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आओ बच्चों ! अबकी बारी होली अलग मनाते हैं

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  आओ बच्चों ! अबकी बारी  होली अलग मनाते हैं  जिनके पास नहीं है कुछ भी मीठा उन्हें खिलाते हैं । ऊँच नीच का भेद भुला हम टोली संग उन्हें भी लें मित्र बनाकर उनसे खेलें रंग गुलाल उन्हें भी दें  छुप-छुप कातर झाँक रहे जो साथ उन्हें भी मिलाते हैं जिनके पास नहीं है कुछ भी मीठा उन्हें खिलाते हैं । पिचकारी की बौछारों संग सब ओर उमंगें छायी हैं खुशियों के रंगों से रंगी यें प्रेम तरंगे भायी हैं। ढ़ोल मंजीरे की तानों संग  सबको साथ नचाते हैं जिनके पास नहीं है कुछ भी मीठा उन्हें खिलाते हैं । आज रंगों में रंगकर बच्चों हो जायें सब एक समान भेदभाव को सहज मिटाता रंगो का यह मंगलगान मन की कड़वाहट को भूलें मिलकर खुशी मनाते हैं जिनके पास नहीं है कुछ भी मीठा उन्हें खिलाते हैं । गुझिया मठरी चिप्स पकौड़े पीयें साथ मे ठंडाई होली पर्व सिखाता हमको सदा जीतती अच्छाई राग-द्वेष, मद-मत्सर छोड़े नेकी अब अपनाते हैं  जिनके पास नहीं है कुछ भी मीठा उन्हें खिलाते हैं । पढ़िए  एक और रचना इसी ब्लॉग पर ●  बच्चों के मन से

हाइबन

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                               【1】 एक विधवा वन से लकड़ियां काटकर उन्हें घर -घर बेचकर अपने परिवार का भरण पोषण करती थी अचानक वन विभाग से लकड़ी काटने पर सख्त मनाही होने से वह जंगल से लकड़ियां नहीं ला पायी तो घर में भुखमरी की नौबत आ गयी उससे ये सब सहा न गया तो वह रात के अंधेरे में जंगल से लकड़ियां चुराने निकल पड़ी, उसने लकड़ियां काटकर गट्ठर तैयार किया और उठाने ही वाली थी कि तभी भयंकर चिंघाड़ सुनकर उसके हाथ पैर ठंडे पड़ गये देखा तो उसके ठीक सामने चीता खड़ा था , काटो तो खून नहीं वाली हालत थी उसकी डर से...बचने का कोई तरीका नहीं सूझ रहा था उसे...अनायास ही उसने दोनो हाथ जोड़ दिये और जैसी थी वैसी ही जड़ हो गयी, उसने बताया चीता उसके और करीब आया इतना करीब कि अब उसे उसका पीछे का हिस्सा ही दिखाई दे रहा था और वह अपलक स्थिर हाथ जोड़े खड़ी थी उसे लगा कि चीते ने उसे सूंघा और क्षण भर बाद वह मुड़ गया और वहां से चला गया। इसी खौफनाक दृश्य पर निर्मित्त् हाइबन ...... लकड़ी गट्ठा~ करबद्ध महिला चीता सम्मुख             ...

जन्म 'एक और गरीब का

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                                                                  खिल ही  जाते हैं गरीब की बगिया में भी मौसमानकूल कुछ फूल चाहे अनचाहे, सिसकते सुबकते कुछ अलसाये से । जिनके स्पर्श से जाग उठती है , उनकी अभावग्रस्त मरियल सी आत्मा । आशा की बुझती चिनगारी को फूँकनी से फूँक मार-मारकर, जलाते हैं हिम्मत की लौ । पीठ पर चिपके पेट और कंकाल सी देह को उठाकर धोती के चिथड़े से कमर कसकर सींचने लगते हैं ये अपनी बगिया । सिसकियाँ फिर किलकारियों में बदलती हैं ! और मुस्कराने लगती है इनकी कुटिया !              फिर इन्हीं का सहारा लिए  बढने लगती है    इनकी भी वंशबेल। हर माँ-बाप की तरह ये भी बुनते हैंं, चन्द रंगीन सपने ! और फिर अपनी औकात से बढ़कर, केंचुए सा खिंचकर तैयार करते हैं, अपने नौनिहाल के सुनहरे भविष्य का बस्ता ! उसे शिक्षित और स्वावलंबी बनाने हेतु भेजते हैं अपनी ही तरह  घिसते-पिटते सरक...

दर्द होंठों में दबाकर....

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उम्र भर संघर्ष करके रोटियाँ अब कुछ कमाई झोपड़ी मे खाट ताने नींद नैनों जब समायी नींद उचटी स्वप्न भय से क्षीण काया जब बिलखती दर्द होठों में दबाकर भींच मुट्ठी रूह तड़पती... शिथिल देह सूखा गला जब घूँट जल को है तरसता हस्त कंपित जब उठा वो सामने मटका भी हँसता ब्याधियाँ तन बैठकर फिर आज बिस्तर हैं पकड़ती दर्द होंठों में दबाकर भींच मुट्ठी रुह तड़पती ये मिला संघर्ष करके मौत ताने मारती है असह्य सी इस पीर से अब जिन्दगी भी हारती है खत्म होती देख लिप्सा रोटियाँ भी हैं सुबकती दर्द होंठों में दबाकर भींच मुट्ठी रुह तड़पती                           चित्र साभार गूगल से.... ऐसे ही एक और रचना वृद्धावस्था पर  " वृद्धावस्था   "

अपनों को परखकर....

