शबनम
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हमेशा की तरह सरला इस बार भी नवरात्रि में कन्या पूजन के लिए कन्याएं लेने झोपड़पट्टी गयी तो उसकी नजरें शबनम को ढ़ूँढ़ने लगी ।
वही शबनम जो पिछले दो बार के कन्या पूजन के समय ये हिसाब किताब रखती थी कि किसके घर कौन लड़की जायेगी ।
परन्तु इस बार शबनम कहीं नजर नहीं आई तो सरला सोचने लगी कि कहाँ गयी होगी शबनम ? हाँ क्या कहा था उसने ? दो साल काम करके पैसे जमा करुँगी फिर यहीं किसी अच्छे विद्यालय में दाखिला करवायेंगे बाबा ।
अच्छा तो दो साल में पैसे जमा हो गये होंगे , अब विद्यालय जाती होगी और इस वक्त भी पढ़ रही होगी, वो है ही इतनी लगनशील ।
परन्तु आज उसे यहाँ लड़कियों के हिसाब की फिकर न हुई , सोचकर सरला मुस्कराने लगी , याद करने लगी कि कैसे यहाँ शबनम हाथ में कागज और पैंसिल लिए खड़ी रहती कि कौन लड़की किसके घर भेजनी है सारा हिसाब रखती ... उस दिन बड़ी जल्दी में थी मैं, सामने ही रंग बिरंगी उतरन पहने एक दूसरे का रिबन ठीक करती तैयार खड़ी कन्याएं देखी तो सोचा झट से ले चलती हूँ सबको।
जब बुलाया तो वे बोली , "शबनम दीदी को आने दो आण्टी ! फिर दीदी जिसे भेजेगी वही आयेगी आपके साथ" ।
"अरे ! ऐसा क्यों ? जाओ उसे भी ले आओ , और चलो जल्दी ! आओ न बेटा ! देर हो रही है"...
"आण्टी ! वो आ गयी शबनम दीदी" ।
"तो बुला लो उसे भी ! और जल्दी करो" !
तब तक शबनम पास आ गयी, नमस्ते करके बोली "आण्टी ! बस दो मिनट" ।
अरे ! अब क्या हुआ ? चलो न बैठो गाड़ी में...
शबनम ने इशारा करके उन्हें गाड़ी की तरफ भेजा और बोली, "जाइये आण्टी ! ले जाइये इन्हें । पर घर कहाँ है आपका" ?
"यहीं है पास में, और मैं छोड़ने खुद आउँगी सबको" ।
"ठीक है आण्टी" !
"अरे ! तुम क्यूँ नहीं आ रही" ?
"मैं ...मैं तो बड़ी हो गयी हूँ आण्टी" ! थोड़ा सकुचाते शरमाते शबनम बोली ।
कोई बड़ी नहीं हुई हो ! चलो ! जल्दी चलो !
सुनते ही एक पल में वो बड़ी बनी शबनम बच्ची हो गयी खुशी खुशी झट से गाड़ी में बैठ गयी ।
कन्या पूजन के बाद मैंने देखा कि सभी बच्चे दक्षिणा में मिलें पैसे भी शबनम से गिनवाकर उसी के पास जमा करवा रहे हैं ।
तभी पड़ौसन ने सिर्फ नौ कन्याएं बुलाई तो झुंड में से नौ कन्याएं छाँटकर भेजी शबनम ने । उनमें से एक छोटी लड़की जिद्द करने लगी मुझे भी जाना है । तो शबनम उसे पकड़कर समझाते हुए आँगन में ले गयी । तब औरों से पता चला कि वह नन्हीं सी लड़की शबनम की अपनी सगी बहन है । और वह पहले किसी और के घर हो आयी है अबकी उसका नम्बर नहीं है।
अच्छा ! अपनी ही सगी बहन को भी नम्बर पर भेजना ! तभी सब इसका कहना मान रहे हैं , नहीं तो सब अपने - अपने लिए भागते ।
अगली बार आयी तो शबनम को कुछ और जाना, जाना कि वह पहले दादी के पास गाँव में थी तो दादी उसे पाठशाला भेजती थी । हिसाब (गणित) में बड़ी तेज है शबनम दीदी ! कक्षा पाँच तक पढ़ी है । हिसाब वाले गुरूजी बोले थे दादी को, आगे पढ़ाना इसे ।
"अच्छा ! फिर अब पढ़ती हो कि नहीं" ? पूछा तो कुछ धीमें स्वर में बोली, "नहीं आण्टी ! अभी तो बाबा यहाँ ले आये न । बाबा बोले हैं कुछ समय काम करके पैसा बचा लो फिर पढ़ लेना । यहीं किसी अच्छे विद्यालय में दाखिला करवायेंगे" ।
"काम ! तुम क्या काम करोगी ? अभी तो इत्ती छोटी हो" !
"आण्टी मुझे सब आता है ! झाड़ू -पोछा कपड़े बर्तन... सब कर लेती हूँ मैं" । (उत्साहित होकर बोली)।
हैं ...! ये सब कब और कैसे सीखा ? इतने छोटे में ही इतना सारा काम !
