गुरुवार, 21 जुलाई 2022

ज्यों घुमड़ते मेघ नभ में, तृषित धरणी रो रही



Cloudy sky and thirsty earth
चित्र साभार pixabay.com से


 मन विचारों का बवंडर

लेखनी चुप सो रही

ज्यों घुमड़ते मेघ नभ में 

तृषित धरणी रो रही


अति के मारे सबसे हारे

शरण भी किसकी निहारें

रक्त के प्यासों से कैसे

बचके निकलेंगें बेचारे

किसको किसकी है पड़ी

इंसानियत जब खो रही


हद हुई मतान्धता की

शब्द लेते जान हैं

कड़क रही हैं बिजलियाँ

किसपे गिरे क्या भान है

कौन थामें निरंकुशता

धारना जब सो रही


प्रसिद्धि की है लालसा 

सर पे है जुनून हावी

गीत गाता मंच गूँगा

पंगु मैराथन का धावी

लायकी बन के यूँ काहिल

बोझा गरीबी ढ़ो रही ।।






शुक्रवार, 15 जुलाई 2022

विचार मंथन

 

brainstorming
चित्र साभार pixabay.com ,से



"कुछ नहीं है हम इंसान,

मूली हैं ऊपर वाले के खेत की" ।

सुना तो सोचा क्या सच में

हम मूली (पौधे) से हैं ऊपर वाले के 

सृष्टि रूपी खेत की ?


क्या सचमुच उसके लिए 

हम वैसे ही होंगे जैसे हमारे

लिए खेत या गमलों में उगे उगाये पौधे ?


देखा छोटे से गमले में उगी अनगिनत पौध को !


हर पौधा बढ़ने की  कोशिश में 

अपने हिस्से का सम्पूर्ण पाने की लालसा लिए 

अपने आकार को संकुचित कर

बस ताकता है अपने हिस्से का आसमान ।


खचाखच भरे गमले के उन 

नन्हें पौधों की तकदीर होती माली के हाथ !


माली की मुट्ठी में आये 

मिट्टी छोड़ते मुट्ठी भर पौधे 

नहीं जानते अपना भविष्य 

कि कहाँ लेंगे वे अपनी अगली साँस ?


किसे दिया जायेगा नये खाद भरे 

गमले का साम्राज्य ?

या फिर फेंक दिया जायेगा

कहीं कचड़े के ढ़ेर में !


नन्हीं जड़ें एवं कोपलें

झुलस जायेंगी यूँ ही तेज धूप से,

या दफन कर बनाई 

जायेगी कम्पोस्ट !


या उसी जगह यूँ ही 

अनदेखे से जीना होगा उन्हें ।

और मौसम की मर्जी से 

पायेंगे धूप, छाँव, हवा और पानी ।


या एक दूसरे की ओट में कुछ

सड़ गल कर सडा़ते रहेंगे

दूसरों को भी ।

या फिर अपना रस कस देकर 

मिटायेंगे दूसरों की भूख ।


जो भी हो जिसके साथ

वही तो है न उसकी तकदीर !


तो ऐसे ही उपजे हैं

सृष्टि में हम प्राणी भी  ?

अपनी -अपनी तकदीर लिए

एक पल की खुशी

एक पल में गम

कहीं मरण तो कहीं जनम  !


कहीं प्राकृतिक तो कहीं 

स्वयं मानव निर्मित आपदाओं को झेलते

कुछ मरे तो कुछ अधमरे, 

कुछ बिखरे तो कुछ दबे पार्थिव-शरीर !


जैसे छँटाई हो सृष्टि की !


फिर किसको नसीब हो जिंदगी 

और किसको मिले मौत !

 वो भी ना जाने कैसी


जिंदगी की भी तो

वही गिनती की साँसे !

तिस पर रेत के मानिंद फिसलता ये वक्त!


साथ ही माया-मोह का जंजाल 

संवेदनाएं और ये जज्बात !

उलझते ऐसे कि भूल ही जाते अपना अस्तित्व


बीज से बाली तक के

इस अनोखे सफर में 

खुद को शहंशाह समझने की 

भूल फिर-फिर दोहराते

और पसारते जड़ों को ज्यादा मिट्टी लेने की चाह में

तब तक जब तक कि 

खुद मिट्टी ना हो जाते ।



मरे बिना स्वर्ग ना मिलना

 कंधे में लटके थैले को खेत की मेंड मे रख साड़ी के पल्लू को कमर में लपेट उसी में दरांती ठूँस बड़े जतन से उस बूढ़े नीम में चढ़कर उसकी अधसूखी टहनिय...