सोमवार, 28 दिसंबर 2020

हाइबन

 

Cheetah

                             【1】

एक विधवा वन से लकड़ियां काटकर उन्हें घर -घर बेचकर अपने परिवार का भरण पोषण करती थी अचानक वन विभाग से लकड़ी काटने पर सख्त मनाही होने से वह जंगल से लकड़ियां नहीं ला पायी तो घर में भुखमरी की नौबत आ गयी उससे ये सब सहा न गया तो वह रात के अंधेरे में जंगल से लकड़ियां चुराने निकल पड़ी, उसने लकड़ियां काटकर गट्ठर तैयार किया और उठाने ही वाली थी कि तभी भयंकर चिंघाड़ सुनकर उसके हाथ पैर ठंडे पड़ गये देखा तो उसके ठीक सामने चीता खड़ा था , काटो तो खून नहीं वाली हालत थी उसकी डर से...बचने का कोई तरीका नहीं सूझ रहा था उसे...अनायास ही उसने दोनो हाथ जोड़ दिये और जैसी थी वैसी ही जड़ हो गयी, उसने बताया चीता उसके और करीब आया इतना करीब कि अब उसे उसका पीछे का हिस्सा ही दिखाई दे रहा था और वह अपलक स्थिर हाथ जोड़े खड़ी थी उसे लगा कि चीते ने उसे सूंघा और क्षण भर बाद वह मुड़ गया और वहां से चला गया। इसी खौफनाक दृश्य पर निर्मित्त् हाइबन ......


लकड़ी गट्ठा~

करबद्ध महिला

चीता सम्मुख



                            【2】

ओशो की जानकारी के अनुसार1937 में तिब्‍बत और चीन के बीच बोकाना पर्वत की एक गुफा में 716 पत्‍थर के रिकार्डर मिले हैं । आज से कोई साढ़े 13 हजार साल पुराने। ये रिकॉर्डर बड़े आश्‍चर्य के हैं, क्‍योंकि ये रिकॉर्डर ठीक वैसे ही हैं, जैसे ग्रामोफोन का रिकॉर्ड होता है। ठीक उसके बीच में एक छेद है और पत्‍थर पर ग्रूव्‍ज है, जैसे कि ग्रामोफोन के रिकॉर्ड पर होते हैं। अब तक यह नहीं पता चला कि ये किस यंत्र पर बजाए जा सकेंगे।

रूस के एक बड़े वैज्ञानिक डॉ. सर्जीएव ने वर्षों तक मेहनत करके यह प्रमाणित तो कर दिया है कि वे रिकॉर्ड ही हैं। बस यह तय नहीं हो पाया कि किस यंत्र पर और किस सुई के माध्‍यम से ये पुनर्जीवित हो सकेंगे, अगर ये एकाध पत्‍थर का टुकड़े होते तो हम इन्हें सांयोगिक भी मान सकते थे, पर ये पूरे 716 हैं। और सब एक जैसे, जिनमें बीच में छेद हैं। सब पर ग्रूव्‍ज है और इनकी पूरी तरह साफ-सफाई करने के बाद जब विद्युत यंत्रों से परीक्षण किया गया तो बड़ी हैरानी हुई कि उनसे प्रतिपल विद्युत की किरणें विकिरणित हो रही हैं। लेकिन आज से 13 हजार साल पहले भी क्या ऐसी कोई व्‍यवस्‍था थी कि वह पत्‍थरों में कुछ रिकॉर्ड कर सके , हैरानी की बात है। पत्थर के इन रिकॉर्डर पर निर्मित हाइबन-----

बोकाना गिरी~

शिला के रिकॉर्डर

कंदरा मध्य।


 

            चित्र, साभार गूगल से....


सोमवार, 21 दिसंबर 2020

जन्म 'एक और गरीब का'



                                                               

 
खिल ही जाते हैं गरीब की बगिया में भी

मौसमानकूल कुछ फूल चाहे अनचाहे,

सिसकते सुबकते कुछ अलसाये से ।

जिनके स्पर्श से जाग उठती है ,

उनकी अभावग्रस्त मरियल सी आत्मा ।

आशा की बुझती चिनगारी को

फूँकनी से फूँक मार-मारकर,

जलाते हैं हिम्मत की लौ ।

पीठ पर चिपके पेट और कंकाल सी देह को

उठाकर धोती के चिथड़े से कमर कसकर

सींचने लगते हैं ये अपनी बगिया ।

सिसकियाँ फिर किलकारियों में बदलती हैं !