"आण्टी ! वो उधर वाली सेठानी जी हैं न...उन्ने एक महीना बुलाया बिना पैसे लिए काम किया उनके घर, और सब सीख लिया" ।
"अब पैसे लेकर करती हो" ?
जी,
"कहाँ जमा कर रही हो अपने पैसे ? बैंक में"?
"नहीं आण्टी ! बाबा को देती हूँ" ।
"अगर बाबा ने खर्च कर लिए तो" ?
"बाबा ऐसा नहीं करते आण्टी ! जमा कर रहे हैं बाबा" ।
"ओ दीदी ! कित्ती जिमाओगे कन्या ? इत्ती सारी तो आ गयी"। (माँग में मुट्ठी भर सिन्दूर छोटे से माथे में बड़ी सी बिन्दी सूखे पपड़ाये होंठ बेटी को गोदी में लिए वह माँ जो अभी खुद भी बच्ची है ) सरला के सामने आकर पूछी तो यादों से बाहर निकलकर सरला बोली, "हाँ हाँ बस हो गये न, चलो चलते हैं । पर आज शबनम नही दिखी इधर ? विद्यालय जाती होगी न अब वो" ?
"अरे दीदी ! शबनम तो गाँव गयी है ब्याह है उसका गाँव में"....।
"ब्याह ! किसका" ? (चौंककर माथे पर बल देकर सरला ने पूछा )
"शबनम का, दीदी ! शबनम का ब्याह है, पूरा परिवार गया है ब्याह कराने"।
"अभी कैसे ? अभी तो वह पढ़ना चाहती थी न" (सरला मन ही मन झुंझला उठी)
"पढ़ना ? नहीं दीदी ! वो तो अब बड़ी हो गयी, अब क्या पढ़ती । अब तो ब्याह है उसका "।
"ब्याह है उसका" शब्द बार-बार सरला के कानों से टकराने लगे , मन करता था कुछ बोले बहुत कुछ बोले पर क्या...और किससे.......।
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टिप्पणियाँ
अति सुन्दर ही नहीं झोपड़ पट्टी वाली प्रतिभाओं का स्टीक चित्रण खेचती कलम ।
जवाब देंहटाएंअत्यंत आभार एवं धन्यवाद आ.दीदी जी!
हटाएंबहुत सुन्दर रचना, हाँ यह सत्य है कि आज भी देश के विभिन्न हिस्सों में ये सब घटनाएं हो रही है।
जवाब देंहटाएंसस्नेह आभार भाई !
हटाएंबहुत बहुत सुन्दर सराहनीय |
जवाब देंहटाएंसुधा दी, यह विडंबना ही है कि आज भी ऐसी कई शबनम है जिनकी पढ़ने की आगे बढ़ने की इच्छा को समाज द्वारक अपनो ही द्वारा कुचला जाता है और आप और हम कुछ नही कर सकते। बहुत सुंदर रचना दी।
जवाब देंहटाएंजी,क्या कह सकते हैं दूसरे भी जब अपने जन्मदाता ही इस तरह बेटी के सपने चकनाचूर कर दें...
हटाएंहृदयतल से धन्यवाद एवं आभार आपका।
सादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (12-4-22) को "ऐसे थे निराला के राम और राम की शक्तिपूजा" (चर्चा अंक 4398) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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कामिनी सिन्हा
तहेदिल से धन्यवाद एवं आभार कामिनी जी ! मेरी रचना का चयन करने हेतु ।
हटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना मंगलवार १२ अप्रैल २०२२ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
तहेदिल से धन्यवाद एवं आभार श्वेता जी!मेरी रचना को मंच प्रदान करने हेतु ।
हटाएंसमाज की विसंगतियों को प्रकाश में लाती मर्मस्पर्शी रचना । बहुत सुन्दर सृजन सुधा जी !
जवाब देंहटाएंसहृदय धन्यवाद एवं आभार मीना जी!
हटाएंदेश बदल गया
जवाब देंहटाएंसमाज बदल गया
परिवार कहाँ बदला है...
कुछ न कर पाने की छटपटाहट अजीब सी बैचेनी पैदा करती है
उम्दा उकेरा गया चित्र
तहेदिल से धन्यवाद आ.विभा जी !
हटाएंआपकी उपस्थिति से सृजन सार्थक हुआ
सादर आभार ।
सभी कुछ बदल गया परन्तु लड़कियों के लिए आज भी समस्याओं की दीवार खड़ी हो जाती है।क्यों कि समाज की विचारधारा में कोई अन्तर नही आया है। लाज़बाब चित्रण।
जवाब देंहटाएंजी, उर्मिला जी, सही कहा आपने...
हटाएंतहेदिल से धन्यवाद एवं आभार आपका।
बेहद हृदयस्पर्शी सृजन।
जवाब देंहटाएंसहृदय धन्यवाद एवं आभार सखी !
