रविवार, 30 जनवरी 2022

सुरक्षा या सजा

Girls suraksha


 हैलो ! मम्मा! कहाँ हो आप ? फोन क्यों नहीं उठा रहे थे सब ठीक है न ? निक्की ने चिंतित होकर पूछा तो उसकी माँ बोली ; "हाँ बेटा! सब ठीक है। भूल गयी क्या? मैंने बताया तो था कि मैंने ज्यूलरी वापस लॉकअप में रखने जाना है।

 ओह! मैं तो भूल गयी मम्मा! और खूब परेशान हुई। पर मैंने आपके मोबाइल पर भी तो कॉल किया था, आपने उठाया क्यों नहीं ?

अच्छा !  ओहो ! साइलेंट था शायद। चल छोड़। बता ! क्या बात है ? और ये आवाजें  ? शोरगुल सा...क्या हो रहा है वहाँ पर  ?

कुछ नहीं मम्मा ! ये कुछ लड़कियों की वार्डन से बहस हो रही है । दबी आवाज में निक्की ने बताया।

वार्डन से ? पर क्यों ? ये बच्चे भी न !

नहीं मम्मा! यहाँ के रूल्स ही अनोखे हैं, और वार्डन भी स्ट्रिक्ट! 

वार्डन तो अपनी ड्यूटी कर रही है बेटा ! ऐसे अपने से बड़ों के मुँह लगना अच्छी बात तो नहीं। वैसे बहस किस बारे में कर रह रहे हैं ये ?

मम्मा यहाँ शाम छः बजे के बाद कोई बाहर नहीं जा सकता । और ये रूल्स सिर्फ गर्ल्स हॉस्टल में हैं ब्वॉयज तो साढ़े नौ तक घूमते रहते हैं बाहर। इसी बात पर बहस चल रही है वार्डन से।

अरे! ये रूल्स भी तुम्हारी ही सेफ्टी के लिए तो बनाए हैं न उन्होंने। कोई बात हुई होगी न वहाँ पर जिसके कारण उन्हें ऐसे रूल्स बनाने पड़े होंगे।तुम सभी को ये बात समझनी चाहिए। हैं न निक्की! (कुछ समझने समझाने की कोशिश में माँ ने कहा)।

हाँ मम्मा समझ ही तो रहे हैं और कर भी क्या सकते हैं। पर, ये ठीक भी तो नहीं है न।

 क्यों ठीक नहीं है ? तुम जानते नहीं आजकल लड़कियों की सुरक्षा......

सुरक्षा या सजा ? जो भी है मम्मा! सब जानते हैं और इसी बात का तो अफसोस है... (माँ की बात बीच में ही काटते हुए उसने कहा तो माँ ने पूछा; अफसोस! कैसा अफसोस ? 

यही कि बड़े मजबूत लॉकअप और स्ट्रिक्ट रूल्स में रखा जाता है हमारे देश में कीमती ज्यूलरी और लड़कियों को।और फिर गुण्डों और चोर उचक्कों को पूरी छूट के साथ खुला छोड़ दिया जाता है। 










गुरुवार, 20 जनवरी 2022

कहाँ गये तुम सूरज दादा ?

 

Winter sun



कहाँ गये तुम सूरज दादा ?

क्यों ली अबकी छुट्टी ज्यादा ?

ठिठुर रहे हैं हम सर्दी से,

कितना पहनें और लबादा ?


दाँत हमारे किटकिट बजते ।

रोज नहाने से हम डरते ।

खेलकूद सब छोड़-छाड़ हम,

ओढ़ रजाई ठंड से लड़ते ।


क्यों देरी से आते हो तुम ?

साँझ भी जल्दी जाते क्यों तुम ?

अपनी धूप भी आप सेंकते,

दिनभर यूँ सुस्ताते क्यों तुम ?


धूप भी देखो कैसी पीली ।

मरियल सी कुछ ढ़ीली-ढ़ीली ।

उमस कहाँ गुम कर दी तुमने 

जलते ज्यों माचिस की तीली ।


शेर बने फिरते गर्मी में ।

सिट्टी-पिट्टी गुम सर्दी में ।

घने कुहासे से डरते क्यों ?

आ जाओ ऊनी वर्दी में !


निकल भी जाओ सूरज दादा ।

जिद्द न करो तुम इतना ज्यादा।

साथ तुम्हारे खेलेंगे हम,

लो करते हैं तुमसे वादा ।


कोहरे को अब दूर भगा दो !

गर्म-गर्म किरणें बिखरा दो !

राहत दो ठिठुरे जीवों को,

आ जाओ सबको गरमा दो !



मंगलवार, 11 जनवरी 2022

"पत्थरदिल मर्द बेदर्द कहलाता" हूँ मैं...

