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बीती ताहि बिसार दे

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  स्मृतियों का दामन थामें मन कभी-कभी अतीत के भीषण बियाबान में पहुँच जाता है और भटकने लगता है उसी तकलीफ के साथ जिससे वर्षो पहले उबर भी लिए । ये दुख की यादें कितनी ही देर तक मन में, और ध्यान में उतर कर उन बीतें दुखों के घावों की पपड़ियाँ खुरच -खुरच कर उस दर्द को पुनः ताजा करने लगती हैं।  पता भी नहीं चलता कि यादों के झुरमुट में फंसे हम जाने - अनजाने ही उन दुखों का ध्यान कर रहे हैं जिनसे बड़ी बहादुरी से बहुत पहले निबट भी लिए । कहते हैं जो भी हम ध्यान करते हैं वही हमारे जीवन में घटित होता है और इस तरह हमारी ही नकारात्मक सोच और बीते दुखों का ध्यान करने के कारण हमारे वर्तमान के अच्छे खासे दिन भी फिरने लगते हैं ।  परंतु ये मन आज पर टिकता ही कहाँ है  ! कल से इतना जुड़ा है कि चैन ही नहीं इसे ।   ये 'कल' एक उम्र में आने वाले कल (भविष्य) के सुनहरे सपने लेकर जब युवाओं के ध्यान मे सजता है तो बहुत कुछ करवा जाता है परंतु ढ़लती उम्र के साथ यादों के बहाने बीते कल (अतीत) में जाकर बीते कष्टों और नकारात्मक अनुभवों का आंकलन करने में लग जाता है । फिर खुद ही कई समस्याओं को न्यौता देने...

हो सके तो समभाव रहें

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जीवन की धारा के बीचों-बीच बहते चले गये, कभी किनारे की चाहना ही न की ।  बतेरे किनारे भाये नजरों को , लुभाए भी मन को ,  पर रुके नहीं कहीं । बहना जो था, फिर क्या रुकते ! कई किनारे अपना ठहराव छोड़ साथ भी आये,  अपनापन दिखाए,कुछ बतियाये,                         फिर कुछ कदम साथ चलकर ठहर गये ।  ऐसे ही कुछ किनारे साथ-साथ चले,  पर साथ नहीं चले !  धारा के मध्य आकर साथ निभाना  शायद मुश्किल था उनके लिए ।  बस किनारे किनारे ही बराबर में दौड़ते रहे, देख-देखकर हँसते-मुस्कराते । हाँ , कहीं उलझनों में उलझा देख, वे भी किनारों पर ठीक सामने ही कुछ ठहरे,  सुलझने की तरकीबें सुझाकर अलविदा बोल  वापस हो लिए अपने ठहराव की ओर ।  आखिर कब तक साथ चलते ! कभी-कभी लगा भी, कि कहीं रुकना था ! तनिक ठहरना था ।  आप-पास,आगे पीछे सब देखा  पर ठहराव मिला ही नहीं।  अपनी तो जड़ें भी मध्य धार में  हिचकोलें खाती बहती चली आ रही थी,  अपने पीछे -पीछे । फिर सोचा ! अब तो तभी ठहरेंगे,  जब मिलेगा...

मरे बिना स्वर्ग ना मिलना

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 कंधे में लटके थैले को खेत की मेंड मे रख साड़ी के पल्लू को कमर में लपेट उसी में दरांती ठूँस बड़े जतन से उस बूढ़े नीम में चढ़कर उसकी अधसूखी टहनियों को काटकर फैंकते हुए वीरा खिन्न मन से अपने में बुदबुदायी, "चल फिर से शुरू करते हैं । हाँ ! शुरू से शुरू करते हैं, एक बार फिर , पहले की तरह"।  फिर धीरे-धीरे उसकी बूढ़ी शाखें पकड़ नीचे उतरी। लम्बी साँस लेकर टहनी कटे बूढ़े नीम को देखकर बोली, "उदास मत हो ,  अब बसंत आता ही है फिर नई कोंपल फूटेंगी तुझ पर । तब दूसरों की परवाह किए बगैर लहलहाना तू, और जेष्ठ में खूब हराभरा बन बता देना इन नये छोटे बड़बोले नीमों को, कि यूँ हरा-भरा बन लहलहाना मैंने ही सिखाया है तुम्हें ! बता देना इन्हें कि बढ़ सको तुम खुलकर इसलिए मैंने अपनी टहनियां मोड़ ली,पत्ते गिरा दिये ,जीर्ण शीर्ण रहकर तुम्हारी हरियाली देख और तुम्हें बढ़ता देख खुश होता रहा पर तुम तो मुझे ही नकचौले दिखाने लगे" ! दराँती को वहीं रखकर कमर में बंधे पल्लू को खोला और बड़े जतन से लपेटते हुए सिर में ओढ़ थैला लिए वीरा चलने को थी कि पड़ोसन ने आवाज लगायी ,  "वीरा ! अरी ओ वीरा ! आज बरसों बाद आखिर काट ही...

जो घर देखा नहीं सो अच्छा

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   एक चिड़िया ने अपने बच्चों को शहर के पॉश इलाकों में घुमाने का प्रोग्राम बनाया । जो उनके नीड़ से काफी दूर था । चिड़िया और उसके नन्हें बच्चे वहाँ जाने के लिए बहुत उत्साहित थे ।  अगले दिन बड़े तड़के सुबह ही उन्होंने उड़ान भर दी । थोड़ी देर में वे सुन्दर आलीशान भवनों और ऊँची -ऊँची इमारतों को देखकर बहुत ही खुश और आश्चर्यचकित थे, और चूँ-चूँ कर अपनी ही भाषा में अपनी माँ से उत्सुकतावश तरह तरह के सवाल कर रहे थे , माँ चिड़िया भी अपने बच्चों को बड़े लाड़ से उनके सवालों के जबाब में ही जीवन के गुर भी सिखाये जा रही थी ।  वहाँ के बाग बगीचे साफ-सुथरे और फूलों से लदे थे , जिन पर तरह तरह की रंग-बिरंगी तितलियों को मंडराते देखकर नन्हीं चिड़ियों की खुशी का तो ज्यों ठिकाना ही न था । और माँ चिड़िया अपने बच्चों (नन्हीं चिड़ियों) की खुशी से अत्यंत खुश थी । वे हर एक चीज को देखते और उसकी तुलना अपने इलाके की चीजों से करते हुए इधर-उधर फुर्- फुर्र उड़े जा रहे थे ।  यूँ ही बतियाते उड़ते - उड़ते वे सभी एक बहुमंजिली इमारत की छत में बनी पानी की टंकियों में बैठे तो वहाँ बने टेरेस गार्डन को देखते ही रह गये ।...

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