हटाएं" अपनी ही सगी बहन को भी नम्बर पर भेजना ! तभी सब इसका कहना मान रहे हैं , नहीं तो सब अपने - अपने लिए भागते। " - काश ! परिवारवाद वाले परिवेश में और स्वार्थहीत के लिए पक्षपात करने वाले समाज में इस बाला से सबक़ ले पाते .. बस यूँ ही ...
जवाब देंहटाएंयोग्यता के आधार पर अवसर देने की सीख देने वाले इस आचरण से आरक्षण भोगियों सह लोभियों को भी सीख लेनी चाहिए .. शायद ...
इंसान पहले स्वयं को बदले तो, परिवार बदलेगा .. परिवार बदलेगा तो समाज बदलेगा और समाज बदलेगा, तभी देश बदलेगा .. शायद ...
विडंम्बना है कि आज भी कई समाज में रजोधर्म के बाद ही लड़की को "बड़ी" हुई मान ली जाती है और मंच पर माईक लेकर चिल्लाने वाले लोग भी अपने घर में "बालश्रम अधिनियम" की धज्जियाँ उड़ाने में तनिक भी गुरेज़ नहीं करते .. शायद ...
हर बार की तरह आपकी मार्मिक कहानी / घटना ...
तहेदिल से धन्यवाद एवं आभार आ.सुबोध जी ! रचना का मर्म स्पष्ट करने हेतु ।
हटाएंजी बिल्कुल सही कहा आपने परिवारवाद वालों के सामने योग्यता की क्या बिसात...शबनम जैसी लड़कियां समाज की दिशा और दशा में यकीनन बदलाव लायें परन्तु उन्हें तो उनके अपने ही ठग लेते हैं । फिर समाज के ठेकेदारी तो परिवारवाद पर ही चल रही है।
वाकई विडंबना है ये कि रजोधर्म जो आजकल ग्यारहवें या बारहवें वर्ष में शुरू हो जाता है उन बच्चियों को बड़ा मान लेना और पूजा या धर्म कार्य से विलग करना इस बात की परवाह किए बगैर कि वे मानसिक रूप से कैसा महसूस करती हैं...।
पुन: दिल से आभार आपका रचना के मंतव्य तक पहुंचने हेतु 🙏🙏🙏🙏
सही कहा आपने--इंसान पहले स्वयं को बदले तो, परिवार बदलेगा .. परिवार बदलेगा तो समाज बदलेगा और समाज बदलेगा, तभी देश बदलेगा
हटाएं🙏🙏🙏🙏🙏
न जाने कितनी शबनम अपनी पढ़ने की ललक की बलि चढ़ाने पर मजबूर हो जाती हैं ।
जवाब देंहटाएंसोचने पर मजबूर करती अच्छी कहानी ।।
तहेदिल से धन्यवाद आ.संगीता जी !आपकी सराहना पाकर सृजन सार्थक हुआ ।
हटाएंसादर आभार ।
हृदय स्पर्शी सृजन सुधा जी, आज भी देश के हर कोने में शबनमें मिर जायेगी, अपनी मनसा और प्रतीभा का गला घोटती।
जवाब देंहटाएंसुंदर।
जी, आ.कुसुम जी! बड़ा दुख होता है ऐसी शबनमों के देखकर...
हटाएंतहेदिल से धन्यवाद एवं आभार आपका ।
यथार्थ का सटीक चित्रण किया है आपने सुधा जी ।
जवाब देंहटाएंकुछ तो ये लोग गरीबी से लाचार हैं, कुछ जागरूकता की कमी से । मैं भी ऐसी शबनमों से अक्सर मिलती हूं, समझाती हूं, प्रयास भी करती हूं, कि ये पढ़ें । आम बच्चों की जिंदगी जिएं।
पर ये बेचारी गरीबी के साथ साथ, अपने मां बाप की चोट खाई हुई होती है, वे इन्हें कमाई का जरिया समझते है । वे इन्हें सरकारी स्कूल में भी पढ़ने नहीं भेजते । घरों में काम करती हैं, कूड़ा उठाती हैं,और कच्ची उम्र में शादी कर देते हैं, फिर वो बच्ची भी अपने बच्चों के साथ यही करती है और सरकारें समाज सुधार की राजनीति करती रहती हैं,यही इनके जीवन का सिलसिला है ।
सार्थक कहानी के लिए बधाई सुधा जी ।
जी, जिज्ञासा जी, बिल्कुल सही कहा आपने फिर ये अपने बच्चों के साथ भी यही करती हैं इनमें आगे आगे तक अभी सुधार की कोई गुंजाइश नहीं...
जवाब देंहटाएंसहृदय धन्यवाद एवं आभार आपका ।
एक विडंबना ही है कि आज कथित सभ्य सदी में भी बेटियों को इस तरह की सोच का सामना करना पड़ता है।समाज के एक हिस्से की कड़वी सच्चाई उकेरी है आपने।सस्नेह ❤❤
जवाब देंहटाएंसस्नेह आभार ए्वं धन्यवाद प्रिय रेणु जी ! उत्साहवर्धन कृती सराहनीय प्रतिक्रिया हेतु ।
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