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 अपनों को परखकर यूँ परायापन दिखाते हो  पराए बन वो जाते हैं तो आंसू फिर बहाते हो न झुकते हो न रुकते क्यों बातें तुम बनाते हो  उन्हें नीचा दिखाने को खुद इतना गिर क्यों जाते हो पराये बन वो जाते हैं तो आँसू फिर बहाते हो अपनों को परखकर...... मिले रिश्ते जो किस्मत से निभाना है धरम अपना जीत लो प्रेम से मन को यही सच्चा करम अपना तुम्हारे साथ में वो हैं तो हक अपना जताते हो पराये बन वो जाते हैं तो आँसू फिर बहाते हो। अपनों को परखकर ...... कोई रिश्ता जुड़ा तुमसे निभालो आखिरी दम तक सुन लो उसके भी मन की, सुना लो नाक में दम तक बातें घर की बाहर कर, तमाशा क्यों बनाते हो पराये बन वो जाते हैं तो आँसू फिर बहाते हो अपनों को परखकर...... ये घर की है तुम्हारी जो, उसे घर में ही रहने दो कमी दूजे की ढूँढ़े हो, कमी अपनी भी देखो तो बही थी प्रेम गंगा जो, उसे अब क्यों सुखाते हो पराये बन वो जाते हैं तो आँसू फिर बहाते हो अपनों को परखकर.... चले घर त्याग करके जो, तो जाने दो न रोको तुम जहाँ खुश हैं रहें जाकर, न जाके उनको टोको तुम क्यों जाने वालों को घर की राह फिर फिर दिखाते हो पराये बन वो जाते हैं तो आँसू फिर ...

कभी ले हरी नाम अरी रसना!

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फूटे घट सा है ये जीवन भरते-भरते भी खाली है कभी ले हरि नाम अरी रसना ! अब साँझ भी होने वाली है..... जब से हुई भोर और आँख खुली जीवन, घट भरते ही बीता कितना भी किया सब गर्द गया खुद को पाया रीता-रीता धन-दौलत जो भी कमाई है सब यहीं छूटने वाली है। कभी ले हरी नाम अरी रसना! अब साँझ भी होने वाली है...... इस नश्वर जग में नश्वर सब रिश्ते-नाते भी मतलब के दिन-रैन जिया सब देख लिया अन्तर्मन को अब तो मथ लें... मुरलीधर माधव नैन बसा छवि जिनकी बहुत निराली है कभी ले हरी नाम अरी रसना! अब साँझ भी होने वाली है......                            चित्र, photopin.comसे...

हायकु

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1. जेष्ठ मध्याह्न~ नल पे बैठ काग पीता सलिल 2. रसोईघर~ फूलगोभी के मध्य भुजंग शिशु 3. धान रोपाई~ चहबच्चा में तैरे मृत बालक 4. शरद भोर~ चूनर ओढे़ बालक कन्या पंक्ति में 5. श्वान चीत्कार~ सड़क पे बिखरा रुधिर माँस 6. शरद भोर~ बादलों में निर्मित बिल्ली छवि

अधजली मोमबत्तियां

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 सुबह के नौ या दस बजे होंगे ,पूरी सोसायटी में दीपोत्सव की चहल पहल है ।  पटाखों पर लगे प्रतिबंध के बावजूद भी जगह जगह बिखरे बम-पटाखों के अवशेष साक्ष्य हैं इस बात के कि कितने जोर-शोर से मनाई गयी यहाँ दीपावली । आज सफाई कर्मी भी घर-घर से दीपावली बख्शीश लेते हुए पूरी लगन से ऐसे सफाई में लगे हैं मानो पटाखों के सबूत मिटा रहे हों... स्कूल की छुट्टी के कारण सोसायटी के बच्चे पार्क में धमा-चौकड़ी मचा रहे हैं । कुछ बच्चे ढ़िस्क्यांऊ-ढ़िस्क्यांऊ करते हुये खिलौना गन से पटाखे छुड़ा रहे हैं ,तो कुछ अपने-अपने मन पसंद खेलों में व्यस्त हैं ।  एक ऐसी टोली भी है यहाँ बच्चों की,जो अब अपने को बच्चा नहीं मानते; बारह - तेरह साल के ये बच्चे हर वक्त अपने को बड़ा साबित करने के लिए बेताब रहते हैं । ये सभी बैंच के इर्द-गिर्द अपने अनोखे अंदाज में खड़े होकर बीती रात पटाखों के साथ की गयी कारस्तानियां बारी -बारी से बयां कर रहे हैं ।  जब रोहन ने हाथ का इशारा करते हुए पूरे जोश में बताया कि उसका रॉकेट सामने वाली बिल्डिंग की छत से टकराते - टकराते बचा तो उसके इशारे के साथ ही सबकी नजरें सामने वाली छत तक जाकर वापस...

विधना की लिखी तकदीर बदलते हो तुम....

