सच बड़ा तन्हा उपेक्षित, राह एकाकी चला,
टेरती शक्की निगाहें, मन में निज संशय पला ।
झूठ से लड़ता अभी तक, खुद को साबित कर रहा,
खुद ही दो हिस्से बँटा अब, मन से अपने लड़ रहा।
मन ये पूछे तू भला तो, क्यों न तेरे यार हैं ?
पैरवी तेरी करें जो, कौन कब तैयार हैं ?
क्या मिला सच बनके तुझको, साजिशों में दब रहा,
घोर कलयुग में समझ अब, तू कहीं ना फब रहा ।
क्यों कसैला और कड़वा, चाशनी कुछ घोल ले !
चापलूसी सीख थोड़ी, शब्द मीठे बोल ले !
ना कोई दुनिया में तेरा, अपने बेगाने हुए,
खून के रिश्ते भी देखो, ऐसे अनजाने हुए ।
सच तू सच में सच का अब तो, इतना आदी हो गया
देख तो सबकी नजर में, तू फसादी हो गया ।
हाँ फसादी ही सही पर सच कभी टलता नहीं,
जान ले मन ! मेरे आगे झूठ ये फलता नहीं ।
मेरे मन ! तेरे सवालों का बड़ा अचरज मुझे !
क्या करूँ इस चापलूसी से बड़ी नफरत मुझे !
पर मेरे मन ! तू ही मुझसे यूँ खफा हो जायेगा ।
फिर तेरा सच बोल किससे कैसे संबल पायेगा ?
वैसे झूठों और फरेबों ने मुझे मारा नहीं
हूँ परेशां और तन्हा, पर कभी हारा नहीं ।
हाँ मैं सच हूँ सच रहूँगा, चाहे एकाकी रहूँ ।
कटु हो चाहे हो कसैला, सच को बेबाकी कहूँ।