और मुस्कराने लगती है इनकी कुटिया !             

फिर इन्हीं का सहारा लिए  बढने लगती है   

इनकी भी वंशबेल।


हर माँ-बाप की तरह ये भी बुनते हैंं,

चन्द रंगीन सपने !

और फिर अपनी औकात से बढ़कर,

केंचुए सा खिंचकर तैयार करते हैं,

अपने नौनिहाल के सुनहरे भविष्य का बस्ता !

उसे शिक्षित और स्वावलंबी बनाने हेतु

भेजते हैं अपनी ही तरह 

घिसते-पिटते सरकारी विद्यालय में !

 

बड़ा होता बच्चा मास्टर जी के 

सवालों के जबाब ढूँढ़ता है,

अपने जन्मदाता की खाँसती उखड़ती साँसों में !

बचपन का चोला, किताबों भरे बस्ते में 

लपेटकर झाड़ी में छुपा, 

समझदारी का लिबास ओढ़े

समय से पहले सयाना बनकर 

ढ़ूँढ़ता है रास्ता जनरल स्टोर जैसी दुकानों का,

और बन जाता है विद्यार्थी से डिलीवरी ब्वॉय 

ताकि अपने बीमार, लाचार जन्मदाता के 

काँपते जर्जर कन्धों का बोझ 

कुछ हल्का कर सके !


ऐसा नहीं कि वो उन्नति नहीं करता,

करता है न,

डिलीवरी ब्वॉय के छोटे-मोटे आइटम 

उठाना छोड़  बड़े-बड़े भंडारगृहों में 

भारी-भारी अनाज की बोरियों से लेकर

 रेलवे स्टेशनों में अमीरों के 

भारी-भरकम सूटकेसों तक ।

ये अपने बड़े होकर उन्नति करने का 

पर्याप्त प्रमाण देता है ।

जिन्दगी अपनी रफ्तार से आगे खिसकती है,

और ये सारा दिन बोझ तले दबी 

टेढ़ी हुई कमर को जबरन सीधा कर 

पानी के छीटों से चेहरे की थकान और बेबसी 

को धो-पोंछकर खुशी के मुखोटे पे 

बड़ी सी मुस्कराहट सजा हर साँझ पहुँचता है ,

सिटी हॉस्पिटल जिन्दगी और मौत से लड़ते 

अपने जन्मदाता से मिलने ।

जहाँ जीवन भर की भुखमरी, रक्ताल्पता और 

कुपोषण के चलते असाध्य से बन बैठे हैंं 

उनके लिए साधारण से क्षयरोग या कुछ और भी ।


अपने लल्लन को देख चमक उठती हैं                  

बुझी-बुझी आँखें हर साँझ !                                

और फिर एक दिन पड़ौसी मरीज से सुनते है कि,   

"बड़ा समझदार लागे थारा लल्ला!                           

म्हारी छोरी संग ब्याह लो इने ! चैन से मर पावेंगे तब"


बस अपनी जिम्मेदारी को प्रणयबंधन में बाँध              

जीने की वजह देकर 

उखड़ती साँसों से मुक्त होती है 

इधर एक जर्जर देह !                   

और उधर फिर खिलता है एक और                      

अलसाया सा पुष्प गरीब की बगिया में

अपने इतिहास को दोहराने हेतु                            

फिर-फिर होता है                                                  

जन्म 'एक और गरीब का '   ।।     


         चित्र , साभार pixabay से.


पढिए ऐसे ही भावों के मंथन पर आधारित एक और सृजन

 ●   विचार मंथन









गुरुवार, 17 दिसंबर 2020

दर्द होंठों में दबाकर....

old man feet ;full of dust ;

उम्र भर संघर्ष करके

रोटियाँ अब कुछ कमाई

झोपड़ी मे खाट ताने

नींद नैनों जब समायी

नींद उचटी स्वप्न भय से

क्षीण काया जब बिलखती

दर्द होठों में दबाकर

भींच मुट्ठी रूह तड़पती...


शिथिल देह सूखा गला जब

घूँट जल को है तरसता

हस्त कंपित जब उठा वो

सामने मटका भी हँसता

ब्याधियाँ तन बैठकर फिर

आज बिस्तर हैं पकड़ती

दर्द होंठों में दबाकर

भींच मुट्ठी रुह तड़पती


ये मिला संघर्ष करके

मौत ताने मारती है

असह्य सी इस पीर से

अब जिन्दगी भी हारती है

खत्म होती देख लिप्सा

रोटियाँ भी हैं सुबकती

दर्द होंठों में दबाकर

भींच मुट्ठी रुह तड़पती



                          चित्र साभार गूगल से....



ऐसे ही एक और रचना वृद्धावस्था पर

 "वृद्धावस्था  "








मंगलवार, 8 दिसंबर 2020

अपनों को परखकर....



men walking on a lonely road ;blur memory


 अपनों को परखकर यूँ परायापन दिखाते हो 

पराए बन वो जाते हैं तो आंसू फिर बहाते हो

न झुकते हो न रुकते क्यों बातें तुम बनाते हो 

उन्हें नीचा दिखाने को खुद इतना गिर क्यों जाते हो

पराये बन वो जाते हैं तो आँसू फिर बहाते हो


अपनों को परखकर......


मिले रिश्ते जो किस्मत से निभाना है धरम अपना

जीत लो प्रेम से मन को यही सच्चा करम अपना

तुम्हारे साथ में वो हैं तो हक अपना जताते हो

पराये बन वो जाते हैं तो आँसू फिर बहाते हो।


अपनों को परखकर ......


कोई रिश्ता जुड़ा तुमसे निभालो आखिरी दम तक

सुन लो उसके भी मन की, सुना लो नाक में दम तक

बातें घर की बाहर कर, तमाशा क्यों बनाते हो

पराये बन वो जाते हैं तो आँसू फिर बहाते हो


अपनों को परखकर......


ये घर की है तुम्हारी जो, उसे घर में ही रहने दो

कमी दूजे की ढूँढ़े हो, कमी अपनी भी देखो तो

बही थी प्रेम गंगा जो, उसे अब क्यों सुखाते हो

पराये बन वो जाते हैं तो आँसू फिर बहाते हो


अपनों को परखकर....


चले घर त्याग करके जो, तो जाने दो न रोको तुम

जहाँ खुश हैं रहें जाकर, न जाके उनको टोको तुम

क्यों जाने वालों को घर की राह फिर फिर दिखाते हो

पराये बन वो जाते हैं तो आँसू फिर बहाते हो


 अपनों को परखकर....


            चित्र साभार गूगल से...

बुधवार, 2 दिसंबर 2020

कभी ले हरी नाम अरी रसना!

Lord Krishna

फूटे घट सा है ये जीवन

भरते-भरते भी खाली है

कभी ले हरि नाम अरी रसना !

अब साँझ भी होने वाली है.....


जब से हुई भोर और आँख खुली

जीवन, घट भरते ही बीता

कितना भी किया सब गर्द गया

खुद को पाया रीता-रीता


धन-दौलत जो भी कमाई है

सब यहीं छूटने वाली है।

कभी ले हरी नाम अरी रसना!

अब साँझ भी होने वाली है......


इस नश्वर जग में नश्वर सब

रिश्ते-नाते भी मतलब के

दिन-रैन जिया सब देख लिया

अन्तर्मन को अब तो मथ ले....


मुरलीधर माधव नैन बसा

छवि जिनकी बहुत निराली है

कभी ले हरी नाम अरी रसना!

अब साँझ भी होने वाली है......



                           चित्र, photopin.comसे...




मंगलवार, 24 नवंबर 2020

हायकु

crow drinking water from tap

1.

जेष्ठ मध्याह्न~

नल पे बैठ काग

पीता सलिल


2.

रसोईघर~

फूलगोभी के मध्य

भुजंग शिशु


3.

धान रोपाई~

चहबच्चा में तैरे

मृत बालक

4.

शरद भोर~

चूनर ओढे़ बालक

कन्या पंक्ति में


5.

श्वान चीत्कार~

सड़क पे बिखरा

रुधिर माँस


6.

शरद भोर~

बादलों में निर्मित

बिल्ली छवि







बुधवार, 18 नवंबर 2020

अधजली मोमबत्तियां

Candle

 सुबह के नौ या दस बजे होंगे ,पूरी सोसायटी में दीपोत्सव की चहल पहल है ।  पटाखों पर लगे प्रतिबंध के बावजूद भी जगह जगह बिखरे बम-पटाखों के अवशेष साक्ष्य हैं इस बात के कि कितने जोर-शोर से मनाई गयी यहाँ दीपावली । आज सफाई कर्मी भी घर-घर से दीपावली बख्शीश लेते हुए पूरी लगन से ऐसे सफाई में लगे हैं मानो पटाखों के सबूत मिटा रहे हों...

स्कूल की छुट्टी के कारण सोसायटी के बच्चे पार्क में धमा-चौकड़ी मचा रहे हैं । कुछ बच्चे ढ़िस्क्यांऊ-ढ़िस्क्यांऊ करते हुये खिलौना गन से पटाखे छुड़ा रहे हैं ,तो कुछ अपने-अपने मन पसंद खेलों में व्यस्त हैं ।

 एक ऐसी टोली भी है यहाँ बच्चों की,जो अब अपने को बच्चा नहीं मानते; बारह - तेरह साल के ये बच्चे हर वक्त अपने को बड़ा साबित करने के लिए बेताब रहते हैं । ये सभी बैंच के इर्द-गिर्द अपने अनोखे अंदाज में खड़े होकर बीती रात पटाखों के साथ की गयी कारस्तानियां बारी -बारी से बयां कर रहे हैं ।

 जब रोहन ने हाथ का इशारा करते हुए पूरे जोश में बताया कि उसका रॉकेट सामने वाली बिल्डिंग की छत से टकराते - टकराते बचा तो उसके इशारे के साथ ही सबकी नजरें सामने वाली छत तक जाकर वापस आई , परन्तु मन्टू की नजर  वहीं कहीं अटक गयी, सबका ध्यान अपनी तरफ खींचने के भरसक प्रयास के साथ मन्टू बोला ; “देखो दोस्तों ! वहाँ उस छत पर कोई है!” पहले तो सबने लापरवाही से लिया ,परन्तु मन्टू के जोर देने पर सभी सतर्क ही नहीं हुए बल्कि पूरे जासूस बनकर जासूसी में जुट गये।

थोड़ी ही देर में बच्चों की इस पूरी टोली ने एकदम पुलिसिया अंदाज में एक लड़की को सोसायटी के सेक्रेटरी (एम एस चौहान) के सामने पेश किया । बड़े ही जोश के साथ विक्की बोला ; “अंकल ! ये लड़की चोर है, हम इसे सामने वाली बिल्डिंग की छत से पकड़कर लाये हैं ! ना जाने क्या-क्या भर रही थी वहाँ से अपने झोले में.......हमें देखकर भागने ही वाली थी ,पर हम सबने इसे घेर कर पकड़ लिया"।  सबने बड़े गर्व से हामी भरी ।

सिर पर लाल रिबन से बंधी दो चोटी ,साँवली सी शक्ल सूरत,मैली-कुचैली सी फ्रॉक पहने ये बच्ची सोसायटी की तो नहीं लग रही । फिर ये है कौन? यहाँ क्या कर रही है?कहीं सचमुच.........(सोचकर सेक्रेटरी जी का भी माथा ठनक गया) ।

कड़क आवाज में लड़की से बोले;”कौन हो तुम ?

यहाँ क्या कर रही हो ?तुम्हारे साथ और कौन है?”

लड़की सुबकते हुए पीछे हटकर दीवार से जा लगी, उसने कन्धे में लटके झोले को हाथ से कसकर खुद पर ऐसे चिपका रखा था जैसे उसमें रखा बेशकीमती सामान कोई छीन न ले....दूसरे हाथ से वह चोटी पर लगा रिबन मुँह में डालकर दाँतों से नोंचने लगी....

तभी आयुष उसे घुड़कते हुये बोला,”ऐ! बता दे वरना सेक्रेटरी अंकल पुलिस बुला देंगे,हाँ !” 

वह सिसकते हुये सेक्रेटरी साहब की तरफ मुड़कर कंपकंपाती आवाज में बोली ; “मैं .....मैं.....मैं कोई चोर नाहिं साहिब....मैं ना की चोरी,साहिब! ये झूठ बोलत हैं...मैं चोरी ना की” कहते हुये वह जोर- जोर से रोने लगी .....

“फिर तुम यहाँ क्या कर रही हो ? किसके साथ आई हो यहाँ”?... पूछने पर उसने डरकर हकलाते हुए बताया कि उसकी माँ यहीं बर्मा साहिब के घर पर काम करती है । सेक्रेटरी साहब के कहने पर रोहन उसकी माँ को बुलाने गया ।खबर पूरी सोसायटी में आग की तरह फैल गयी लोग अपना काम - काज छोड़ सोसायटी ऑफिस में इकट्ठा होकर खुशर-फुशर करने लगे....... 

इधर रोहन ने बर्मा निवास जाकर मिसेज बर्मा को सारा वृतान्त बढ़ा-चढ़ा कर सुनाया तो वे भी सकते में आ गयीं 

लछमी ! ओ लछमी ! ( मिसेज बर्मा ने सख्ती और नाराजगी के साथ कामवाली को आवाज दी तो “जी सेठानी जी !” कहते हुये वह अपनी धोती के पल्लू पर हाथ पौंछती हुई हड़बड़ाकर बाहर आई , रोहन की तरफ इशारा करते हुए मिसेज बर्मा बोली; “रोहन बता रहा है कि तुम्हारी बेटी सोसायटी में चोरी करते हुये पकड़ी गयी!....ये क्या है लछमी ?... तुम्हारी बेटी भी यहाँ आई है तुम्हारे साथ ?.... चोरी ?!....

प्रश्नभरी नजरों से माथे पर सिकन के साथ मिसेज बर्मा ने लछमी से एक साथ कई सवाल कर डाले....

नाहिं, सेठानी जी ! हमरि बिटिया इहाँ नाहिं है। वो तो वहीं हमरे छप्पर पर भाई-बहन सम्भाले है ......

बड़े विश्वास के साथ निश्चिंत होते हुए लछमी ने कहा ।

तभी रोहन की व्यंग मिश्रित हंसी  ने उसे मानो आहत ही कर दिया, दोनों हाथ हिलाते हुए विश्वास दिलाने की कोशिश में माथे पर बल देते हुए वह फिर बोली ; चोर!!! हम गरीब हैं पर चोर नाहिं सेठानी जी !(आत्मसम्मान पर लगी चोट के दर्द से लछमी जैसे अंदर से तिलमिला उठी)

तो रोहन खीझते हुये बोला ; “मैं भी कोई झूठ नहीं बोल रहा ,यकीन नहीं तो आकर देख लो ,वैसे भी सेक्रेटरी अंकल ने बुलाया है “(उसने मिसेज बर्मा की ओर देखते हुए कहा)

लछमी कुछ कहने को थी तभी मिसेज बर्मा अपनी साड़ी वगैरह सुव्यवस्थित करते हुए बोली ; चलो वहीं जाकर देखते हैं ।

जब दोनों सोसायटी ऑफिस पहुंचे तो माँ को सामने देख लड़की रोते हुए माँ की कमर से जा लगी । असमंजस में पड़ी माँ ने अपने पल्लू से उसका सिर ढ़क दिया,कई प्रश्न उसकी आँखों में तैर रहे थे, तिस पर चोरी की बदनामी....वह समझ नहीं पा रही थी कि क्या करे,रोती हुई बेटी को सम्भाले या इस सब के लिए डाँटे-फटकारे ।

आसपास खड़े लोग बातें बनाने लगे, कोई कहता ये छोटे लोग ऐसे ही होते हैं,माँ घर पर काम कर रही है बेटी को चोरी पे लगा दिया ,कोई कुछ ,कोई कुछ । सुनकर लछमी शर्म से गड़ी जा रही थी तभी मिसेज बर्मा पूछी ; लछमी ये तेरी ही बेटी है न ? सचमुच चोरी की है इसने? बता ?....

