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बने पकौड़े गरम-गरम

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ख्यातिलब्ध पत्रिका  'अनुभूति'  के  'गरम पकौड़े'  विशेषाँक में मेरे गीत 'बने पकौड़े गरम-गरम' को सम्मिलित करने हेतु ' आदरणीया पूर्णिमा वर्मन जी ' का हार्दिक आभार । घुमड़-घुमड़ कर घिरी घटाएं बिजली चमकी चम चम चम   झम झम झम झम बरसी बूँदें बने पकौड़े गरम-गरम सनन सनन कर चली हवाएं,  सर सर सर सर डोले पात  भीगी माटी सौंधी महकी पुलकित हुआ अवनि का गात  राहत मिली निदाघ से अब तो हुआ सुहाना ये मौसम  झम झम झम झम बरसी बूँदें बने पकौड़े गरम-गरम अदरक वाली कड़क चाय की,  फरमाइश करते दादा । दादी बोली मेरी चाय में मीठा हो थोड़ा ज्यादा ! बच्चों को मीठे-मीठे  गुलगुले चाहिए नरम नरम झम झम झम झम बरसी बूँदें,  बने पकौड़े गरम-गरम खट्टी मीठी और चटपटी चटनी डाली थाली में  बच्चों को शरबत बाँटा और चाय बँटी फिर प्याली में  बारिश की बोछारों के संग  ओले बरसे ठम ठम ठम झम झम झम झम बरसी बूँदें  बने पकौड़े गरम-गरम पढ़िए बरसात और बारिश पर मेरी एक कविता ●  बरसी अब ऋतुओं की रानी

चींटी के पर निकलना

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  "ये क्या बात हुई बात हुई आंटी ! सफलता मुझे मिली और बधाइयाँ मम्मी को"  !?.. "हाँ बेटा ! तेरी मम्मी की वर्षों की तपस्या है, तो बधाई तो बनती ही हैं न उसको। और तुझे तो बधाई ही बधाई बेटा  ! खूब तरक्की करे ! हमेशा खुश रहे ! कहते हुए शीला ने रोहन के सिर पर प्यार से हाथ फेरा । "तपस्या ! थोड़ी सी मन्नतें ही तो की न मम्मी ने ? और जो मैं दिन-रात एक करके पढ़ा ? मैं मेहनत ना करता तो मम्मी की मन्नतों से ही थोड़े ना मेरा सिलेक्शन हो जाता आंटी" ! "हाँ बेटा ! मेहनत भी तभी तो की ना तूने, जब तेरी मम्मी ने तुझे जैसे- तैसे करके यहाँ तक पढ़ाया"।  "कौन नहीं पढ़ाता आंटी ? आप भी तो पढ़ा ही रहे हो न अपने बच्चों को"। "माफ करना बेटा ! गलती हो गई मुझसे । बधाई तेरी माँ को नहीं, बस तुझे ही बनती है ।  तेरी माँ ने तो किया ही क्या है , है न ! बेचारी खाँमखाँ मेहनत-मजदूरी करके हड्डी तोड़ती रही अपनी" । सरला ! अरी ओ सरला ! सोचा था तुझे कहूँगी कि परमात्मा की दया से बेटा कमाने वाला हो गया, अब तू इतना मत खपा कर, पर रोहन को सुनकर तो यही कहूँगी कि अभी कमर कस ले ताकि दूसरे बेटे म

तपे दुपहरी ज्वाल

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  【1】 भीषण गर्मी से हुआ, जन-जीवन बेहाल । लू की लपटें चल रही, तपे दुपहरी ज्वाल । तपे दुपहरी ज्वाल, सभी बारिश को तरसें । बीत रहा आषाढ़, बूँद ना बादल बरसे । कहे सुधा सुन मीत, बने सब मानव धर्मी । आओ रोपें वृक्ष , मिटेगी भीषण गर्मी ।। 【2】 रातें काटे ना कटे,  अलसायी है भोर । आग उगलती दोपहर, त्राहि-त्राहि चहुँ ओर । त्राहि-त्राहि चहुँ ओर, वक्त ये कैसा आया । प्रकृति से खिलवाड़, नतीजा ऐसा पाया । कहे सुधा कर जोरि, वनों को अब ना काटें । पर्यावरण सुधार , सुखद बीते दिन-रातें ।। गर्मी पर मेरी एक और रचना पढ़िए इसी ब्लॉग पर- ●  उफ्फ ! "गर्मी आ गई "  

अपना मूल्यांकन हक तेरा, नैतिकता पर आघात नहीं

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  पोषी जो संतति तूने,  उसमें भी क्यों जज्बात नहीं । अंतरिक्ष तक परचम तेरा, पर घर में औकात नहीं। मान सभी को इतना देती ,तुझको माने ना कोई । पूरे घर की धुरी है तू, फिर भी कुछ तेरे हाथ नहीं । एक भिखारी दर पे आ, पल में मजबूरी भाँप गया । खाली लौट गया बोला, " माता कोई बात नहीं"। पंख दिये जिनको तूने, उड़ने की नसीहत देते वे । ममता की घनेरी छाँव दिखी, क्षमता तेरी ज्ञात नहीं । पर तू अपनी कोशिश से, अपना लोहा मनवायेगी । अब जागी है तो भोर तेरी, दिन बाकी है अब रात नहीं। जनमों की उलझन है ये , धर धीरज ही सुलझाना तू । अपना मूल्यांकन हक तेरा, नैतिकता पर आघात नहीं ।  पढ़िये एक और रचना इसी ब्लॉग पर ● सुख का कोई इंतजार

गुस्सा क्यों हो सूरज दादा

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गुस्सा क्यों हो सूरज दादा ! आग उगलते हद से ज्यादा ! लू की लपटें फेंक रहे हो , आतप अवनी देख रहे हो । छाँव भी डरकर कोने बैठी, रश्मि तपिश दे तनकर ऐंठी । बदरा जाने कहाँ खो गये, पर्णहीन सब वृक्ष हो गये । माँ धरती भी दुःखी रो रही, दया आपकी कहाँ खो गयी ? जल, जलकर बस रेत बची है । अग्निकुंड सी वो भी तची है ! दीन-दुखी को और दुखाते ! नीर नदी का भी क्यों सुखाते ? मेरी मानो सूरज दादा ! मत त्यागो निज नेक इरादा । सूर्य देव हो तुम जगती के ! अर्ध्य देते जल सब भक्ति से । जीव-जगत के हो रखवारे वन्य वनस्पति तुमसे सारे । क्यों गुस्से में लाल हो रहे दीन-हीन के काल हो रहे । इतना भी क्यों गरमाए हो ? दिनचर्या से उकताये हो ? कुछ दिन छुट्टी पर हो आओ ! शीत समन्दर तनिक नहाओ ! करुणाकर ! करुणा अब कर दो ! तप्त अवनि का आतप हर दो ! पढ़िए सूरज दादा पर मेरी एक और रचना ●  कहाँ गये तुम सूरज दादा !

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