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 हाँ मैं नादान हूँ मूर्ख भी निपट माना मैंंने अपनी नादानियाँ कुछ और बढ़ा देती हूँ तू जो परवाह कर रही है सदा से मेरी खुद को संकट में कुछ और फंसा लेती हूँ वक्त बेवक्त तेरा साथ ना मिला जो मुझे अपने अश्कों से तेरी दुनिया बहा देती हूँ सबकी परवाह में जब खुद को भूल जाती हूँ अपनी परवाह मेंं तुझको करीब पाती हूँ मेरी फिकर तुझे फिर और क्या चाहना है मुझे तेरी ही ओट पा मैं   मौत से टकराती हूँ मैंंने माना मेरे खातिर खुद से लड़ते हो तुम  विधना की लिखी तकदीर बदलते हो तुम मेरी औकात से बढ़कर ही पाया है मैंंने सबको लगता है जो मेरा, सब देते हो तुम कभी कर्मों के फलस्वरूप जो दुख पाती हूँ जानती हूँ फिर भी तुमसे ही लड़ जाती हूँ तेरे रहमोकरम सब भूल के इक पल भर में तेरे अस्तित्व पर ही    प्रश्न मैं उठाती हूँ मेरी भूले क्षमा कर माँ !  सदा यूँ साथ देते हो मेरी कमजोर सी कश्ती हमेशा आप खेते हो कृपा करना सभी पे यूँ  सदा ही मेरी अम्बे! जगत्जननी कष्टहरणी, सभी के कष्ट हरते हो ।।               चित्र ; साभार गूगल से...

आँधी और शीतल बयार

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आँ धी और शीतल बयार,  आपस में मिले इक रोज। टोकी आँधी बयार को  बोली अपना अस्तित्व तो खोज। तू हमेशा शिथिल सुस्त सी, धीरे-धीरे बहती क्यों...? सबके सुख-दुख की परवाह, सदा तुझे ही रहती क्यों...? फिर भी तेरा अस्तित्व क्या, कौन मानता है तुझको..? अरी पगली ! बहन मेरी ! सीख तो कुछ देख मुझको। मेरे आवेग के भय से, सभी  कैसे भागते हैं। थरथराते भवन ऊँचे, पेड़-पौधे काँपते हैं। जमीं लोहा मानती है , आसमां धूल है चाटे। नहीं दम है किसी में भी, जो आ मेरी राह काटे। एक तू है न रौब तेरा जाने कैसे जी लेती है ? डर बिना क्या मान तेरा क्योंं शीतलता देती है ? शान्तचित्त सब सुनी बयार , फिर हौले से मुस्काई..... मैं सुख देकर सुखी बहना! तुम दुख देकर हो सुख पायी। मैं मन्दगति आनंदप्रद, आत्मशांति से उल्लासित। तुम क्रोधी अति आवेगपूर्ण, कष्टप्रद किन्तु क्षणिक। सुमधुर शीतल छुवन मेरी आनंद भरती सबके मन। सुख पाते मुझ संग सभी परसुख में सुखी मेरा जीवन ।।                           चित्र साभार गूगल से...

पेंशन

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  "माँ आज सुबह-सुबह तैयार हो गई सत्संग है क्या" ?मीना ने पूछा तो सरला बोली; "ना बेटा सत्संग तो नहीं है, वो कल रात जब तुम सब सो गये थे न तब मनीष का फोन आया था मेरे मोबाइल पर । बड़ा पछता रहा था बेचारा, माफी भी मांग रहा था अपनी गलती की" । "अच्छा ! और तूने माफ कर दिया ? मेरी भोली माँ !  जरा सोच ना,  पूरे छः महीने बाद याद आई उसे अपनी गलती । पता नहीं क्या मतलब होगा उसका, मतलबी कहीं का" ! मीना बोली तो सरला ने उसे टोकते हुए कहा, "ऐसा नहीं कहते बेटा !  आखिर वो तेरा छोटा भाई है,   चल छोड़ न, वो कहते हैं न,  'देर आए दुरुस्त आए' अभी भी एहसास हो गया तो काफी है। कह रहा था सुबह तैयार रहना मैं लेने आउंगा"। और तू चली जायेगी माँ ! मीना ने पूछा तो सरला बड़ी खुशी से बोली,  "हाँँ बेटा ! यहाँ रहना मेरी मजबूरी है, ये तेरा सासरा है,आखिर घर तो मेरा वही है न" । मीना ने बड़े प्यार से माँ के कन्धों को दबाते हुए उन्हें सोफे पर बिठाया और पास में बैठकर बोली; माँ ! मैं  तुझे कैसे समझाऊँ कि मैं भी तेरी ही हूँ और ये घर भी"।     तभी फोन की घंटी सुनकर सरला ने ...

मुक्तक-- 'नसीब'

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इधर  सम्भालते  उधर से छूट जाता है, आइना हाथ से फिसल के टूट जाता है, बहुत की कोशिशें सम्भल सकें,हम भी तो कभी, पर ये नसीब तो पल-भर में रूठ जाता है । सहारा ना मिला तो ना सही , उठ बैठे हम , घाव रिसते रहें, ना पा सके कोई मलहम। जमाना ये न समझे, हम गिरे भी राहों में, होंठ भींचे, मुस्कराये पी गये झट सारे गम । कभी रंगती दिखी हमको भी ये तकदीर ऐसे, लगा पतझड़ गयी अब खिल रही बसंत जैसे, चार दिन चाँदनी के फिर अंधेरी रात सी थी, बदा तकदीर में जो अब बदलता भी कैसे ? फिर भी हारे नहीं चलते रहे, चलना ही था, रात लम्बी थी मगर रात को ढ़लना ही था, मिटा तम तो सवेरे सूर्य ज्यों ही जगमगाया, घटा घनघोर छायी सूर्य को छुपना ही था। अंधेरों में ही मापी हमने तो जीवन की राहें, नहीं है भाग्य में तो छोड़ दी यूँ सुख की चाहें, राह कंटक भरी पैरों को ना परवाह इनकी, शूल चुभते रहे भरते नहीं अब दर्दे-आहें ।

सोसाइटी में कोरोना की दस्तक

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  "माफ कीजिएगा इंस्पेक्टर साहब ! आपसे एक रिक्वेस्ट है कृपया आप सोसाइटी के गेट को बन्द न करें और ये पेपर मेरा मतलब 'नोटिस', हाँ इसे भी गेट के बाहर चिपकाने की क्या जरूरत है आप न इसे हमें दे दीजिए हम सभी को वॉर्न कर देंगे, और इसे यहाँ चिपकाते हैं न , ये सोसाइटी ऑफिस के बाहर । यहाँ सही रहेगा ये। आप बेफिक्र रहिए"।  सोसायटी के प्रधान राकेश चौहान ने जब कहा तो इंस्पेक्टर साहब बोले, "चौहान जी मुझे ये नहीं समझ मे नहीं आ रहा कि आप गेट को सील क्यों नहीं करने देना चाहते, आपकी सोसाइटी में इसके अलावा दो गेट और हैं, और इस गेट के पास वाले अपार्टमेंट में कोरोना पॉजीटिव का पेशेंट मिला है , तो ये गेट सबकी सुरक्षा को देखकर बन्द होना चाहिए इसमें आपको क्या परेशानी है ? "परेशानी तो कुछ नहीं सर ! बस सोच रहे हैं इसे हम ही अन्दर से लॉक देंगे सबको बता भी देंगे तो कोई इधर से नहीं आयेगा वो क्या है न सर ! अगर आप बन्द करेंगे तो लोगोंं के मन में इस बिमारी को लेकर भय बैठ जायेगा और आप तो जानते ही हैं, भय से रोग प्रतिरोधक क्षमता भी कम हो सकती है , है न सर" ! "ठीक है चौहान जी आप इस गे...

लघुकथा - नानी दादी के नुस्खे

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आज दादी की तबीयत ठीक नहीं है । अक्कू बेटा मुझे कीचन में कुछ काम है तुम दादी के पास बैठकर इनका ख्याल रखो ! मैं अपने काम निबटाकर अभी आती हूँ।  "हाँ माँ ! मैं यही पर हूँ आप चिंता मत करो, मैं ख्याल रखूंगा दादी का ।  दादी !  मैं हूँ आपके पास, कुछ परेशानी हो तो मुझे बताइयेगा"। कहकर अक्षय अपने मोबाइल में व्यस्त हो गया। थोड़ी देर बाद दादी ने कराहते आवाज दी, "अक्कू! बेटा ! पैरों में तेज दर्द हो रहा है,देख तो चारपाई के नीचे मैंने दर्द निवारक तेल बनाकर शीशी मेंं रखा है , थोड़ा तेल लगा दे बेटा पैरों में, आराम पड़ जायेगा"। "ओह दादी !  तेल लगाने से कुछ नहीं होगा । रुको ! मैं मोबाइल में गूगल पर सर्च करता हूँ , यहाँ 'नानी दादी के नुस्खे'  में बहुत सारे घरेलू उपाय लिखे रहते हैं, उन्हें पढ़कर आपके  पैरों के दर्द को मिटाने का कोई अच्छा सा उपाय देखता हूँ, और वही दवा बनाकर आपके पैरों में लगाउंगा"।  कहकर अक्षय पुनः मोबाइल में व्यस्त हो गया। बेचारी दादी कराहते हुए बोली, "हम्म अपनी दादी नानी तो जायें भाड़ में, गूगल पे दादी नानी के नुस्खे ! हे मेरे राम जी !  क्या जमाना आ ग...

मेरे ऐक्वेरियम की वो नन्हींं फिश...

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  मेरे ऐक्वेरियम की वो नन्हींं फिश देखो जीना हमें है सिखा रही है बंधी फिर भी उन्मुक्त सोच से काँच घर  को समन्दर बना रही मेरे ऐक्वेरियम की वो नन्हींं फिश देखो जीना हमें है सिखा रही जब वो आयी तो थोड़ा उदास थी बहुत प्यारी थी अपने में खास थी जल्द हिलमिल गयी बदले परिवेश में हर हालात मन से अपना रही मेरे ऐक्वेरियम की वो नन्हीं फिश देखो जीना हमें है सिखा रही दाने दाने की जब वो मोहताज है  खुद पे फिर भी उसे इतना नाज है है विधाता की अनुपम सी कृति वो मूल्यांकन स्वयं का सिखा रही मेरे ऐक्वेरियम की वो नन्हींं फिश देखो जीना हमें है सिखा रही।                          चित्र साभार गूगल से...

हरि मेरे बड़े विनोदी हैं

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देखो तो अब आयी महारानी !...क्या कह रही थी जाते समय ..."नहीं यार आज जाने का मन नहीं है तुम दोनों इतने सालों बाद मेरे घर मुझसे मिलने आये हो और मैं चली जाऊं ...नहीं नहीं आज के लिए माफी माँग लूंगी ठाकुर जी से...आज नहीं जा पाउँगी सत्संग में..... हैं न मीना ! यही कह रही थी न ये"(कमला ने चुटकी लेते हुए कहा)। "हाँ सखी! कहा तो यही था और हमने ही इसे जबरदस्ती भेजा इसका दोहरा मन देखते हुए .....। और अब देखो सबके बाद आयी ....अरे लगता है इसे तो याद भी न रहा होगा वहाँ कि हम आये हैं ......हैं न!... दोनों सखियाँ सरला का मजाक बनाते हुए हँसने लगी तो सरला बोली;   "हँसो हँसो खूब हँसो तुम दोनों भी......खूब मजाक उड़ाओ मेरा....... पर मैं भी बता देती हूँ कि मैं भूली नहीं थी तुमको वहाँ भी..... अरे !सच बताऊँ तो आज मन ही नहीं लगा सत्संग में.... बचपन की जिन मस्तियों को याद कर हम तीनों खूब हँसे थे न सुबह से...रह रहकर वही यादें वहाँ भी कुलबुला रही थी मन में"....... "अच्छा तब ही देरी हुई न हमारे पास आने में"...कहकर दोनों सखियां फिर खिल्ली उड़ाई। अरे नहीं सखी ! सुनो तो बताऊं न कि क्यों ...

