नयी सोच के पाठकों को मेरा सप्रेम सादर नमस्कार। पहली बार ब्लॉग पढे, जाने, औऱ अपनी अपरिपक्व सोच को नयी सोच के माध्यम से पाठकों के समक्ष रखने का प्रयास कर रही हूँ।आपके मार्गदर्शन की आशा करती हूँ।
Sunday, August 27, 2017
कृषक अन्नदाता है....
आज पुरानी डायरी हाथ लग गयी,टटोलकर देखा तो यह रचना आज के हालात पर खरी उतरती हुई दिखी ,आज किसानों की स्थिति चिन्ताजनक है........ मुझे अब याद नहीं कि तब करीब 30 वर्ष पहले किन परिस्थितियों से प्रभावित होकर मैंने यह रचना लिखी होगी ?........कृषकोंं की चिन्ताजनक स्थिति या फिर लोगों में बढ़ती धनलोलुपता.........?
तब परिस्थितियाँ जो भी रही हो................अपने विद्यार्थी जीवन के समय की रचना आप लोगों के साथ साझा कर रही हूँ.................आप सभी की प्रतिक्रिया के इंतज़ार में---------"मेरे छुटपन की कविता"
कागज का छोटा सा टुकड़ा (रुपया)
पागल बना देता है जन को
खेती करना छोड़कर
डाकू बना रहा है मन को...।
इसके लिए ही भाग रहे
श्रमिक मजदूर सिपाही....
इसी के लिए दौड़-भागकर
देते हैं सब सुख - चैन को भी तबाही....
हे देश के नवजवानोंं !
सुनो प्रकृति का़ संदेश...
इसके पीछे मत भागो,
यह चंचल अवशेष......
कृषकों के मन को भी
अगर रुपया भा जायेगा....
तो खेती छोड़कर उनको भी
दौड़ना ही भायेगा....
फिर कृषक जन भी खेती
छोड़ रुपया कमायेंगे ....
तब क्या करेंंगे पूँजीपति ,
जब अन्न कहीं नहीं पायेंगे......?
रुपये को सब कुछ समझने वालों
एक बार आजमा लो...
कृषकों की शरण न जाकर तुम,
रुपये से भूख मिटा लो.....
भूख अन्न से ही मिटती है,
कृषक अन्नदाता है.......
वह गरीब भूखा रोता है,
फिर किसको क्या भाता है !!......?
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment