संदेश

जुलाई, 2022 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

बहुत समय से बोझिल मन को इस दीवाली खोला

चित्र
बहुत समय से बोझिल मन को  इस दीवाली खोला भारी भरकम भरा था उसमें  उम्मीदों का झोला कुछ अपने से कुछ अपनों से  उम्मीदें थी पाली कुछ थी अधूरी, कुछ अनदेखी  कुछ टूटी कुछ खाली बड़े जतन से एक एक को , मैंने आज टटोला बहुत समय से बोझिल मन को इस दीवाली खोला दीप जला करके आवाहन,  माँ लक्ष्मी से बोली मनबक्से में झाँकों तो माँ ! भरी दुखों की झोली क्या न किया सबके हित,  फिर भी क्या है मैने पाया क्यों जीवन में है मंडराता ,  ना-उम्मीदी का साया ? गुमसुम सी गम की गठरी में, हुआ अचानक रोला बहुत समय से बोझिल मन को इस दीवाली खोला प्रकट हुई माँ दिव्य रूप धर,  स्नेहवचन फिर बोली ये कैसा परहित बोलो,  जिसमें उम्मीदी घोली अनपेक्षित मन भाव लिए जो , भला सभी का करते सुख, समृद्धि, सौहार्द, शांति से,  मन की झोली भरते मिले अयाचित सब सुख उनको, मन है जिनका भोला बहुत समय से बोझिल मन को इस दीवाली खोला मैं माँ तुम सब अंश मेरे,  पर मन मजबूत रखो तो नहीं अपेक्षा रखो किसी से,  निज बल स्वयं बनो तो दुख का कारण सदा अपेक्षा,  मन का बोझ बढ़ाती बदले में क्या मिला सोचकर,  ...

ज्यों घुमड़ते मेघ नभ में, तृषित धरणी रो रही

चित्र
चित्र साभार pixabay.com से  मन विचारों का बवंडर लेखनी चुप सो रही ज्यों घुमड़ते मेघ नभ में  तृषित धरणी रो रही अति के मारे सबसे हारे शरण भी किसकी निहारें रक्त के प्यासों से कैसे बचके निकलेंगें बेचारे किसको किसकी है पड़ी इंसानियत जब खो रही हद हुई मतान्धता की शब्द लेते जान हैं कड़क रही हैं बिजलियाँ किसपे गिरे क्या भान है कौन थामें निरंकुशता धारना जब सो रही प्रसिद्धि की है लालसा  सर पे है जुनून हावी गीत गाता मंच गूँगा पंगु मैराथन का धावी लायकी बन के यूँ काहिल बोझा गरीबी ढ़ो रही ।। पढ़िए मन पर आधारित एक और रचना निम्न लिंक पर-- ●  मन कभी बैरी सख बनके क्यों सताता है

विचार मंथन

चित्र
  चित्र साभार pixabay.com ,से "कुछ नहीं है हम इंसान, मूली हैं ऊपर वाले के खेत की" । सुना तो सोचा क्या सच में हम मूली (पौधे) से हैं ऊपर वाले के  सृष्टि रूपी खेत की ? क्या सचमुच उसके लिए  हम वैसे ही होंगे जैसे हमारे लिए खेत या गमलों में उगे उगाये पौधे ? देखा छोटे से गमले में उगी अनगिनत पौध को ! हर पौधा बढ़ने की  कोशिश में  अपने हिस्से का सम्पूर्ण पाने की लालसा लिए  अपने आकार को संकुचित कर बस ताकता है अपने हिस्से का आसमान । खचाखच भरे गमले के उन  नन्हें पौधों की तकदीर होती माली के हाथ ! माली की मुट्ठी में आये  मिट्टी छोड़ते मुट्ठी भर पौधे  नहीं जानते अपना भविष्य  कि कहाँ लेंगे वे अपनी अगली साँस ? किसे दिया जायेगा नये खाद भरे  गमले का साम्राज्य ? या फिर फेंक दिया जायेगा कहीं कचड़े के ढ़ेर में ! नन्हीं जड़ें एवं कोपलें झुलस जायेंगी यूँ ही तेज धूप से, या दफन कर बनाई  जायेगी कम्पोस्ट ! या उसी जगह यूँ ही  अनदेखे से जीना होगा उन्हें । और मौसम की मर्जी से  पायेंगे धूप, छाँव, हवा और पानी । या एक दूसरे की ओट में कुछ सड़ गल कर सडा़ते रहे...

फ़ॉलोअर