उफ्फ ! "गर्मी आ गयी"
बसंत की मेजबानी अभी चल ही रही थी, तभी दरवाजे पर दस्तक दे गर्मी बोली , "लो मैंं आ गई" औऱ फिर सब एक साथ बोल उठे, उफ ! गर्मी आ गई ! हाँ ! मैं आ गयी, अब क्या हुआ ? सखी सर्दी जब थी यहाँ आई, तब भी तुम कहाँ खुश थे भाई ! रोज स्मरण कर मुझे कोसे थे सर्दी को तुम ताने - बाने सर्दी सुनकर चुप लौटी बेचारी बनकर । उसे मिटाने और निबटाने, क्या-क्या नहीं किये थे तुम । पेड़ भी सारे काट गिराये, बस तुमको तब धूप ही भाये ? छाँव कहीं पर रह ना जाए, राहों के भी वृक्ष कटाये । जगह-जगह अलाव जलाकर, फिर सर्दी को तुम निबटाये । गयी बेचारी अपमानित सी होकर, बसंत आ गया फिर मुँह धोकर दो दिन की मेहमानवाजी फिर तुम सबको भा गयी। "पर अब लो मैं आ गयी" करो जतन मुझसे निबटो तुम, मैं हर घर -आँगन में छा गयी "लो मैं आ गयी" -सुधा देवरानी पढ़िए एक और रचना इसी ब्लॉग पर ● ज्येष्ठ की तपिश और प्यासी चिड़िया