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सितंबर, 2017 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

बहुत समय से बोझिल मन को इस दीवाली खोला

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बहुत समय से बोझिल मन को  इस दीवाली खोला भारी भरकम भरा था उसमें  उम्मीदों का झोला कुछ अपने से कुछ अपनों से  उम्मीदें थी पाली कुछ थी अधूरी, कुछ अनदेखी  कुछ टूटी कुछ खाली बड़े जतन से एक एक को , मैंने आज टटोला बहुत समय से बोझिल मन को इस दीवाली खोला दीप जला करके आवाहन,  माँ लक्ष्मी से बोली मनबक्से में झाँकों तो माँ ! भरी दुखों की झोली क्या न किया सबके हित,  फिर भी क्या है मैने पाया क्यों जीवन में है मंडराता ,  ना-उम्मीदी का साया ? गुमसुम सी गम की गठरी में, हुआ अचानक रोला बहुत समय से बोझिल मन को इस दीवाली खोला प्रकट हुई माँ दिव्य रूप धर,  स्नेहवचन फिर बोली ये कैसा परहित बोलो,  जिसमें उम्मीदी घोली अनपेक्षित मन भाव लिए जो , भला सभी का करते सुख, समृद्धि, सौहार्द, शांति से,  मन की झोली भरते मिले अयाचित सब सुख उनको, मन है जिनका भोला बहुत समय से बोझिल मन को इस दीवाली खोला मैं माँ तुम सब अंश मेरे,  पर मन मजबूत रखो तो नहीं अपेक्षा रखो किसी से,  निज बल स्वयं बनो तो दुख का कारण सदा अपेक्षा,  मन का बोझ बढ़ाती बदले में क्या मिला सोचकर,  ...

चुप सो जा...मेरे मन ...चुप सो जा..!!!

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             रात छाई हैघनी, पर कल सुबह होनी नयी,         कर बन्द आँखें , रख  सब्र तू ,             मत रो ,मुझे न यूँ सता....... *चुप सो जा........मेरे मन.......चुप सो जा*.....!!!       तब तक तू चुप सोया ही रह !      जब तक न हो जाये सुबह ;    नींद में सपनों की दुनिया तू सजा ......... *चुप सो जा.........मेरे मन......चुप सो जा*.......!!!        सोना जरुरी है, नयी शुरुआत करनी है ,       भूलकर सारी मुसीबत, आस भरनी है ;    जिन्दगी के खेल फिर-फिर खेलने तू जा..... *चुप सो जा......मेरे मन........चुप सो जा*............!!!       सोकर जगेगा, तब नया सा प्राण पायेगा ,     जो खो दिया अब तक, उसे भी भूल जायेगा ;    पाकर नया कुछ, फिर पुराना तू यहाँ खो जा....... *चुप सो जा ..........मेरे मन.........चुप सो जा*........!!!      दस्तूर हैं दुनिया के कुछ,...

जाने कब खत्म होगा ,ये इंतज़ार......

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  ये अमावस की अंधेरी रात तिस पर अनवरत बरसती        ये मुई बरसात  टपक रही मेरी झोपड़ी       की घास-फूस        भीगती सिकुड़ती        मिट्टी की दीवारें       जाने कब खत्म होगा           ये इन्तजार ?       कब होगी सुबह..?            और मिटेगा         ये घना अंधकार !        थम ही जायेगी किसी पल              फिर यह बरसात       तब चमकेंगी किरणें रवि की         खिलखिलाती गुनगुनी सी ।        सूख भी जायेंगी धीरे-धीरे            ये भीगी दीवारें     गुनगुनायेंगी गीत आशाओं के,     मिट्टी की सौंधी खुशबू के साथ ।    झूम उठेगी इसकी घास - फूस की छत            बहेगी जब मधुर बयार  फिर भ...

आओ बुढ़ापा जिएं ..

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वृद्धावस्था अभिशाप नहीं । यदि आर्थिक सक्षमता है तो मानसिक कमजोर नहीं बनना । सहानुभूति और दया का पात्र न बनकर, मनोबल रखते हुए आत्मविश्वास के साथ वृद्धावस्था को भी जिन्दादिली से जीने की कोशिश जो करते हैंं , वे वृृद्ध अनुकरणीय बन जाते है । मानसिक दुर्बलता से निकलने के लिए यदि कुछ ऐसा सोचें तो - जी लिया बचपन , जी ली जवानी       आओ बुढापा जिएं । यही तो समय है, स्वयं को निखारेंं      जानेंं कि हम कौन हैं ?     कभी नाम पहचान था फिर हुआ काम पहचान अपनी   आगे रिश्तों से जाने गये  सांसारिकता में हम खो गये । ये तन तो है साधन जीवन सफर का     ये पहचान किरदार है इन्हीं में उलझकर क्या जीवन बिताना जरा अब तो जाने ,कहाँँ हमको जाना ? यही तो समय है स्वयं को पहचाने         जाने कि हम कौन हैं ? क्या याद बचपन को करना   क्या फिर जवानी पे मरना     यदि ये मोह माया रहेगी तो फिर - फिर ये काया मिलेगी  भवसागर की लहरों में आकर     क्या डूबना क्या उतरना...

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