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फ़रवरी, 2017 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

बहुत समय से बोझिल मन को इस दीवाली खोला

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बहुत समय से बोझिल मन को  इस दीवाली खोला भारी भरकम भरा था उसमें  उम्मीदों का झोला कुछ अपने से कुछ अपनों से  उम्मीदें थी पाली कुछ थी अधूरी, कुछ अनदेखी  कुछ टूटी कुछ खाली बड़े जतन से एक एक को , मैंने आज टटोला बहुत समय से बोझिल मन को इस दीवाली खोला दीप जला करके आवाहन,  माँ लक्ष्मी से बोली मनबक्से में झाँकों तो माँ ! भरी दुखों की झोली क्या न किया सबके हित,  फिर भी क्या है मैने पाया क्यों जीवन में है मंडराता ,  ना-उम्मीदी का साया ? गुमसुम सी गम की गठरी में, हुआ अचानक रोला बहुत समय से बोझिल मन को इस दीवाली खोला प्रकट हुई माँ दिव्य रूप धर,  स्नेहवचन फिर बोली ये कैसा परहित बोलो,  जिसमें उम्मीदी घोली अनपेक्षित मन भाव लिए जो , भला सभी का करते सुख, समृद्धि, सौहार्द, शांति से,  मन की झोली भरते मिले अयाचित सब सुख उनको, मन है जिनका भोला बहुत समय से बोझिल मन को इस दीवाली खोला मैं माँ तुम सब अंश मेरे,  पर मन मजबूत रखो तो नहीं अपेक्षा रखो किसी से,  निज बल स्वयं बनो तो दुख का कारण सदा अपेक्षा,  मन का बोझ बढ़ाती बदले में क्या मिला सोचकर,  ...

"पुष्प और भ्रमर"

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तुम गुनगुनाए तो मैने यूँ समझा प्रथम गीत तुमने मुझे ही सुनाया तुम पास आये तो मैं खिल उठी यूँ अनोखा बसेरा मेरे ही संग बसाया । हमेशा रहोगे तुम साथ मेरे, बसंत अब हमेशा खिला ही रहेगा तुम मुस्कुराये तो मैंं खिलखिलाई ये सूरज सदा यूँ चमकता रहेगा । न आयेगा पतझड़ न आयेगी आँधी, मेरा फूलमन यूँ ही खिलता रहेगा। तुम सुनाते रह़ोगे तराने हमेशा और मुझमें मकरन्द बढता रहेगा। तुम्हें और जाने की फुरसत न होगी मेरा प्यार बस यूँ ही फलता रहेगा ।।            "मगर अफसोस" !!! तुम तो भ्रमर थे मै इक फूल ठहरी वफा कर न पाये ? / था जाना जरूरी ? मैंं पलकें बिछा कर तेरी राह देखूँ                    ये इन्तजार अब यूँ ही चलता रहेगा । मौसम में जब भी समाँ लौट आये मेरा दिल हमेशा तडपता रहेगा कि ये "शुभ मिलन" अब पुनः कब बनेगा                                                      ...

हाँ ! मैने कुछ रिश्तों को टूटते-बिखरते देखा है ;

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जंग लगे/दीमक खाये खोखले से थे वे, कलई / पालिस कर चमका दिये गये नये /मजबूत से दिखने लगे एकदम... ऐसे सामानों को बाजारों में बिकते देखा है। खोखले थे सो टूटना ही था, दोष लाने वालों पर मढ़ दिये गये... शुभ और अशुभ भी हो गयी घड़ियाँ.... मनहूसियत को बहुओं के सर मढ़ते देखा है। हाँ !मैने कुछ रिश्तों को टूटते-बिखरते देखा है। झगड़ते थे बचपन मे भी, खिलौने भी छीन लेते थे एक-दूसरे के.... क्योंकि खिलौने लेने तो पास आयेगा दूसरा, हाँ! "पास आयेगा" ये भाव था प्यार/अपनेपन का.... उन्ही प्यार के भावों में नफरत को भरते देखा है। हाँ ! मैने कुछ रिश्तों को टूटते -बिखरते देखा है। वो बचपन था अब बड़े हुए, तब प्यार था अब नफरत है..... छीनने के लिए खिलौने थे, औऱ अब पैतृक सम्पत्ति..... तब सुलह कराने के लिए माँ-बाप थे, अब वकील औऱ न्यायाधीश.... भरी सभा में सच को मजबूरन गूँगा होते देखा है ; या यूँ कह दें-"झूठ के आगे सच को झुकते देखा है"। हाँ ! मैने कुछ रिश्तों को टूटते -बिखरते देखा है ।। हो गयी जीत मिल गये हिस्से, खत्म हुए अब कोर्ट के किस्से... ...

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