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बहुत समय से बोझिल मन को इस दीवाली खोला

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बहुत समय से बोझिल मन को  इस दीवाली खोला भारी भरकम भरा था उसमें  उम्मीदों का झोला कुछ अपने से कुछ अपनों से  उम्मीदें थी पाली कुछ थी अधूरी, कुछ अनदेखी  कुछ टूटी कुछ खाली बड़े जतन से एक एक को , मैंने आज टटोला बहुत समय से बोझिल मन को इस दीवाली खोला दीप जला करके आवाहन,  माँ लक्ष्मी से बोली मनबक्से में झाँकों तो माँ ! भरी दुखों की झोली क्या न किया सबके हित,  फिर भी क्या है मैने पाया क्यों जीवन में है मंडराता ,  ना-उम्मीदी का साया ? गुमसुम सी गम की गठरी में, हुआ अचानक रोला बहुत समय से बोझिल मन को इस दीवाली खोला प्रकट हुई माँ दिव्य रूप धर,  स्नेहवचन फिर बोली ये कैसा परहित बोलो,  जिसमें उम्मीदी घोली अनपेक्षित मन भाव लिए जो , भला सभी का करते सुख, समृद्धि, सौहार्द, शांति से,  मन की झोली भरते मिले अयाचित सब सुख उनको, मन है जिनका भोला बहुत समय से बोझिल मन को इस दीवाली खोला मैं माँ तुम सब अंश मेरे,  पर मन मजबूत रखो तो नहीं अपेक्षा रखो किसी से,  निज बल स्वयं बनो तो दुख का कारण सदा अपेक्षा,  मन का बोझ बढ़ाती बदले में क्या मिला सोचकर,  ...

लघुकथा - विडम्बना

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 "माँ ! क्या आप पापा की ऐसी हरकत के बाद भी उन्हें उतना ही मानती हो " ?   अपने और माँ के शरीर में जगह-जगह चोट के निशान और सूजन दिखाते हुए बेटे ने पूछा । आँसुओं का सैलाब लिए माँ बेटे के उन जख्मों को सहलाती रही जो पापा की मार से उसे को बचाते समय लगे, परन्तु कुछ कह ना सकी तो बेटा बोला, "माँ ! मैं अब बड़ा हो गया हूँ, समझ और सहनशक्ति जबाब दे रही है, आपके पति-परमेश्वर की इन हरकतों के विरोध में मेरी जुबान या हाथ चलें, इससे पहले मैं घर छोड़कर कहीं दूर जा रहा हूँ , क्योंकि मैं भी आपकी नफरत बरदाश्त नहीं कर पाउँगा" ।  पढ़िए एक और लघुकथा ●  ये माँ भी न   

तेरी रहमत पे भरोसा है मुझे

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धू - धू कर धधकती आग और लौंकते धुएं को देखा तो उस नन्हीं चिड़िया का ख्याल आया जिसने उस काँस की घास से भरे बड़े से प्लॉट के बीच खड़े उस बबूल के पेड़ पर अपना नीड़ बनाया है । कुछ दिनों से छत पर धूप सेंकते वक्त उसे देखती रही तो एक अलग ही लगाव हो गया उससे । धधकती आग देखकर व्याकुल मन मे तुरंत उसी चिड़िया का ख्याल आया तो मन ही मन बड़बड़ाई, "अरे ! उसके बच्चे तो अभी बहुत छोटे हैं , उड़ नहीं सकते । अजीब सी हलचल मच गई मन में । झट से सीढ़ियाँ चढ़ते हुए छत में गई तो देखा आग सूखी काँस पर बड़ी तेजी आगे बढ़ रही है । क्या करूँ ! कैसे बचाऊँ इसके नन्हें चूजों को ? मन में बेचैनी बढ़ी तो सोसायटी इंचार्ज को फोन किया । वे बड़े आश्वस्त होकर बोले, "आग से डरने वाली बात ही नहीं है । प्लॉट के ऑनर ने फायर बिग्रेड की सुविधा कर रखी है कोई अनहोनी पहले तो होगी नहीं अगर लगा तो सामने ही सब समाधान है आप निश्चिंत रहिए" । क्या कहती कैसे निश्चिंत रहूँ ? बेचारी चिड़िया का घोसला और उसके नन्हें बच्चे ..  ?  खैर... कौन समझता इन बातों को...! अब कोई सहारा न पाकर मैं बस उस बेबस चिड़िया को देखने लगी बेबसी से । हाँ बेबसी इसलिए कि हमारे...

राम एक संविधान

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  मनहरण घनाक्षरी छंद गूँज उठी जयकार, तोरण से सजे द्वार, पाँच शतक के बाद, शुभ दिन आये हैं ! कौशल्या दुलारे राम, दशरथ प्यारे राम, पधारे अवध धाम,                      मंदिर बनाये हैं । सज्ज हुआ सिंहद्वार, सज्ज राम दरबार, पंच मंडपों के संग, देवता दर्शाए हैं । प्रिय शिष्य हनुमान, करेंगे सभी के त्राण, राम राजकाज हेतु, गदा जो उठाये हैं । सिया राम परिवार, सुखप्रद घरबार, नयनाभिराम अति, आसन सजाये हैं । राम राज अभिषेक, प्राण-प्रतिष्ठा को देख, शिशिर में भी भक्तों के, जोश गरमाये हैं । राम आरती अजान , राम एक संविधान, भारती के प्राण राम, भक्त मन भाये है । इष्ट में विशिष्ट राम, शिष्ट में प्रकृष्ट राम, हर्ष के विमर्श बन, विश्व में समाये हैं । पढ़िए श्रीगणेश जी स्तुति गणपति वंदना

पा प्रियतम से प्रेम का वर्षण

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शिशिर शरद से गुजर धरा का , व्यथित मलिन सा मुखड़ा । धूल धूसरित वृक्ष केश सब बयां कर रहे दुखड़ा । पीत पर्ण से जीर्ण वसन लख  व्याकुल नभ घबराया । अंजुरि भर-भर स्नेह बिंदु फिर प्रेम से यूँ छलकाया । पा प्रियतम से प्रेम का वर्षण हुआ गुलाबी मुखड़ा । हर्षित मन नव अंकुर फूटे भूली पल में दुखड़ा । सीने से सट क्षितिज के पट धरा गगन से बोली । "नैना तेरे दीप दिवाली, वचन प्रेमरस होली । रंग दे मेरे मन का आँगन, अनगिन कष्ट भुलाऊँ । युग युग तेरे प्रेम के खातिर हद से गुजर मैं जाऊँ" । अधखुले नेत्र अति सुखातिरेक, नभ मंद-मंद मुस्काया । हर्षित दो मन तब हुए एक, बहुरंगी चाप बनाया । अद्भुत छवि लख मुदित सृष्टि, अभिनंदित ऋतुपति आये । करने श्रृंगारित वसुधा को फिर, स्वयं काम-रति धाये । बहुरंगी चाप = इंद्रधनुष ऋतुपति = बसंत लख = देखना पढ़िए बसंत ऋतु के आगमन पर एक नवगीत       बसंत तेरे आगमन पर

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