हायकु

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1. लॉकडाउन बछिया को दबोचे कुत्तों का झुण्ड 2. चैत्र की साँझ~ कुटी द्वार पे वृद्धा बजाए थाली 3. कोरोना रोग~ भू में पड़े रुपये ताकते लोग 4. कोरोना व्याधि~ रुग्ण शिशु लेकर सड़क पे माँ 5. अनलॉक 1~ श्रमिक ने बनाई काँस की कुटी 6. लॉकडाउन~ तरणताल मध्य कूदे बन्दर 7. ज्येष्ठ मध्याह्न~ गुलमोहर छाँव  लेेेटा पथिक 8. समुद्र तट~ हाथ पकड़े बैठे प्रेमी युगल 9. चारणभूमि~ महिषि पीठ पर बैठा बगुला 10. निर्जन पथ~ माँ की गोद में मरा बीमार बच्चा 11. प्रसूति कक्ष~ माता शव के साथ नवजातक 12. सरयू तट~ मास्क पहने सन्त भू-पूजन में 13. पहाड़ी खेत~ पटेला में बालक  को खींचें बैल 14. राष्ट्रीय पर्व~ सड़क पर फेंका तिरंगा मास्क 15. कोरोना काल~ पुष्पपात्र में फैली गिलोय बेल

अनपढ़ माँ की सीख

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                               अभी ही कॉलेज जाना शुरू किया छवि ने। स्कूली अनुशासन से मुक्त उसके तो जैसे पर ही लग गये अपनी ही कल्पनाओं में खोयी रहती । माँ कुछ पूछे तो कहती ; माँ ! आप ठहरी पुराने जमाने की अनपढ़,समझ  नहीं पाओगी। आज माँ ने उसे फोन पर सखियों से कहते सुना कि मुझे मेरे कॉलेज के लड़कों ने दोस्ती के प्रस्ताव भेजें हैं, समझ नहीं आता किसे हाँ कहूँ और किसे ना...। तो माँ को उसकी चिन्ता सताने लगी,कि ऐसे तो ये गलत संगति में फंस जायेगी। पर इसे समझाऊँ भी तो कैसे ?.. बहुत सोच विचार कर माँ ने उसे पार्क चलने को कहा।  वहाँ बरसाती घास व कंटीली झाड़ देखकर छवि बोली;   "माँ! यहाँ तो झाड़ी है, चलो वापस चलते हैं"!    माँ बोली ;  "इतनी भी क्या जल्दी है ? जब आये हैं तो थोड़ा घूम लेते हैं न"। "पर माँ देखो न कँटीली घास"! छवि ने कहा "छोड़ न बेटा ! देख फूल भी तो हैं" कहते हुए माँ उसे लेकर पार्क में घुस गयी थोड़ा आगे जाकर बाहर निकले तो अपने कपड़ों पर काँटे चुभे देखकर छवि  कुढ़़कर बोली "माँ...

'वृद्धाश्रम'-- दूजी पारी जीवन की....

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ऐसी निष्ठुर रीत से उनकी ये प्रथम मुलाकात हुई काटे से ना कटती थी वो ऐसी भयावह रात हुई शब्द चुभे हिय में नश्तर से नयनों से लहू टपकता था पतझड़े पेड़ सा खालीपन मन सूनेपन से उचटता था कष्ट हँसे जब पुष्प चुभोये कण्टक की बरसात हुई काटे से ना कटती थी वो ऐसी भयावह रात हुई फिर पत्थर सा हुआ हृदय आँखों में नीरवता छायी एक असहनीय मजबूरी वृद्धाश्रम तक ले आयी मोह का धागा टूट गया जाने ऐसी क्या बात हुई काटे से ना कटती थी वो ऐसी भयावह रात हुई नये सिरे से शुरू था जीवन नहीं मृत्यु से ही भय था दूजी पारी थी जीवन की दूजा ही ये आश्रय था अपलक स्तब्ध थी आँखें उम्र ढ़ली शुरुआत हुई काटे से ना कटती थी वो ऐसी भयावह रात हुई                 चित्र साभार गूगल से...

पीरियड

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                       "पीरियड ! कौन सा"? राहुल ने जैसे ही कहा लड़कियाँ मुँह में हाथ रखकर हा!..कहते हुए एक दूसरे को देखने लगी,  राहुल-  "अरे!क्या हुआ ? अभी नेहा किस पीरियड की बात कर रही थी"?  रश्मि(गुस्से में )- "शर्म नहीं आती ऐसी बातें करते हुए, अभी मैम को बताते हैं। " सभी लड़कियाँ क्लासटीचर से राहुल की शिकायत करने चली गयी और मैम को सब बताते हुए बोली कि कल भी इसने नेहा के बैग में रखे पैड के बारे में पूछा कि ग्रीन पैकेट में क्या है" ?  क्लासटीचर ने क्रोधित होते हुए राहुल से पूछा तो उसने सहजता से कहा; "जी मैम! मैंने पूछा था इनसे "। "बड़े ढ़ीठ हो तुम! गलती का एहसास तक नहीं, अभी तुम्हारे पैरेंट्स को बताती हूँ", कहकर मैम ने उसके घर फोन किया।  (राहुल अब भी अपनी गलती नहीं समझ पाया ।उसे कक्षा से बाहर खड़ा कर दिया गया)। उधर फोन सुनकर उसके पैरेंट्स सब काम-काज छोड़ हड़बड़ाकर स्कूल पहुँचे।   राहुल की माँ-"मैम!क्या हुआ मेरे बेटे को?वो ठीक तो है न" ? टीचर-"जी!वह तो ठीक है, लेकिन उसकी हरकतें ठीक नहीं हैं, बिगड़ रहा ...

सुहानी भोर

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उदियांचल से सूर्य झांकता, पनिहारिन सह चिड़िया चहकी। कुहकी कोयल डाल-डाल पर, ताल-ताल पर कुमुदिनी महकी। निरभ्र आसमां खिला-खिला सा, ज्यों स्वागत करता हो रवि का। अन्तर्द्वन्द उमड़े भावों से, लिखने को मन आतुर कवि का।। दुहती ग्वालिन दुग्ध गरगर स्वर, चाटती बछड़ा गाय प्यार से। गीली-गीली चूनर उसकी, तर होती बछड़े की लार से। उद्यमशील निरन्तर कर्मठ, भान नहीं उनको इस छवि का। अन्तर्द्वन्द उमड़े भावों से, लिखने को मन आतुर कवि का कहीं हलधर हल लिए काँध पर, बैलों संग खेतों में जाते। सुरभित बयार से महकी दिशाएं, कृषिका का आँचल महकाते। सुसज्जित प्रकृति भोर में देखो, मनमोहती हो जैसे अवि का। अन्तर्द्वन्द उमड़े भावों से, लिखने को मन आतुर कवि का          चित्र, साभार गूगल से...

पावस में इस बार

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 कोरोना काल में लॉकडाउन के समय जब प्रवासी अपने घर गाँवों में वापस पहुँचे तो सूने-उजड़े गाँवों में रौनक आ गई , एक बार पुनः गाँवों में पहले सी चहल-पहल थी,सभी खेत खलिहान आबाद हो गये । उस समय गाँवों की चहल-पहल और रौनक को कविता के माध्यम से दर्शाने का एक प्रयास -- पावस में इस बार गाँवों में बहार आयी बंझर थे जो खेत वर्षों से फिर से फसलें लहरायी हल जो सड़ते थे कोने में वर्षों बाद मिले खेतों से बैल आलसी बैठे थे जो भोर घसाए हल जोतने गाय भैंस रम्भाती आँगन  बछड़े कुदक-फुदकते हैं भेड़ बकरियों को बिगलाते ग्वाले अब घर-गाँव में हैं। शुक्र मनाएं सौंधी माटी हल्या अपने गाँव जो आये कोरोना ने शहर छुड़ाया गाँव हरेला तीज मनाये चहल-पहल है पहले वाली गाँव में रौनक फिर आयी धान रोपायी कहीं गुड़ाई पावस रिमझिम बरखा लायी      बिगलाते=बेगल /पृथक करना /झुण्ड में से अपनी -अपनी भेड़ बकरियाँँ अलग करना घसाए= घास - पानी खिला-पिलाकर तैयार करना हल्या=हलधर, खेतों में हल जोतने वाला कृषक                 चित्र स...

आज मौसम का रुख जब उसे समझ आया

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की जो नादानियाँ तब खुद पे अब तरस आया... आज मौसम का रुख, जब उसे समझ आया तप्त तो था मौसम वो कड़वी दवा पीती रही ... वजह बेवजह ही खुद को सजा देती रही सजा-ए-दर्द सहे मन भी बहुत पछताया आज मौसम का रुख जब उसे समझ आया हाँ! मौसम की ये फितरत ना समझ पाती थी.... उसकी खुशियों के खातिर कुछ भी कर जाती थी उसकी गर्मी और सर्दी में खुद को उलझाया.... आज मौसम का रुख जब उसे समझ आया..... दी सजाएं जो रोग बनके तन में पलती रही... नैन बरसात से बरसे ये उम्र ढ़लती रही...... कुछ सुहाना हुआ मौसम पर न अब रास आया आज मौसम का रुख जब उसे समझ आया। सुख में दुःख में जो न सम्भले वो दिन रीत गये सर्दी गर्मी और बरसात के दिन बीत गये ढ़ल गयी साँझ, देखो अब रात का तमस छाया की जो  नादानियाँ तब खुद पे अब तरस आया। आज मौसम का रुख जब उसे समझ आया...                  चित्र ; साभार पिन्टरेस्ट से

फर्क

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ट्रिंग-ट्रिंग....(डोरबेल की आवाज सुनते ही माधव दरवाजे पर आता है) माधव (बाहर खड़े व्यक्ति से)  - जी ? व्यक्ति--  "मैं बैंक से....आपने लोन अप्लाई किया है" ? माधव--"जी , जी सर जी! आइए प्लीज"! ( उन्हें आदर सहित अन्दर लाकर सोफे की तरफ इशारा करते हुए ) "बैठिये सर जी!प्लीज बैठिये ...आराम से" .... "श्रीमती जी!... देखिये सर जी आये हैं, जल्दी से चाय-नाश्ते की व्यवस्था करो ! पहले पानी, ठण्डा वगैरह लाओ!" बैंक कर्मचारी- नहीं नहीं इसकी जरूरत नहीं ,आप लोग कष्ट न करें ,धन्यवाद आपका। माधव- अरे सर जी! कैसी बातें करते हैं , कष्ट कैसा ? ये तो हम भारतीयों के संस्कार हैं, अतिथि देवो भवः...है न...(बनावटी हँसी के साथ)। (फटाफट मेज कोल्ड ड्रिंक, चाय और नाश्ते से सज जाती है) तभी डोरबेल बजती है ट्रिंग-ट्रिंग.... माधव (दरवाजे पे) -- क्या है बे? कूड़ेवाला- सर जी! बहुत प्यास लगी है थोड़ा पानी ....... माधव- घर से पानी लेकर निकला करो ! अपना गिलास-विलास कुछ है? कूड़ेवाला- नहीं सर जी!गिलास तो नहीं... माधव (अन्दर आते हुए)-  "श्रीमती जी! इसे डिस्पोजल गि...

