सोमवार, 24 अप्रैल 2023

सफर ख्वाहिशों का थमा धीरे -धीरे

 

stair night

मौसम बदलने लगा धीरे-धीरे

जगा आँख मलने लगा धीरे-धीरे ।


जमाना जो आगे बहुत दूर निकला

रुका , साथ चलने लगा धीरे - धीरे।


हुआ चाँद रोशन खिली सी निशा है

कि बादल जो छँटने लगा धीरे-धीरे ।


खुशी मंजिलों की मनायें या मानें

सफर ख्वाहिशों का थमा धीरे -धीरे।


अवचेतन में आशा का दीपक जला तो

 मुकद्दर बदलने लगा धीरे-धीरे ।


हवा मन - मुआफिक सी बहने लगी है

मन में विश्वास ऐसा जगा धीरे -धीरे ।


अनावृत हुआ सच भले देर से ही

लगा टूटने अब भरम धीरे-धीरे ।




गुरुवार, 6 अप्रैल 2023

लो ! मैं तो फिर वहीं आ गयी

 

Books

"क्या होगा इसका ? बस खाना खेलना और सोना । इसके अलावा और भी बहुत कुछ है जीवन में बेटा !  कम से कम पढ़ाई-लिखाई तो कर ले । आजकल कलम का जमाना है । चल बाकी कुछ काम-काज नहीं भी सीखती तो कलम चलाना तो सीख !  बिना पढ़े -लिखे क्या करेंगी इस दुनिया में, बता ?... पढेगी-लिखेगी तभी तो सीखेगी दुनियादारी" !


घर के बड़े जब देखो तब टोकते इसी तरह । सुन सुन कर पक गयी भावना। आखिर झक मारकर पढ़ने में मन लगाने लगी । और बन गयी एक पढ़ाकू लड़की।अपनी कक्षा में सबसे अब्बल ।

चार दिन की खुशी ! फिर वही... "अरे ! पढ़ती तो है । बस पढ़ती ही तो है ! अब बन भी जाये कुछ तो माने । नहीं तो सम्भालेगी फिर चौका चूल्हा !... और वो सीखना तो दूर देखा भी ना है इसने । क्या होगा इस छोरी का" ?..


सबको लगता भावना किसी की नहीं सुनती बस अपने में ही मस्त मौला है । पर वो थी ठीक इसके उलट । बहुत ही संवेदनशील, और अन्तर्मुखी। साथ ही  सबकी सुनकर सबके मुताबिक कुछ करने की ठानने वाली । पर ना जताना और ना ही कुछ बताना।


फिर ठान ली उसने तो बन गई शिक्षिका ! परन्तु पढ़ते-पढ़ते पढ़ने की ऐसी लत लगी उसे कि बिना पढ़े तो सो भी ना पाती । इधर घर वाले सोचते अब तो पढ़ लिख गयी, जो बनना था बन भी गयी, अब किस बात की पढ़ाई  ? अब पढ़ाई - लिखाई खतम तो फिर ये किताबों का ढ़ेर क्यों ?


और फिर एक दिन कबाड़ी वाले को बुला कर करने लगे सौदा उसकी किताबों का । शुक्र है कि तभी आना हो गया उसका और बामुश्किल बचाई उसने अपनी धरोहरें ।


परन्तु आश्चर्यचकित थी सुन - सुनकर  कि "अब जो बनना था बन गई न !  फिर अब क्या पढ़ना ? ऐसे क्या किताबी कीड़ा बनी घुसी रहती है हर समय किताबों में ! ऐसे कैसे चलेगी इसकी जिंदगी ? बाहर निकल अब इन किताबों से , और सीख ले थोड़ा दुनियादारी ! अरे कुछ नहीं तो सो ही जाया कर थोड़ा ! दिमाग को चैन तो मिलेगा !

भावना  सिर थाम कर मन ही मन बुदबुदायी, "लो ! मैं त़ो फिर वहीं आ गई ! हे भगवान ! बड़ी अजीब है तेरी दुनिया और ये दुनियादारी !




हो सके तो समभाव रहें

जीवन की धारा के बीचों-बीच बहते चले गये ।  कभी किनारे की चाहना ही न की ।  बतेरे किनारे भाये नजरों को , लुभाए भी मन को ,  पर रुके नहीं कहीं, ब...