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अप्रैल, 2023 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

बहुत समय से बोझिल मन को इस दीवाली खोला

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बहुत समय से बोझिल मन को  इस दीवाली खोला भारी भरकम भरा था उसमें  उम्मीदों का झोला कुछ अपने से कुछ अपनों से  उम्मीदें थी पाली कुछ थी अधूरी, कुछ अनदेखी  कुछ टूटी कुछ खाली बड़े जतन से एक एक को , मैंने आज टटोला बहुत समय से बोझिल मन को इस दीवाली खोला दीप जला करके आवाहन,  माँ लक्ष्मी से बोली मनबक्से में झाँकों तो माँ ! भरी दुखों की झोली क्या न किया सबके हित,  फिर भी क्या है मैने पाया क्यों जीवन में है मंडराता ,  ना-उम्मीदी का साया ? गुमसुम सी गम की गठरी में, हुआ अचानक रोला बहुत समय से बोझिल मन को इस दीवाली खोला प्रकट हुई माँ दिव्य रूप धर,  स्नेहवचन फिर बोली ये कैसा परहित बोलो,  जिसमें उम्मीदी घोली अनपेक्षित मन भाव लिए जो , भला सभी का करते सुख, समृद्धि, सौहार्द, शांति से,  मन की झोली भरते मिले अयाचित सब सुख उनको, मन है जिनका भोला बहुत समय से बोझिल मन को इस दीवाली खोला मैं माँ तुम सब अंश मेरे,  पर मन मजबूत रखो तो नहीं अपेक्षा रखो किसी से,  निज बल स्वयं बनो तो दुख का कारण सदा अपेक्षा,  मन का बोझ बढ़ाती बदले में क्या मिला सोचकर,  ...

सफर ख्वाहिशों का थमा धीरे -धीरे

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  मौसम बदलने लगा धीरे-धीरे जगा आँख मलने लगा धीरे-धीरे । जमाना जो आगे बहुत दूर निकला रुका , साथ चलने लगा धीरे - धीरे। हुआ चाँद रोशन खिली सी निशा है कि बादल जो छँटने लगा धीरे-धीरे । खुशी मंजिलों की मनायें या मानें सफर ख्वाहिशों का थमा धीरे -धीरे। अवचेतन में आशा का दीपक जला तो  मुकद्दर बदलने लगा धीरे-धीरे । हवा मन - मुआफिक सी बहने लगी है मन में विश्वास ऐसा जगा धीरे -धीरे । अनावृत हुआ सच भले देर से ही लगा टूटने अब भरम धीरे-धीरे । पढ़िए एक और रचना इसी ब्लॉग पर   जिसमें अपना भला है, बस वो होना है

लो ! मैं तो फिर वहीं आ गयी

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  "क्या होगा इसका ? बस खाना खेलना और सोना । इसके अलावा और भी बहुत कुछ है जीवन में बेटा !  कम से कम पढ़ाई-लिखाई तो कर ले । आजकल कलम का जमाना है । चल बाकी कुछ काम-काज नहीं भी सीखती तो कलम चलाना तो सीख !  बिना पढ़े -लिखे क्या करेंगी इस दुनिया में, बता ?... पढेगी-लिखेगी तभी तो सीखेगी दुनियादारी" ! घर के बड़े जब देखो तब टोकते इसी तरह । सुन सुन कर पक गयी भावना। आखिर झक मारकर पढ़ने में मन लगाने लगी । और बन गयी एक पढ़ाकू लड़की।अपनी कक्षा में सबसे अब्बल । चार दिन की खुशी ! फिर वही... "अरे ! पढ़ती तो है । बस पढ़ती ही तो है ! अब बन भी जाये कुछ तो माने । नहीं तो सम्भालेगी फिर चौका चूल्हा !... और वो सीखना तो दूर देखा भी ना है इसने । क्या होगा इस छोरी का" ?.. सबको लगता भावना किसी की नहीं सुनती बस अपने में ही मस्त मौला है । पर वो थी ठीक इसके उलट । बहुत ही संवेदनशील, और अन्तर्मुखी। साथ ही  सबकी सुनकर सबके मुताबिक कुछ करने की ठानने वाली । पर ना जताना और ना ही कुछ बताना। फिर ठान ली उसने तो बन गई शिक्षिका ! परन्तु पढ़ते-पढ़ते पढ़ने की ऐसी लत लगी उसे कि बिना पढ़े तो सो भी ना पाती । इधर घर वाले सोच...

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