बड़ी मुश्किल से हिम्मत जुड़ाकर अपने आँसू पोंछते हुए लछमी बोली; "पता नी सेठानी जी ! अभी पूछती हूँ"।

इतने में आयुष लड़की के हाथ से झोला छीनते हुये बोला ; पूछना क्या है देख लो सभी इस झोले में !!....(झोले का सामान जमीन में उलटते हुये )  

ये देखो ! ये रहा चोरी का माल......! 

झोले से जो सामान गिरते ही सब की बोलती बन्द हो गयी, अजीब सी खामोशी पसर गई कुछ पल के लिए वहाँ पर । 

तभी सोसायटी की छोटी सी लड़की बिन्नी अपनी माँ का हाथ हिलाते हुए आँखें सिकोड़कर बड़ी मासूमियत से बोली; “ये क्या!! मोमबत्ती ! अधजली मोमबत्तियों की चोरी ? 

मम्मा!ये भी कोई चोरी होती है?

बिन्नी के ऐसे पूछने पर सब की नजरें पश्चाताप से झुक गयी, बच्चों की वह जासूस टोली भी अब अपना सिर खुजलाते नजर आ रही थी......

फिर भी सभी की आँखों में जिज्ञासा थी,कि आखिर ये लड़की अधजली मोमबत्तियाँ क्यों बटोर रही थी वो भी यहाँ आकर ?

ये सब देखकर लछमी का चेहरा तमतमा उठा, बेटी को अपने से अलग कर जमीन में पड़ा झोला उठाकर झाड़ते हुये वह उसकी तरफ बड़ी-बड़ी आँखें दिखाते हुए दबी 

आवाज में बोली; “काहे की तू ये सब ? बता ?... और ये मोमबत्ती ! काहे ली तू”?...

परेशान होकर लछमी ने अपना माथा ठोक लिया...

लड़की अपनी फ्रॉक के फटे हुये हिस्से को(जो उसने पहले झोले से छिपा रखा था)

अब अपनी मुट्ठी के अन्दर छिपाने की नाकाम कोशिश करते हुए माँ के करीब आकर सिसकते हुए बोली; “हमका माफी दे दो माँ!.....हमका रात को पढ़ना है, बत्ती चाहिए....

सेठानी तो नौ बजे लैट बुझा देवे। मोमबत्ती खरीदी तो तू डाँटी कि खरच बढेगा, 10 रुपै रोज में 300 रुपै खरच महीने का....दिन में भाई-बहिन देखूँ तो पढ़ाई छूट जावे....कल रात सेठानी को छत पर मोमबत्ती जलाते देखी थी मैं .....बार-बार जलायी तो भी तेज हवा से वह बुझती रही , सुबह कचड़े में फैंकी सेठानी तो मैं उठा दी, सोची इहाँ भी होंगी 

तो दौड़कर ला दूँगी .... कहते हुए वह माँ से चिपक कर वह रोने लगी ।माँ की आँखों से भी आँसू बहने लगे......

माँ - बेटी की बात सुनकर सभी बहुत दुखी हुये, पश्चाताप उनके चेहरे से साफ झलक रहा था , और मन में थी असीम सहानुभूति ।

                      

                         चित्र साभार गूगल से....


शनिवार, 24 अक्तूबर 2020

विधना की लिखी तकदीर बदलते हो तुम....


