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जनवरी, 2018 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

बहुत समय से बोझिल मन को इस दीवाली खोला

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बहुत समय से बोझिल मन को  इस दीवाली खोला भारी भरकम भरा था उसमें  उम्मीदों का झोला कुछ अपने से कुछ अपनों से  उम्मीदें थी पाली कुछ थी अधूरी, कुछ अनदेखी  कुछ टूटी कुछ खाली बड़े जतन से एक एक को , मैंने आज टटोला बहुत समय से बोझिल मन को इस दीवाली खोला दीप जला करके आवाहन,  माँ लक्ष्मी से बोली मनबक्से में झाँकों तो माँ ! भरी दुखों की झोली क्या न किया सबके हित,  फिर भी क्या है मैने पाया क्यों जीवन में है मंडराता ,  ना-उम्मीदी का साया ? गुमसुम सी गम की गठरी में, हुआ अचानक रोला बहुत समय से बोझिल मन को इस दीवाली खोला प्रकट हुई माँ दिव्य रूप धर,  स्नेहवचन फिर बोली ये कैसा परहित बोलो,  जिसमें उम्मीदी घोली अनपेक्षित मन भाव लिए जो , भला सभी का करते सुख, समृद्धि, सौहार्द, शांति से,  मन की झोली भरते मिले अयाचित सब सुख उनको, मन है जिनका भोला बहुत समय से बोझिल मन को इस दीवाली खोला मैं माँ तुम सब अंश मेरे,  पर मन मजबूत रखो तो नहीं अपेक्षा रखो किसी से,  निज बल स्वयं बनो तो दुख का कारण सदा अपेक्षा,  मन का बोझ बढ़ाती बदले में क्या मिला सोचकर,  ...

मिन्नी और नन्हीं तितली

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                         चित्र : साभार गूगल से कम्प्यूटर गेम नहीं मिलने पर मिन्नी बहुत बहुत रोई... गुस्से से  लाल होकर वह घर से बाहर चली गयी.... घर नहीं आउंगी चाहे जो हो, ऐसा सोच के ऐंठ गयी, पार्क में जाकर कुछ बड़बड़ाकर वहीं बैंच पर बैठ गयी । रंग बिरंगे पंखो वाली इक नन्हींं सी तितली आयी पास के फूलों में वह बैठी, कभी दूर जा मंडरायी... नाजुक रंग बिरंगी पंखों को खोल - बन्द कर इतरायी थोड़ी दूर गई पल में वह अपनी सखियों को लायी.... भाँति-भाँति की सुन्दर तितलियां मिन्नी के मन को भायी । भूली मिन्नी रोना धोना, तितली के संग संग खेली कली फूल तितली से खुश, वह अब कम्प्यूटर गेम भूली मनभाते सुन्दर फूल देख, मिन्नी खुश हो खिलखिलाई तितली सी मंडराई वह खेली, गालों में लाली छायी । साँझ हुई तो सभी तितलियाँ दूर देश को चली गयी..... कल फिर आना,मिलक़र खेलेंगे बोली और ओझल हो गयी । खुशी-खुशी और सही समय पर मिन्नी वापस घर आयी..... तरो-ताजा और भली लगती थी लाड़-प्यार सबका पायी । रात सुहाने सपनों में...

बवाल मच गया

सुन सुन कान पक गये,      उसके तो उम्र भर.... इक लब्ज जो कहा तो बवाल मच गया !!! झुक-झुक के ताकने की कोशिश सभी किये थे, घूरती नजर के बाणों से      तन बिधे थे, ललचायी थी निगाहें  नजरों से चाटते थे...... घूँघट स्वयं उठाया तो बवाल मच गया !!! अपने ही इशारों पे नचाते      रहे सदियों से, कठपुतली सी उसे यूँ ही घुमाते     रहे अंगुलियोंं पे, साधन विलास का उसे     समझा सदा तूने जब पाँव स्वयं थिरके तो बवाल मच गया !!! सदा नाचते -गाते घोड़ी पे चढे़ दूल्हे           अपने ही ब्याह में, इस बार नच ली दुल्हन तो बवाल मच गया !!!        

सर्द मौसम और मैं

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देखा सिकुड़ते तन को ठिठुरते जीवन को मन में ख्याल आया... थोड़ा ठिठुरने का , थोड़ा सिकुड़ने का, शॉल हटा लिया.... कानो से ठण्डी हवा , सरसराती हुई निकली, ललकारती सी बोली ; इसमें क्या ? सिर्फ शॉल हटाकर, करते मेरा मुकाबला !! लदा है तन बोझ से, मोटे ऊनी कपड़ो के तुम नहीं ठिठुर सकते ! सिकुड़ना नहीं बस में तेरे ! बस फिर क्या.... मन मुकाबले को तैयार उतार फैंके गरम कपड़े उठा लिए हथियार.... कंटीली सी हवा तन-मन बेधती निकली जब आर - पार हाथ दोनों बंधकर सिकुड़े नाक भी हुई तब लाल.... सिकुड़ने लगा तन मन  पल में मानी हार.... लपके कपड़ों पर ज्यों ही सर्द हवा को ठिठोली सूझी तेजी का रूख अपनाया फिर कपड़ो को दूर उड़ाया आव देखा न ताव देखा जब सामने अलाव देखा !!! दौड़े भागे अलाव के आगे काँप रहे थे ,बने अभागे अलाव की गर्माहट से कुछ जान में जान आयी.... पुनः सहज सी लगने लगी सर्द मौसम से अपनी लड़ाई.... मन के भावों को जैसे सर्द प्रकृति ने भांप लिया मुझे हराने, अलाव बुझाने फिर से मन में ठान लिया मारुत में फिर तेजी आयी अलाव की अग्नि भी पछता...

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