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चित्र साभार,shutterstock से |
शिशिर के कुहासे में ठिठुरता दिन देख मन चाय पीने का कर गया अब मन कर गया तो तन का क्या ! वो तो ठहरा मन के हाथ की कठपुतली ! मसालेदार चाय का कप लेकर हाजिर।
मन को भी कहाँ सब्र था , सुड़कने को आतुर! आदेश पाते ही हाथ ने कप उठाया और होंठों तक ले ही गया कि जुबान कैंची सी कटकटाते हुए बोली ;
"हे ! खबरदार ! खबरदार जो चाय का एक घूँट भी मुझ तक पहुँचाया ! चाय ! वह भी इतनी गरम ! ना बाबा ना ! अब ये अत्याचार सहन नहीं कर सकती।
ठहर जा हाथ ! मैं इस तरह जल कर नहीं मर सकती !
हाथ बेचारा ठिठककर रह गया, फिर थोड़ी हिम्मत कर धीरे से बोला,
"ठंडी का मौसम है यार ! मन है थोड़ा डोला"।
जुबान फिर किटकिटाती हुई बोली, "सिर में डाल न, पता चल जायेगा, बड़ा आया तन मन का हमजोली ! समझ क्या रखा है तुमने मुझे ? जो चाहे ठूँसते जाते हो। अब ऐसा ना करने दूँगी किसी भी हाल में मैं तुझे!
बताये देती हूँ , ये चाय-वाय नहीं पीनी मुझे। देख कितनी कोमल हूँ मैं ? क्या दिखता नहीं तुझे ?
चाय पीने के लिए सबसे पहले धैर्य की जरूरत पड़ती है, और धैर्य/ सब्र तो तुम्हारे उस मुएँ मन में जरा भी नहीं।
हर बार हड़बड़ी में गटकता है गरम गरम चाय ! और जलकर छाले पड़ जाते हैं मुझ में तो हाय !
इत्मिनान से सुड़कना तो उसके बस का है नहीं भाई! बस हड़बड़ी मची रहती है इसे...।
बिना दिमाग जो ठहरा ! कभी गर्म तो कभी ठंडा !
तंग करके रखा है इसने तो" जुबान बड़बड़ाई।
ये सब सुनकर मन को तो लग गयी अंदर तक...
गुस्से से गरमाकर बोला, जुबान! सम्भाल कर बात कर! इतने में ही क्यों है तू मरती ?
देखा नहीं लोगों को तूने सर्दियों में एक नहीं पाँच- पाँच कप चाय पीते हैं, उनकी जुबान को देख वो तो कभी मना नहीं करती ।
जुबान बोली, देखना मेरा काम नहीं , अब दूसरों का काम भी मुझ पर मत थोप!
और ये अपनी खाली-पीली अकड़ न मुझको नहीं इस तन दिखा जिसने तुझे सर चढ़ाया है।
गुलाम था तू दिमाग का पर दिमाग को तेरा गुलाम बनाया है !
अपना नाम सुनते ही कोने में पड़ा दिमाग कुलबुलाया ! भींचकर आँखें खोली,तो कुछ होश आया।
दुखी हुआ देखकर कि तन पर मन का राज है
अंकुश से छूटा मन मर्जी चलाता है और
सहमा- सहमा सारा पंच-इन्द्रीय समाज है।
झट पैंतरा बदल खड़ा हुआ दिमाग ! आखिर दिमाग जो ठहरा ! पल में फैंका अंकुश और मन पर डाला पहरा।
उई.......! करके मन दिमाग का दास हो गया,
तन भी खुश हुआ कि दिल दिमाग के पास हो गया।
अब दिल -दिमाग का अनुशासन देख जुबान इतराई
बोली चाय क्या अब तो कॉफी भी पी लो भाई!
तुम दोनों हो साथ तो धैर्य भी तुम्हारे पास होता है ।
हर बुरी बला या बीमारी का सहज ही नाश होता है।
पीनी है चाय तो धैर्य जरूरी है भाई!
धीरे -धीरे सुड़क लो गर्म चाय
अब ठिठुरन है जब आई !!
वाह गजब गाथा! तन मन जुबान और मस्तिष्क का संतुलन जरूरी है गर्म चाय के माध्यम से सटीक संदेश और ठंड को भगाने के लिए चाय भी हाजिर।
जवाब देंहटाएंसुंदर सार्थक सृजन।
तहेदिल से धन्यवाद कुसुम जी!आपकी अनमोल प्रतिक्रिया से प्रोत्साहित हूँ
हटाएंसादर आभार।
वाह .....
जवाब देंहटाएंमन तन दिमाग और ज़ुबान की अच्छी रस्साकशी दिखाई ।
सर्दी में चाय पीते किसके पास धैर्य होता है भाई ।
सुड़क सुड़क कर जल्दी जल्दी इसी लिए पीते हैं सब
जीभ भी न जले और मिल जाये थोड़ी सी गरमाई ।।
लिखने का ये अंदाज पसंद आया ।
हृदयतल से धन्यवाद आ.संगीता जी!
हटाएंआपके अंदाज को भी क्या ही कहने...👌👌🙏🙏
सादर आभार।
बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंहार्दिक धन्यवाद आ.आलोक जी!
हटाएंचाय की तन, मन और जुबान के साथ हंसी ठिठौली, मजेदार संवाद वा व्व मजा आ गया।
जवाब देंहटाएंतहेदिल से धन्यवाद ज्योति जी!
हटाएंबहुत सुंदर,संयम धैर्य तो जरूरी है
जवाब देंहटाएंहार्दिक धन्यवाद एवं आभार भारती जी!
हटाएंउत्कृष्ट रचना
जवाब देंहटाएंहार्दिक धन्यवाद मनोज जी!
हटाएंबहुत मजेदार रचना।
जवाब देंहटाएंहार्दिक धन्यवाद आ.विश्वमोहन जी!
हटाएंबहुत बढ़िया... अब चाय के गर्म प्याले का समय है।
जवाब देंहटाएंअत्यंत आभार आपका।
हटाएं
जवाब देंहटाएंअब दिल -दिमाग का अनुशासन देख जुबान इतराई
बोली चाय क्या अब तो कॉफी भी पी लो भाई!
तुम दोनों हो साथ तो धैर्य भी तुम्हारे पास होता है ।
हर बुरी बला या बीमारी का सहज ही नाश होता है।
पीनी है चाय तो धैर्य जरूरी है भाई!
धीरे -धीरे सुड़क लो गर्म चाय
अब ठिठुरन है जब आई !!...आनंदम अति आनंदम ।
ये गोष्ठियों का प्रतिबिंब दिखाती सुंदर रचना ।सर्दी में गर्म चाय की तरह मन में धीरे धीरे उतर गई । साधुवाद ।
हार्दिक धन्यवाद एवं आभार जिज्ञासा जी!
हटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंवाह चाय की प्याली के साथ तन, मन, दिमाग सभी को आपने पिरो दिया... और ये भी एक संयोग ही है कि आपकी इस रचना को मैंने चाय पीते पीते ही पढ़ा...
जवाब देंहटाएंतहेदिल से धन्यवाद एवं आभार नैनवाल जी !
हटाएंअरे वाह
जवाब देंहटाएंबहुत खूब ! अत्यन्त सुन्दर सृजन ।
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