गुरुवार, 29 दिसंबर 2022

आवश्यकता आविष्कार की जननी

Callisia plant

 

कहते हैं आवश्यकता आविष्कार की जननी है । क्योंकि अपनी जरूरतों की पूर्ति के लिए कोई भी प्राणी हाथ पैर तो पटकता ही है ।  तो हम यह भी कह सकते हैं कि आवश्यकता हमें उद्यमी बनाती है ।

ऐसा ही एक वाकया याद आया । कुछ दिनों पहले एक तरुणी से मिलना हुआ कुछ परेशान लग रही थी तो पूछने पर बोली,"क्या करूँ परेशान हूँ । यहाँ (ससुराल में) सबकी उम्मीदों पर खरी नहीं उतर ही पा रही । सब कह रहे हैं कि पूरे गाँव भर में बड़ी तारीफें थी तुम्हारी। बड़ी उद्यमी लड़की बता रहे थे तुम्हें सारे गाँव वाले। पर यहाँ तो ऐसा कुछ तुम कर नहीं रही । 

अब आप ही बताइये यहाँ मैं कौन सा पहाड़ उखाड़ूँ  ! घर गाँव में तो खेत-खलिहान के दसों काम करती थी यहाँ जो है वही तो करुँगी न ।  ग्रेजुएशन पूरी हुई नहीं अभी, नौकरी भी क्या खाक मिलेगी मुझे" !  और भी ना जाने क्या- क्या । जो कुछ था मन में सब एक साँस में कहती चली गयी वह । कभी रुँआसी होकर तो कभी आक्रोश में, बिना रुके बोले जा रही थी , बस बोले जा रही थी । और मैं चुपचाप उसे देख रही थी ,सुन रही थी और समझ रही थी, बस । और करती भी क्या, शायद वो चाहती भी तो यही थी मुझसे ।  सिर्फ़ मन हल्का करना । बाकी कुछ नहीं ।

कुछ कहने , करने या कहलाने के लिए तो उसके अपने भी बतेरे होंगे, है न । होता है न कभी-कभी ।  हम बस कह लेना चाहते हैं, समाधान तो मन ढूँढ़ ही लेता है । जैसे उसके मन ने ढूँढ़ लिया था ।  हाँ ! पक्का ढूँढ़ लिया था। तभी तो जाते समय एक सुन्दर सी मुस्कान और अलग ही शांति थी उसके चेहरे पर ।  अब पहले सी उलझन नहीं थी । हाँ, थोड़ा संकोच और कुछ अफसोस भी नजर आ रहा था,  जिसे जताने की कोशिश में थी वो । पर मैंने उसे आश्वस्त किया अपने तरीके से । और चल दिये हम दोनों ही अपने अपने रस्ते । न नाम पूछा न पता ।

आज अपने गमले में लगे एक पौधे को उद्यम करते देख उसकी याद आ गयी, उद्यम शब्द से । 'बड़ी उद्यमी' कहा था न उसने । मैं सोचने लगी गाँव में तो सभी मेहनत करते ही हैं न । खेत -खलिहान के कामों के साथ ही गाय, भैंस, भेड़, बकरियों के अलावा कुछ तो घोड़े भी पालते हैं, इन सबको पालने में कितनी मेहनत करनी होती होगी । फिर जो बच्चे बिना ना-नुकर के बड़े अच्छे से सभी कामों को सम्भाल लें ,  हो गये वे गाँव के उद्यमी बच्चे । पर शहर वाले उनसे किस उद्यम की अपेक्षा करेंगे ! भला शहर में वो गाँव सा उद्यम करके कैसे दिखायें ! पता नहीं क्या समाधान मिला होगा उसे उसकी समस्या का ।

सोच ही रही थी कि फिर मेरा ध्यान अपने गमले के पौधे पर आया । जिसे मैं उसके द्वारा किया उसका उद्यम ही मान रही । हाँ ! उद्यम ही तो कर रहा है ये आजकल । क्योंकि इसे आवश्यकता है । आवश्यकता है तो उद्यम तो करना ही पड़ता है और ये भी वही कर रहा है आजकल।

