सैनिक, संत, किसान (दोहा मुक्तक)

सैनिक रक्षा करते देश की, सैनिक वीर जवान । लड़ते लड़ते देश हित, करते निज बलिदान । ओढ़ तिरंगा ले विदा, जाते अमर शहीद, नमन शहीदों को करे, सारा हिंदुस्तान ।। संत संत समागम कीजिए, मिटे तमस अज्ञान । राह सुगम होंगी सभी, मिले सत्य का ज्ञान । अमल करे उपदेश जो, होगा जीवन धन्य, मिले परम आनंद तब, खिले मनस उद्यान । किसान खून पसीना एक कर , खेती करे किसान । अन्न प्रदाता है वही, देना उसको मान । सहता मौसम मार वह, झेले कष्ट तमाम, उसके श्रम से पल रहा सारा हिंदुस्तान । सैनिक, संत, किसान 1) सीमा पर सैनिक खड़े, खेती करे किसान । संत शिरोमणि से सदा, मिलता सबको ज्ञान। गर्वित इन पर देश है , परहित जिनका ध्येय, वंदनीय हैं सर्वदा, सैनिक संत किसान ।। 2) सैनिक संत किसान से, गर्वित हिंदुस्तान । फर्ज निभाते है सदा, लिये हाथ में जान । रक्षण पोषण धर्म की, सेवा पर तैनात, करते उन्नति देश की, सदा बढ़ाते मान ।। हार्दिक अभिनंदन आपका 🙏 पढ़िए एक और रचना निम्न लिंक पर ● मुक्...
किसी वृद्धाश्रम जाने की नौबत न ही आए तो अच्छा होगा। किस का कल कैसा होगा यह कोई नहीं जानता।
जवाब देंहटाएंसही कहा आपने ये नौबत न आये...फिर भी कुछ बदनसीबों पर आ रही है और दिल पर पत्थर रख घर परिवार का मोह त्यागकर जीवन की दूजी पारी जीने पहुंच रहे हैं वृद्धाश्रम.... और कर भी क्या सकते हैं
हटाएंहार्दिक धन्यवाद एवं आभार सर!
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शनिवार 22 अगस्त 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंसांध्य दैनिक मुखरित मौन के मंच पर मेरी रचना साझा करने हेतु हृदयतल से धन्यवाद एवं आभार सर!
हटाएंबहुत सुंदर रचना।
जवाब देंहटाएंसस्नेह आभार भाई!
हटाएंसुधा दी, वृध्दाश्रम में इंसान कितना मजबूर हो जाता है, उसका दिल कितना रोता है इसका बहुत ही सुंदर वर्णन किया है आपने। काश,किसी भी इंसान को वृद्धाश्रम न जाना पड़े।
जवाब देंहटाएंजी, ज्योति जी!अत्यंत आभार एवं धन्यवाद आपका।
हटाएंअपलक स्तब्ध थी आँखें
जवाब देंहटाएंउम्र ढ़ली शुरुआत हुई
काटे से ना कटती थी वो
ऐसी भयावह रात हुई...
वृद्धावस्था में वृद्धाश्रम में रहने वालों की व्यथा का मर्मस्पर्शी चित्रण । ज्योति जी की बात से सहमत...काश , किसी इन्सान को ऐसे दिन न देखने पड़े ।
जी, मीना जी! हार्दिक धन्यवाद एवं आभार आपका...।
हटाएंनमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा सोमवार (24अगस्त 2020) को 'उत्सव हैं उल्लास जगाते' (चर्चा अंक-3803) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्त्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाए।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
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-रवीन्द्र सिंह यादव
हृदयतल से धन्यवाद आ.रविन्द्र जी!चर्चा मंच पर मेरी रचना साझा करने हेतु...
हटाएंसादर आभार।
सुन्दर मर्मस्पर्शी रचना
जवाब देंहटाएंअत्यंत आभार एवं धन्यवाद आ.ओंकार जी!
हटाएंबहुत ही सुंदर रचना ।
जवाब देंहटाएंहार्दिक धन्यवाद एवं आभार आदरणीय
हटाएंब्लॉग पर आपका स्वागत है।
नये सिरे से शुरू था जीवन
जवाब देंहटाएंनहीं मृत्यु से ही भय था
दूजी पारी थी जीवन की
दूजा ही ये आश्रय था
अपलक स्तब्ध थी आँखें
उम्र ढ़ली शुरुआत हुई
काटे से ना कटती थी वो
ऐसी भयावह रात हुई
एक भयावह सच्चाई ,हृदयस्पर्शी सृजन सुधा जी
तहेदिल से धन्यवाद कामिनी जी!
हटाएंमर्मस्पर्शी रचना
जवाब देंहटाएंअत्यंत आभार सखी!
हटाएंअत्यंत आभार एवं धन्यवाद आ. जोशी जी!
जवाब देंहटाएंजीवन के कठोर सत्य को शब्दों का आवरण ओढ़ के प्रस्तुत कर दिया आपने ... बुढापे का संग्राम बहुत दर्द देता है ... इन्सान असहाय होता है और तन्हाई और अकेलेपन को जीना अभिशाप बन जाता है ...
जवाब देंहटाएंसचाई से रूबरू कराती हुई रचना ...
अत्यंत आभार एवं धन्यवाद नासवा जी!
हटाएंप्रिय सुधा जी , बुढापा जीवन की सबसे दारुण दशा का नाम है | ये सरल और सहज हो सकता है यदि अपनों का साथ रहे पर यदि समय वृद्धाश्रम की कदम मोड़ दे तो उससे दारुण अवस्था कौन सी होगी !एक्लापन और अपनों का तिरस्कार ये समय दूभर बना देते हैं | मन को छूती हुई अत्यंत मार्मिक रचना | ईश्वर करे किसी को वो दिन देखना ना पड़े जिस दिन किसी की सुबह वृद्धाश्रम में हो | भावपूर्ण रचना के लिए सस्नेह शुभकामनाएं|
जवाब देंहटाएंजी,सखी!सही कहा आपने अपनो का तिरस्कार वृद्धावस्था को और भी दूभर बना देता है...अपने प्रियजनों के मुख से कटु शब्द सुनकर वृद्ध वृद्धाश्रम जैसी दूजी पारी जीने को मजबूर हो जाते हैं
जवाब देंहटाएंअनमोल प्रतिक्रिया हेतु हृदयतल से धन्यवाद एवं आभार आपका।