
बसंत की मेजबानी अभी चल ही रही थी,
तभी दरवाजे पर दस्तक दे गर्मी बोली ,
"लो मैंं आ गई"
औऱ फिर सब एक साथ बोल उठे,
उफ ! गर्मी आ गई !
हाँ ! मैं आ गयी, अब क्या हुआ ?
सखी सर्दी जब थी यहाँ आई,
तब भी तुम कहाँ खुश थे भाई !
रोज स्मरण कर मुझे
कोसे थे सर्दी को तुम
ताने - बाने सर्दी सुनकर
चुप लौटी बेचारी बनकर ।
उसे मिटाने और निबटाने,
क्या-क्या नहीं किये थे तुम ।
उसे मिटाने और निबटाने,
क्या-क्या नहीं किये थे तुम ।
पेड़ भी सारे काट गिराये,
बस तुमको तब धूप ही भाये ?
छाँव कहीं पर रह ना जाए,
राहों के भी वृक्ष कटाये ।
बस तुमको तब धूप ही भाये ?
छाँव कहीं पर रह ना जाए,
राहों के भी वृक्ष कटाये ।
जगह-जगह अलाव जलाकर,
फिर सर्दी को तुम निबटाये ।
गयी बेचारी अपमानित सी होकर,
बसंत आ गया फिर मुँह धोकर
फिर सर्दी को तुम निबटाये ।
गयी बेचारी अपमानित सी होकर,
बसंत आ गया फिर मुँह धोकर
दो दिन की मेहमानवाजी
फिर तुम सबको भा गयी।
"पर अब लो मैं आ गयी"
करो जतन मुझसे निबटो तुम,
मैं हर घर -आँगन में छा गयी
"लो मैं आ गयी"
फिर तुम सबको भा गयी।
"पर अब लो मैं आ गयी"
करो जतन मुझसे निबटो तुम,
मैं हर घर -आँगन में छा गयी
"लो मैं आ गयी"
-सुधा देवरानी