दरअसल इसे जब से लायी गमले में लगाकर अच्छी सी धूप में सभी पौधों के साथ सही जगह दी। और ये हमेशा हरभरा भी रहा पर बढ़ा नहीं जरा भी । हाँ इसके चारों ओर से पतली पतली टहनियाँ निकल कर चौड़ाई में पसरकर दूसरे गमलों में घुस जाती और वहीं जड़ें पकड़ कर पसरने लगती । तो उस गमले का पौधा पीला पड़ा रूठा सा जैसे मुझसे शिकायत करता कि देख लो इसे ! हमारी जगह घुसा जा रहा है घुसपैठिया कहीं का !

 तो मैं कहती कि तुम क्यों पीले पड़ गये भई ! अरे ! लड़ो न । अपनी जमीन के लिए लड़ो ! देख नहीं रहे अपने देश के जांबाजों को ! इंच भर भी जमीन नहीं देंगे कहके एलओसी पर कैसे दुश्मनों को छक्के छुड़ा रहे हैं । तवांग में नहीं सुना तुमने कैसे चीनियों को चुन-चुनकर धुन डाला हमारे जांबाजों ने । तुम भी तो इसी मिट्टी के जाये हो , वीरता और शहादत तो तुम्हारे भी खून में है , करो ! तुम भी कुछ करो ! इस घुसपैठिए की अकल ठिकाने लगाओ ।

पर नहीं वो तो कुछ किये नहीं बस शिकायती बच्चे की तरह शिकायत पर शिकायत ।  

फिर मुझे तो कुछ करना ही था आखिर जबाबदेही तो मेरी ही थी , वह भी खुद अपनेआप से । तो कुछ सोच विचार कर मैंने इसकी जगह बदल दी । अब मैंने इसके गमले को उस स्टैंड से हटाकर अलग-थलग कुछ दूर अकेला रख दिया , कि जा ! जाकर अकेले पड़ा रह। बड़ा आया दूसरों के घर घुसपैठ कर दूसरों का हिस्सा हड़पने वाला। बड़ा भटकने का शौक है न तेरी टहनियों को , तो जा अकेले इस बीरानी में भटक कर दिखा । 

तो ये बेचारा सा मुँह बनाकर अकेले चुपचाप रहा कुछ दिन । नहीं फैली अब इसकी वो टहनियाँ पहले सी। जैसे अपने सुधरने का प्रमाण दे रहा हो मुझे । परन्तु मैंने भी ठान ही ली, जरा भी नहीं पिघली इसकी बेचारगी पर, और इसे नजरअंदाज ही करती रही ।

गर्मियों में तो जैसे तैसे दिन कट गये इसके। पर सर्दियों में इस पर दीवार की छाया पड़ने लगी और पर्याप्त धूप न मिलने पर इसकी जरूरतों ने इसको उद्यमी बना ही दिया, क्योंकि घुसपैठ के लिए अब इसके पास अड़ोस-पड़ोस में कोई था नहीं । 

आखिरकार इसने आगे बढ़ने के साथ ही ऊपर उठने की भी सोच ही ली । ये ऊपर ही नहीं उठ रहा बल्कि ऊपर उठते हुए उसी दिशा की तरफ बढ़ने लगा है जहाँ इसके और साथी हैं , इसका समाज है । ऊपर बढ़ती हुई इसकी टहनी इसके अभी तक के पूरे पोधे से बिल्कुल भिन्न है। मेरी नजर में ये नयापन इसके उद्यम से कमाया एक नया आविष्कार है ।  इसे इसकी आवश्यकताओं के लिए ही सही अपनी दिशा और दशा सुधारने हेतु उद्यम करता देख मुझे अत्यंत खुशी हो रही है । 