एक चिट्ठी से कोर्ट मैरिज तक...

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                       चित्र, साभार गूगल से... ऑण्टी! आपका बेटा शिवा रोज मेरे पीछे मेरे स्कूल तक क्यों आता है? जबकि वो तो सरकारी स्कूल में पढ़ता है न,  और आपके पड़ोस में रहने वाली दीदीयाँ शिवा का नाम लेकर मुझे क्यों चिढ़ाती है ? आप शिवा को समझाना न ऑण्टी!  कि उधर से न आया करे। घर पर आयी मम्मी की सहेली से ग्यारह वर्षीय भोली सी सलोनी बोली तो दोनों सखियाँ ओहो! कहकर हँसने लगी...। कुछ दिनों बाद दीपावली के पर्व पर मम्मी ने सलोनी को शिवा के घर मिठाई देने भेजा। सभी बड़ों को अभिवादन कर वह शिवा से बोली"तुमने ऑण्टी की बात मानी और उसके बाद मेरे पीछे नहीं आये इसके लिए थैंक्यू! पंद्रह वर्षीय शिवा भी मुस्कुराते हुए हाथ आगे बढ़ाकर बोला,"फ्रेण्ड्स"? "फ्रेण्ड्स" कहकर सलोनी ने भी अपना हाथ आगे बढाया तो शिवा ने तुरन्त अपनी जेब से फोल्ड किया कागज उसके हाथ में थमाते हुए उसके कान में धीरे से कहा, "पढ़कर इसका जबाब जरूर देना, मैं इंतजार करूंगा"। "क्या है ये" सलोनी ने आश्चर्य से पूछा तो शिवा ने होंठों पर उंगली रखते हुए "श्श्श..." कहकर उसे...

क्षण-भंगुर जीवन

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"सान्ता ! ओ सान्ता ! तूने फिर चक्की खोल दी, अरे!इस महामारी में भी तू अपनी आदत से बाज नहीं आ रही ।कितने सारे लोग गेहूं पिसवाने आ रहे हैं,अगर किसी को बीमारी होगी तो तू तो मरेगी ही अपने साथ मुझे और मेरे बच्चों को भी मारेगी" । "चुप करो जी ! ऐसा कुछ नहीं होगा और देखो मैंने अच्छे से मुँह ढ़का है फिर भी नसीब में अभी मौत होगी तो वैसे भी आ जायेगी । चक्की बन्द कर देंगे तो खायेंगे क्या ? कोरोना से नहीं तो भूख से मर जायेंगे , तुम जाओ जी ! बैठो घर के अन्दर !  मुझे मेरा काम करने दो"! "हाँ ! हाँ ! मत मान मान मेरी मेरी बात । यहीं रह अपनी चक्की में ! तेरा खाना -पीना यहीं भेज दूँगा और हाँ ! सो भी यहीं जाना कहीं कोने में ! मैं तो चला । अपने बच्चों के साथ मजे से जीऊंगा ! तुझे मरना है न , तो मर"!  (बड़बड़ाते हुए अमरजीत वहाँ से चला गया)। (हुँह करके सान्ता भी मुँह घुमाकर अपने काम में व्यस्त हो गयी) दोपहर में बेटी दीपा ने आवाज लगायी "माँ ! बाबूजी !खाना तैयार है जल्दी आ जाओ तो सान्ता बोली "बेटा ! तुम खा लो और अपने बाबूजी को भी खिला देना, मैं बाद में खा लूँगी...

'प्रवासी'

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   मुक्तक---मेरा प्रथम प्रयास                       (1) हमें तो गर्व था खुद पे कि हम भारत के वासी हैं दुखी हैं आज जब जाना यहाँ तो हम प्रवासी हैं सियासत की सुनो जानो तो बस इक वोट भर हैं हम सिवा इसके नहीं कुछ भी बस अंत्यज उपवासी हैं                                  ( 2) महामारी के संकट में आज दर-दर भटकते हैं जो मंजिल थी चुनी खुद ही उसी में अब अटकते हैं मदद के नाम पर नेता सियासी खेल हैं रचते कहीं मोहरे कहीं प्यादे बने हम यूँ लटकते हैं                          (3) सहारे के दिखावे में जो भावुकता दिखाते हैं बड़े दानी बने मिलके जो तस्वीरें खिंचाते हैं सजे से बन्द डिब्बे यों मिले अक्सर हमें खाली किसी की बेबसी पर भी सियासत ही सजाते हैं         चित्र गूगल से साभार....

गीत- मधुप उनको भाने लगा...

