खिंचता भागता सा चला आ रहा होता है इसके साथ, कुछ लेकर तो कुछ खोकर अनमना सा अपने आप से असंतुष्ट और बेबस । हाँ ! निरा बेबस होता है ऐसा तन जो मन के अधीन हो।  ये मन वृहद् से वृहद्तम रूप लिए सब कुछ अपने में समेटकर करता रहता है मनमानी । वहीं इसके विपरीत कभी ये पलभर में सिकुड़कर या सिमटकर अत्यंत सूक्ष्म रूप में छिपक...

प्रेम

चित्र
                  प्रेम   अपरिभाषित एहसास।     'स्व' की तिलांजली...        "मै" से मुक्ति !    सर्वस्व समर्पण भाव    निस्वार्थ,निश्छल        तो प्रेम क्या ?      बन्धन या मुक्ति  !  प्रेम तो बस, शाश्वत भाव     एक सुखद एहसास !!             एहसास ?     हाँ !  पर  होता है..        दिल का दिल से     आत्मिक /अलौकिक        कहीं भी, कभी भी..   बिन सोचे,  बिन समझे  एक अनुभूति , अलग सी             बहुत दूर..     दिल के  बहुत  पास,  टीस बनकर चुभ जाती है, औऱ उस दर्द में आनन्द आता है,        असीम आनन्द !       और   चुभन   ?  आँसू  बनकर बहते आँखों से         ...

मन इतना उद्वेलित क्यों ?

चित्र
मानव मन इतना उद्वेलित क्यों ? अस्थिर, क्रोधित, विचलित बन,  हद से ज्यादा उत्तेजित क्यों ? अटल क्यों नहीं ये पर्वत सा, नहीं आसमां सा सहनशील स्वार्थ समेटे है बोझिल मन ! नहीं नदियों सा इसमें निस्वार्थ गमन मात्र मानव को दी प्रभु ने बुद्धिमत्ता ! बुद्धि से मिली वैचारिक क्षमता इससे पनपी वैचारिक भिन्नता ! वैचारिक भिन्नता से टकराव टकराव से शुरू समस्याएं ? उलझी फिर मन से मानवता ! होता है वक्त और कारण  समुद्री ज्वार भाटे का पर मन के ज्वार भाटे का, नहीं कोई वक्त नहीं कारण  उद्वेलित मन ढूँढे इसका निवारण ! शान्ति भंग कर देता सबकी, पहले खुद की,फिर औरों की विकट समस्या बन जाता है, विचलित जब हो जाता मन । बाबाओं की शरण न जाकर, कुछ बातों का ध्यान रखें गर तुलनात्मक प्रवृति से उबरें, "संतुष्टि, धैर्य" भी अपनाकर योगासनों का सहारा लेकर, मानसिक ,चारित्रिक और आध्यात्मिक मजबूती ,निज मन को देकर "ज्ञान और आत्मज्ञान" बढायें मन-मस्तिष्क की अतुलनीय शक्ति से पुनः सर्व-शक्तिमान बन जायें ।           ...

आरक्षण और बेरोजगारी

चित्र
   चित्र : "साभार गूगल से" जब निकले थे घर से ,अथक परिश्रम करने, नाम रौशन कर जायेंगे,ऐसे थे अपने सपने । ऊँची थी आकांक्षाएं , कमी न थी उद्यम में, बुलंद थे हौसले भी तब ,जोश भी था तब मन में !! नहीं डरते थे बाधाओं से, चाहे तूफ़ान हो राहों में ! सुनामी की लहरों को भी,हम भर सकते थे बाहों में शिक्षित बन डिग्री लेकर ही, हम आगे बढ़ते जायेंगे। सुशिक्षित भारत के सपने को, पूरा करके दिखलायेंगे ।।  महंगी जब लगी पढ़ाई, हमने मजदूरी भी की ।  काम दिन-भर करते थे,  रात पढ़ने में गुजरी।। शिक्षा पूरी करके हम ,  बन गये डिग्रीधारी। फूटी किस्मत के थे हम ,झेलते हैं बेरोजगारी ।। शायद अब चेहरे से ही , हम पढ़े-लिखे दिखते हैं ! तभी तो हमको मालिक , काम देने में झिझकते हैं कहते ; पढ़े-लिखे दिखते हो कोई अच्छा सा काम करो !  ऊँचे पद को सम्भालो, देश का ऊँचा नाम करो" !   कैसे उनको समझाएं? हम सामान्य जाति के ठहरे,   देश के सारे पदोंं पर तो अब,  हैं आरक्षण के पहरे ! सोचा सरकार बदल जायेगी, अच्छे दिन अपने आयेंगे ! 'आरक्षण और जातिवाद' से, ...

इकतरफा प्रेम यूँ करना क्या ?.

चित्र
चित्र :  साभार, गूगल से- जब जान लिया पहचान लिया, नहीं वो तेरा यह मान लिया । बेरुखी उसकी स्वीकार तुझे, फिर घुट-घुट जीवन जीना क्या ? हर पल उसकी ही यादों में, गमगीन तेरा यूँ रहना क्या ? तेरा छुप-छुप आँँसू पीना क्या ? उसके आते ही तेरी नजर, बस उसमें थम जाती है । धड़कन भी बढ़ जाती है, आँखों में चमक आ जाती है। तू साथ चाहता क्यों उसका, वो तुझसे कोसों दूर खड़ा ? जब उसको ये मंजूर नहीं, इकतरफा प्रेम यूँ करना क्या ? उसकी राहें भी तुझसे जुदा, मंजिल उसकी कहीं और ही है, नहीं हो सकता तेरा उसका मिलन, दिल में उसके कुछ और ही है। वो चाँद आसमां का ठहरा, चकोर सा तेरा तड़पना क्या ? फिर मन ही मन यूँ जलना क्या, इकतरफा प्रेम यूँ करना क्या ? जीवन तेरा भी अनमोल यहाँ, तेरे चाहने वाले और भी हैं। इकतरफा सोच से निकल जरा, तेरे दुख से दुखी तेरे और भी हैं। वीरान पड़ी राहों में तेरा. यूँ फिर-फिर आगे बढ़ना क्या ? इकतरफा प्रेम यूँ करना क्या ? फिर मन ही मन यूँ जलना क्या ?

फ़ॉलोअर