परन्तु ये भी सत्य है कि इसे प्रकाशसंश्लेषण हेतु धूप की आवश्यकता  ना होती तो शायद ये इस तरह उद्यम से आविष्कार तक कभी न पहुँचता । इसीलिए सही ही कहा है किसी ने कि आवश्यकता ही आविष्कार की जननी है । पर ये कहा किसने है मुझे नहीं मालूम। अगर आप को जानते हैं तो कृपया मुझे भी बताइयेगा ।




सोमवार, 19 दिसंबर 2022

मुस्कराया जब वो पाटल खिलखिलाकर

Rose flower


शर्द ठिठुरन, ओस, कोहरा सब भुलाकर

मुस्कराया जब वो पाटल खिलखिलाकर ।


शर्म से रवि लाल, छोड़ी शुभ्र चादर,

रश्मियां दौड़ी धरा , आलस भगाकर ।


छोड़ ओढ़न फिर धरावासी जो जागे,

शीतवाहक भागते तब दुम-दबाके ।

 

क्रुद्ध हारे शिशिर ने पाटल को देखा,

पूस पतझड़ी प्रवात, जम के फेंका ।


सिंहर कर भी संत सा वो मुस्कुराया,

अंक ले मारुत को वासित भी बनाया।


बिखरी पड़ी हर पंखुड़ी थी मुस्कराती,

ओस कण में घुल मधुर आसव बनाती ।


सत्व इसका सृष्टि को था बहुत भाया, 

हो प्रफुल्लित 'पुष्प का राजा' बनाया ।




शुक्रवार, 9 दिसंबर 2022

गलतफ़हमी

 

Nayisoch-short story

मम्मी ! क्यों इतना गलत बोल रही हो आप भाभी के बारे में ?  आंटी ने सही ही तो कहा कि दिखने में तो बड़ी मासूम और सीधी सादी है वो ।

हाँ आंटी ! बहुत मासूम, सीधी-सादी और सुंदर दिखती हैं मेरी भाभी और जैसी दिखती हैं न, हैं भी बिल्कुल वैसी ही । निधि ने अपनी माँ और उनकी सहेली की बातचीत के बीच हस्तक्षेप किया तो माँ गुस्से से तिलमिलाकर अपनी सहेली से बोली , "देखा ! देखा तूने ! इसने मेरा बेटा ही नहीं अब मेरी बेटी भी अपनी तरफ कर ली है। ऐसी है ये, दिखने में सीधी- सादी पर मन से कपटी और झूठी" ।

फिर आँखें तरेरकर निधि से बोली, जब पूरी बात पता न हो, तो चुप रह लिया कर ! अब जाती है या लगाऊँ एक दो...

"नहीं मम्मी ! नहीं जाउँगी मैं, चाहे आप मार भी लो। और कौन सी बात नहीं पता मुझे ? बता भी दो ? देख रही हूँ मैं भी आपको ।  कैसी उखड़ी-उखड़ी हो आप भाभी के साथ !  बेचारी भाभी कित्ती कोशिश कर रही हैं आपको खुश करने की,  पर आप हो कि... हद हो गयी अब तो" !   निधि भी नाराजगी से बोली तो माँ ने आलमारी से एक सूट पीस निकाल कर झटके से उसकी तरफ फेंककर कहा, "ले ! जान ले तू भी अपनी प्यारी भाभी की करतूत" ! 

सूट को इधर उधर टटोलते हुए निधि बोली,  "करतूत ! कैसी करतूत मम्मी ? ये तो वही सूट है न, जो भाभी लायी आपके लिए ! कित्ता सुन्दर तो है ! है ना आंटी" ? (सूट दिखाते हुए )

"अरे ! अकल की दुश्मन ! सूट नहीं सूट के दाम देख पूरे इक्कीस सौ ! कहती है उसी दुकान से लाये जहाँ आपने भेजा था ।  अब बता ? वहाँ से तो तेरे पापाजी हमेशा लाते थे। कभी इत्ता मँहगा लाये वे ? मैंने कहा मैं वापस करके आउँगी इसे ! तो नीरज मना कर रहा । करेगा ही बीबी ने पट्टी पढ़ा दी होगी"। 

 "क्या पट्टी पढ़ाई होगी मम्मी ? ठीक ही तो कह रहा है भाई ! अच्छा थोड़े ना लगता है ऐसे वापस करना , जब सूट पसंद है । तो रख क्यों नहीं लेती आप" ?

"अरे ! इत्ता मँहगा ? इसी कपड़े में ऐसा ही सूट तेरे पापाजी तो साढ़े चार सौ या पाँच सौ तक ही लाते थे , अब या तो उस दुकानदार ने इन्हें ठग लिया या फिर ये मुझे बेवकूफ बना रही है। (सहेली की तरफ देखकर) हैं न " ।

"अरे मम्मी रुको ! ऐसा मत सोचो (कहकर निधि हाथ जोड़कर बोली "सॉरी पापाजी ! आज आपसे किया प्रॉमिस तोड़ रही हूँ,बहुत बहुत सॉरी ! पर आज ये प्रॉमिस नहीं तोड़ा न, तो यहाँ सास-बहू के रिश्ते में मनमुटाव बढ़ता ही जायेगा , मुझे माफ करना पापाजी" ! )  फिर बोली  "मम्मी ! ना तो दुकानदार ने उन्हें ठगा है और ना ही भाभी  झूठ बोल रही,  झूठ तो आपसे पापाजी कहा करते थे" ।

"चुप !  एकदम चुप  ! , नहीं तो लगाउँगी कसके ! दिमाग ठीक है तेरा ! अरे तेरे पापाजी क्यों झूठ बोलते मुझसे, वह भी मेरे ही सूट के लिए" ! गुस्से से तमतमाकर माँ बोली तो निधि ने कहा ,  "हाँ मम्मी ! यही सच है पापाजी हमेशा आपके सूट मँहगे लाकर आपको सस्ते दाम बताते थे । और हमसे भी प्रॉमिस लिया था कि आपको कभी ना बतायें आपके सूट के सही दाम"।

"पर क्यों  ? ऐसा क्यों करते थे तेरे पापाजी "? अब माँ कुछ शान्त एवं विस्मित सी थी,  तब निधि बोली, "मम्मी ! पापाजी कहते थे कि तुम्हारी मम्मी मँहगे सूट जल्दी से पहनती नहीं, बस आलमारी में सजाकर रखती है और पुराने घिसे-पिटे सूट ही पहनती रहती है  । इसलिए सस्ता बताते थे आपको, ताकि आप उन्हें जल्दी से पहन लो। और भाभी को इस बात की जानकारी नहीं थी , नहीं तो वो भी"...

"हाँ ! वो भी झूठ बोल देती मुझसे ! पर मैं तब भी उसे दोषी ही मानती , पैसों का हिसाब भी तो गोल-मोल ही करना पड़ता न उसे"। रुँधे गले से माँ बोली  तो सहेली भी अपनी नम आँखें पौंछकर माँ का कंधा सहलाती हुई बोली "ग़लतफ़हमी की वजह से बिना बात का मनमुटाव था, जा जाकर लाड दे दे उसे । बेचारी परेशान होगी"।

माँ ने उठकर डबडबाई आँखों से सामने टँगी पति की तस्वीर पर हाथ फेरा फिर दुपट्टे से आँसू पौंछकर बहू को आवाज देते हुए चली गयी उसके पास, अनबन भुलाकर सारे गिले शिकवे मिटाने ।





हो सके तो समभाव रहें

जीवन की धारा के बीचों-बीच बहते चले गये ।  कभी किनारे की चाहना ही न की ।  बतेरे किनारे भाये नजरों को , लुभाए भी मन को ,  पर रुके नहीं कहीं, ब...