Goddess durga face


 हाँ मैं नादान हूँ मूर्ख भी निपट माना मैंंने

अपनी नादानियाँ कुछ और बढ़ा देती हूँ

तू जो परवाह कर रही है सदा से मेरी

खुद को संकट में कुछ और फंसा लेती हूँ

वक्त बेवक्त तेरा साथ ना मिला जो मुझे

अपने अश्कों से तेरी दुनिया बहा देती हूँ


सबकी परवाह में जब खुद को भूल जाती हूँ

अपनी परवाह मेंं तुझको करीब पाती हूँ

मेरी फिकर तुझे फिर और क्या चाहना है मुझे

तेरी ही ओट पा मैं   मौत से टकराती हूँ


मैंंने माना मेरे खातिर खुद से लड़ते हो तुम 

विधना की लिखी तकदीर बदलते हो तुम

मेरी औकात से बढ़कर ही पाया है मैंंने

सबको लगता है जो मेरा, सब देते हो तुम


कभी कर्मों के फलस्वरूप जो दुख पाती हूँ

जानती हूँ फिर भी तुमसे ही लड़ जाती हूँ

तेरे रहमोकरम सब भूल के इक पल भर में

तेरे अस्तित्व पर ही    प्रश्न मैं उठाती हूँ


मेरी भूले क्षमा कर माँ !  सदा यूँ साथ देते हो

मेरी कमजोर सी कश्ती हमेशा आप खेते हो

कृपा करना सभी पे यूँ  सदा ही मेरी अम्बे!

जगत्जननी कष्टहरणी, सभी के कष्ट हरते हो ।।


              चित्र ; साभार गूगल से...




शनिवार, 17 अक्तूबर 2020

आँधी और शीतल बयार



Sea side; palm trees ;struggling in storm

आँधी और शीतल बयार, 
आपस में मिले इक रोज।
टोकी आँधी बयार को 
बोली अपना अस्तित्व तो खोज।


तू हमेशा शिथिल सुस्त सी,
धीरे-धीरे बहती क्यों...?
सबके सुख-दुख की परवाह,
सदा तुझे ही रहती क्यों...?

फिर भी तेरा अस्तित्व क्या,
कौन मानता है तुझको..?
अरी पगली ! बहन मेरी !
सीख तो कुछ देख मुझको।

मेरे आवेग के भय से,
सभी  कैसे भागते हैं।
थरथराते भवन ऊँचे,
पेड़-पौधे काँपते हैं।

जमीं लोहा मानती है ,
आसमां धूल है चाटे।
नहीं दम है किसी में भी,
जो आ मेरी राह काटे।

एक तू है न रौब तेरा
जाने कैसे जी लेती है ?
डर बिना क्या मान तेरा
क्योंं शीतलता देती है ?

शान्तचित्त सब सुनी बयार ,
फिर हौले से मुस्काई.....
मैं सुख देकर सुखी बहना!
तुम दुख देकर हो सुख पायी।

मैं मन्दगति आनंदप्रद,
आत्मशांति से उल्लासित।
तुम क्रोधी अति आवेगपूर्ण,
कष्टप्रद किन्तु क्षणिक।

सुमधुर शीतल छुवन मेरी
आनंद भरती सबके मन।
सुख पाते मुझ संग सभी
परसुख में सुखी मेरा जीवन ।।

            

             चित्र साभार गूगल से...







सोमवार, 5 अक्तूबर 2020

पेंशन

 

old mother's hand holding her stick

माँ आज सुबह-सुबह तैयार हो गई सत्संग है क्या..?मीना ने पूछा तो सरला बोली; "ना बेटा सत्संग तो नहीं है वो कल रात जब तुम सब सो गये थे न तब मनीष का फोन आया था मेरे मोबाइल पर,   बड़ा पछता रहा था बेचारा, माफी भी मांग रहा था अपनी गलती की...

अच्छा ! और तूने माफ कर दिया ..? मेरी भोली माँ !  जरा सोच ना,  पूरे छः महीने बाद याद आई उसे अपनी  गलती....। पता नहीं क्या मतलब होगा उसका..... मतलबी कहीं का..... मीना बोली तो सरला उसे टोकते हुए बोली, "ऐसा नहीं कहते बेटा !  आखिर वो तेरा छोटा भाई है,   चल छोड़ न,....वो कहते हैं न,  'देर आए दुरुस्त आए'  अभी भी एहसास हो गया तो  काफी है। कह रहा था सुबह तैयार रहना मैं लेने आउंगा"....।

और तू चली जायेगी माँ! मीना ने पूछा तो  सरला बड़ी खुशी से बोली,  "हाँँ बेटा! यहाँ रहना मेरी मजबूरी है ये तेरा सासरा है,आखिर घर तो मेरा वही है न....।

मीना ने बड़े प्यार से माँ के कन्धों को दबाते हुए उन्हें सोफे पर बिठाया और पास में बैठकर बोली; माँ! मैं  तुझे कैसे समझाऊँ कि मैं भी तेरी ही हूँ और ये घर भी.....।

तभी फोन की घंटी सुनकर सरला ने पास में रखे झोले को टटोलकर अपना मोबाइल निकाला और खुश होकर बोली देख न उसी का फोन है, आ गया होगा मुझे लेने.....(फोन उठाते हुए तेजी से बाहर गेट की तरफ गयी)...