A man
चित्र साभार shutterstock से


दिल में सौ दर्द छिपे, करूँ किससे शिकवे गिले।

मर्द हूँ रो ना सकूँ , जख्म चाहे हों मिले।

घर से बेघर हूँ सदा फिर भी घर का ठहरा,

नियति अपनी है यही, विदा ना अश्रु ढ़ले।।


घर से निकला जो कमाने, दिल पत्थर का बनाया ।

माँ की गोदी में सिर रखा, फिर भी मैं रो नहीं पाया।

उन समन्दर भरी आँखों से आँखें चार कर खिसका ।

बही जब नाक अश्कों से ,तो मफलर काम तब आया।


झूठी मुस्कान झूठी शान ले के जी रहा हूँ।

मैं फौलाद कहने का,  टूक दिल सी रहा हूँ।

करनी कापुरुष की 'सजा ए शक' में हूँ मैं,

वेवजह बेएतबारी का जहर पी रहा हूँ।।


घर समाज हो या देश पहरेदार हूँ मैं ।

माँ बहन बेटी की सुरक्षा का जिम्मेदार हूँ मैं।

अनहोनियाँ करते नरपिशाच मेरा रूप लिए,

बेबस विवश हूँ उन हालात पर लाचार हूँ मैं।।


खामोशी ओढ़के जज्बात छुपाता हूँ मैं।

बेटा,भाई, पति,पिता बन फर्ज निभाता हूँ मैं।

भूलकर दर्द अपने जिम्मेदारियाँ निभाने

"पत्थरदिल मर्द बड़ा बेदर्द" कहलाता हूँ मैं।।


मंगलवार, 4 जनवरी 2022

पीनी है चाय तो धैर्य जरूरी है भाई !

A cup of tea
चित्र साभार,shutterstock से


शिशिर के कुहासे में ठिठुरता दिन देख मन चाय पीने का कर गया अब मन कर गया तो तन का क्या ! वो तो ठहरा मन के हाथ की कठपुतली ! मसालेदार चाय का कप लेकर हाजिर। 

मन को भी कहाँ सब्र था , सुड़कने को आतुर! आदेश पाते ही हाथ ने कप उठाया और होंठों तक ले ही गया कि जुबान कैंची सी कटकटाते हुए बोली  ;   

"हे !  खबरदार !  खबरदार जो चाय का एक घूँट भी मुझ तक पहुँचाया ! चाय ! वह भी इतनी गरम ! ना बाबा ना ! अब ये अत्याचार सहन नहीं कर सकती।
ठहर जा हाथ ! मैं इस तरह जल कर नहीं मर सकती !

हाथ बेचारा ठिठककर रह गया, फिर थोड़ी हिम्मत कर धीरे से बोला, 
"ठंडी का मौसम है यार ! मन है थोड़ा डोला"। 

जुबान फिर किटकिटाती हुई बोली, "सिर में डाल न, पता चल जायेगा, बड़ा आया तन मन का हमजोली ! समझ क्या रखा है तुमने मुझे ? जो चाहे ठूँसते जाते हो। अब ऐसा ना करने दूँगी किसी भी हाल में मैं तुझे!

बताये देती हूँ , ये चाय-वाय नहीं पीनी मुझे। देख कितनी कोमल हूँ मैं ? क्या दिखता नहीं तुझे ?

चाय पीने के लिए सबसे पहले धैर्य की जरूरत पड़ती है, और धैर्य/ सब्र तो तुम्हारे उस मुएँ मन में जरा भी नहीं।
 हर बार हड़बड़ी में गटकता है गरम गरम चाय ! और जलकर छाले पड़ जाते हैं मुझ में तो हाय ! 

इत्मिनान से सुड़कना तो उसके बस का है नहीं भाई!  बस हड़बड़ी मची रहती है इसे...।
बिना दिमाग जो ठहरा !  कभी गर्म तो कभी ठंडा !
तंग करके रखा है इसने तो"  जुबान बड़बड़ाई।

ये सब सुनकर मन को तो लग गयी अंदर तक... 
गुस्से से गरमाकर बोला, जुबान! सम्भाल कर बात कर!   इतने में ही क्यों है तू मरती ?
देखा नहीं लोगों को तूने सर्दियों में एक नहीं पाँच- पाँच कप चाय पीते हैं, उनकी जुबान को देख वो तो कभी मना नहीं करती ।

जुबान बोली, देखना मेरा काम नहीं , अब दूसरों का काम भी मुझ पर मत थोप! 
और ये अपनी खाली-पीली अकड़ न मुझको नहीं इस तन दिखा जिसने तुझे सर चढ़ाया है।
गुलाम था तू दिमाग का पर दिमाग को तेरा गुलाम बनाया है !

अपना नाम सुनते ही कोने में पड़ा दिमाग कुलबुलाया ! भींचकर आँखें खोली,तो कुछ होश आया।
दुखी हुआ देखकर कि तन पर मन का राज है
अंकुश से छूटा मन मर्जी चलाता है और 
सहमा- सहमा सारा पंच-इन्द्रीय समाज है।

झट पैंतरा बदल खड़ा हुआ दिमाग ! आखिर दिमाग जो ठहरा !  पल में फैंका अंकुश और मन पर डाला पहरा।

उई.......!   करके मन दिमाग का दास हो गया, 
तन भी खुश हुआ कि दिल दिमाग के पास हो गया।

अब दिल -दिमाग का अनुशासन देख जुबान इतराई 
बोली चाय क्या अब तो कॉफी भी पी लो भाई!

तुम दोनों हो साथ तो धैर्य भी तुम्हारे पास होता है ।
हर बुरी बला या बीमारी का सहज ही नाश होता है।

पीनी है चाय तो धैर्य जरूरी है भाई!
धीरे -धीरे सुड़क लो गर्म चाय
अब ठिठुरन है जब आई !!

मरे बिना स्वर्ग ना मिलना

 कंधे में लटके थैले को खेत की मेंड मे रख साड़ी के पल्लू को कमर में लपेट उसी में दरांती ठूँस बड़े जतन से उस बूढ़े नीम में चढ़कर उसकी अधसूखी टहनिय...