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देखो इक भँवरा बागों में आकर मधुर गीत गाने लगा कभी पास आकर कभी दूर जाकर अदाएं दिखाने लगा पेड़ों की डाली पे झूले झुलाये फूलों की खुशबू को वो गुनगुनाए प्रीत के गीत गाकर वो चालाक भँवरा पुष्पों को लुभाने लगा कभी पास आकर कभी दूर जाकर अदाएं दिखाने लगा । नहीं प्रेम उसको वो मकरन्द चाहता इक बार लेकर कभी फिर न आता मासूम गुल को बहकाये ये जालिम स्वयं में फँसाने लगा कभी पास आकर कभी दूर जाकर अदाएं दिखाने लगा । सभी फूल की दिल्लगी ले रहा ये वफा क्या ये जाने नहीं यहाँ आज कल और जाने कहाँ ये सदाएं भी माने नहीं पटे फूल सारे रंगे इसके रंग में मधुप उनको भाने लगा कभी पास आकर कभी दूर जाकर अदाएं दिखाने लगा । ना लौटा जो जाके तो गुल बिलबिलाके राह उसकी तकने लगे विरह पीर सहते , दलपुंज ढ़हते नयन अश्रु बहने लगे दिखी दूजि बगिया खिले फूल पर फिर बेवफा गुनगुनाने लगा । कभी पास आकर कभी दूर जाकर अदाएं दिखाने लगा ।      चित्र साभार गूगल से पढ़िए मानवीकरण पर आधारित एक और गीत              ◆  पुष्प और भ्रमर

गीत-- शीतल से चाँद का क्या होना

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                इस गरम मिजाजी दुनिया में शीतल से चाँद का क्या होना कुछ दिन ही सामना कर पाता फिर लुप्त कहीं छुप छुप रोना जस को तस सीख न पाया वो व्यवहार कटु न सह पाता क्रोध स्वयं पीकर अपना निशदिन ऐसे घटता जाता निर्लिप्त दुखी सा बैठ कहीं प्रभुत्व स्वयं का फिर खोना इस गरम मिजाजी दुनिया में शीतल से चाँद का क्या होना स्वामित्व दिखाने को जग में कड़वा बनना ही पड़ता है सूरज जब ताप उगलता है जग छाँव में तभी दुबकता है अति मीठे गुण में गन्ने सा कोल्हू में निचोड़ा नित जाना इस गरम मिजाजी दुनिया में शीतल से चाँद का क्या होना                          चित्र साभार गूगल से...

सम्भावित डर

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                चित्र गूगल से साभार पति की उलाहना से बचने के लिए सुमन ने ड्राइविंग तो सीख ली,  मगर भीड़ भरी सड़कों पर गाड़ी चलाते हुए उसके हाथ-पाँव फूल जाते।आज बेटी को स्कूल से लाते समय उसे दूर चौराहे पर भीड़ दिखी तो उसने स्पीड स्लो कर दी। "मम्मा ! स्पीड क्यों स्लो कर दी आपने" ? बेटी  झुंझलाकर बोली तो सुमन बोली "बेटा !आगे की भीड़ देखो!वहाँ पहुँचकर क्या करुँगी, मुझे डर लग रहा है, छि!  मेरे बस का नहीं ये ड्राइविंग करना"। "अभी स्पीड ठीक करो मम्मा ! आगे की आगे देखेंगे। ये गाड़ियों के हॉर्न सुन रहे हैं आप? सब हमें ही हॉर्न दे रहे हैं मम्मा ! उसकी झुंझलाहट देखकर सुमन ने थोड़ी स्पीड तो बढ़ा दी पर सोचने लगी, बच्ची है न, आगे तक  नहीं सोचती। अरे ! पहले ही सोचना चाहिए न आगे तक, ताकि किसी मुसीबत में न फँसे । वह सोच ही रही थी कि उसी चौराहे पर पहुँच गयी जहाँ की भीड़ से डरकर उसने स्पीड कम की थी। परन्तु ये क्या! यहाँ तो सड़क एकदम खाली है! कोई भीड़ नहींं ! साथ में बैठी बेटी को अपने में मस्त देखकर वह सोची, चलो ठीक है इसे ध्यान नहीं, कोई ब...

नवगीत--- 'तन्हाई'

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 अद्य को समृद्ध करने हेतु अपने सुख थे त्यागे अब न अपने साथ कोई जो थे अपनी राह भागे स्वस्थ थे सुख ले न पाये , थी कहाँ परवाह तन की। भविष्य के सपने सजाते, ना सुनी यूँ चाह मन की। व्याधियां हँसने लगी हैं, सो रहे दिन रात जागे। अब न अपने साथ कोई, जो थे अपनी राह भागे। आज ऐसे यूँ अकेले, जिन्दगी के दिन हैं कटते । अल्लसुबह से रात बीते, यूँ अतीती पन्ने फटते। जागते से नेत्र बोले, स्वप्न झूठी बात लागे। अब न अपने साथ कोई, जो थे अपनी राह भागे।     चित्र गूगल से साभार

नवगीत : यादें गाँव की

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दशकों पहले शहर आ गये नहीं हुआ फिर गाँव में जाना ऊबड़-खाबड़ सी वो राहें, शान्ति अनंत थी घर-आँगन में। अपनापन था सकल गाँव में, भय नहीं था तब कानन में। यहाँ भीड़ भरी महफिल में, मुश्किल है निर्भय रह पाना। दशकों पहले शहर आ गये, नहीं हुआ फिर गाँव में जाना। मन अशांत यूँ कभी ढूँढ़ता, वही शान्त पर्वत की चोटी। तन्हाई भी पास न आती, सुनती ज्यूँ प्रतिध्वनि वो मोटी। यूँ कश्ती भी भूल गई है, कागज वाली आज ठिकाना। दशकों पहले शहर आ गये, नहीं हुआ फिर गाँव में जाना।

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