तन में मन है या मन में तन ?

ये मन भी न पल में इतना वृहद कि समेट लेता है अपने में सारे तन को, और हवा हो जाता है जाने कहाँ-कहाँ ! तन का जीव इसमें समाया उतराता उकताता जैसे हिचकोले सा खाता, भय और विस्मय से भरा, बेबस ! मन उसे लेकर वहाँ घुस जाता है जहाँ सुई भी ना घुस पाये, बेपरवाह सा पसर जाता है। बेचारा तन का जीव सिमटा सा अपने आकार को संकुचित करता, समायोजित करता रहता है बामुश्किल स्वयं को इसी के अनुरूप वहाँ जहाँ ये पसर चुका होता है सबके बीच। लाख कोशिश करके भी ये समेटा नहीं जाता, जिद्दी बच्चे सा अड़ जाता है । अनेकानेक सवाल और तर्क करता है समझाने के हर प्रयास पर , और अड़ा ही रहता है तब तक वहीं जब तक भर ना जाय । और फिर भरते ही उचटकर खिसक लेता वहाँ से तन की परवाह किए बगैर । इसमें निर्लिप्त बेचारा तन फिर से खिंचता भागता सा चला आ रहा होता है इसके साथ, कुछ लेकर तो कुछ खोकर अनमना सा अपने आप से असंतुष्ट और बेबस । हाँ ! निरा बेबस होता है ऐसा तन जो मन के अधीन हो। ये मन वृहद् से वृहद्तम रूप लिए सब कुछ अपने में समेटकर करता रहता है मनमानी । वहीं इसके विपरीत कभी ये पलभर में सिकुड़कर या सिमटकर अत्यंत सूक्ष्म रूप में छिपक...
जी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा रविवार (१९-०७-२०२०) को शब्द-सृजन-३०'प्रार्थना/आराधना' (चर्चा अंक-३७६७) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है
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अनीता सैनी
तहेदिल से धन्यवाद अनीता जी शब्दसृजन में मेरी रचना साझा करने हेतु।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंअत्यंत आभार राकेश जी!
हटाएंलाजवाब अभिव्यक्ति.. अति सुन्दर ।
जवाब देंहटाएंहार्दिक धन्यवाद मीना जी !
हटाएंलेकिन मैं प्रभु से प्रार्थना ये करूँ कैसे ??
जवाब देंहटाएंकपटी, स्वार्थी, अहंकारी और भ्रष्टाचारी
बन जाते हो तुम सफलता पाते ही ...!!!!
फिर मैं मन्दोदरी बनूँ कैसे ???......
वाह !! बहुत खूब," मैं मन्दोदरी बनूँ कैसे " बनाना भी नहीं चाहिए। बेहतरीन अभिय्वक्ति सुधा जी,सादर नमन आपको
हृदयतल से धन्यवाद सखी!
हटाएंकितना गहरा व्यंग्य है शालीनता से कितनी बड़ी बात कही सामायिक परिस्थितियों का भी सटीक रेखा चित्र।
जवाब देंहटाएंवाह रचना।
हृदयतल से धन्यवाद कुसुम जी! उत्साहवर्धन हेतु।
हटाएंसस्नेह आभार।
अपनोंं के आशीष में ही ,
जवाब देंहटाएंअपना तो सारा जहाँ है ।
यही सुखद अनुभूति है जीवन की 👌👌🌹🌹❤❤