मीना भी खिड़की से बाहर झाँकने लगी तभी सरला वापस आकर बोली; "ना बेटा वह मुझे लेने नहीं आ पा रहा है कह रहा था जल्दी में हूँ आकर थोड़ी देर भी ना रुका तो दीदी को अच्छा नहीं लगेगा.....फिर आउंगा फुरसत से।  मुझे ऑटो से आने को कहा है उसने वह स्टॉप पर मुझे लेने आ जायेगा। कहकर सरला अन्दर आलमारी से कुछ पेपर्स निकालने लगी।

"अब तू जाना ही चाहती है तो मैं क्या कहूँ"..... पर माँ ! ये थोड़ी ही देर में ये अपने ऑफिस के लिए निकलेंगे तब तू इन्हीं के साथ चली जाना ये तुझे उधर छोड़ देगें......   मैं बताकर आती हूँ इन्हें" कहकर मीना जाने लगी तो सरला बोली ; "रुक न बेटा! दामाद जी को क्यों परेशान करना...यहींं लोकल ही तो है, मैं ऑटो से चली जाउंगी ।तू इधर आ न...ये देख मेरी पेंशन के कागजात यही हैं न....वह कह रहा था सारे जरूरी कागजात भी लेकर आना" ।

मीना गौर से देखकर बोली;  "हाँ माँ ! यही हैं , पर बाकी सामान मत ले जाना ... मैं ले आउंगी बाद में"....।

"ठीक है जैसी तेरी मर्जी , अब चलती हूँ मनीष इंतज़ार कर रहा होगा"कहकर सरला निकलने लगी तो मीना बोली "माँ! पहुँचकर फोन जरूर करना"....

ठीक है ठीक है कहकर वह चल दी।

ऑटो में बैठे बैठे उसके मन में ना जाने कितने विचार उमड़ने-घुमड़ने लगे...सोचने लगी बहुत याद आयी होगी उसे मेरी, पर कह नहीं पाया होगा बेचारा....मैं भी तो तरस गयी हूँ उसके लिए, आँखें डबडबा गई तो ऑटो से बाहर झाँकने लगी।

छः महीने पहले बहू बेटे द्वारा किये अपमान और बुरे व्यवहार की यादें अब धूमिल हो गयी। 

मन में ममता उमड़ने लगी...सोचने लगी बहू के बहकावे में आकर बोला होगा उसने बुरा........मैंं जानती हूँ अपने बेटे को...वो ऐसा बिल्कुल भी नहीं है, कहने के बाद बहुत पछताया होगा वो....

दूर से अपना स्टॉप दिखाई दिया जैसे-जैसे और आगे बढ़ी तो मनीष स्कूटर में इंतजार करते दिखा तो सोची ओह!  ना जाने कब से खड़ा होगा मेरा लला !...... आखिर छः महीने से दूर है वो अपनी माँ से.......अरे! मरकर तो सभी छोड़ते हैं अपने बच्चों को, पर मैंं ने तो जीते जी अनाथ कर दिया इसे....मैं भी न...... थोड़ा और सह लेती तो क्या चला जाता....बहू भी तो अभी बच्ची ही है न....मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था। 

बस बहुत हुआ रोना धोना और पछताना...कह दूंगी माफ किया तुमको...अब आगे से ध्यान रखना...और उतरते ही सबसे पहले जोर से गले लगाउंगी इसे, और मन भर कर बातें करुंगी.....।

तभी स्टॉप पर ऑटो रुका तो सामने ही मनीष को देखकर आँखे छलछला गयी, सोची कितना दुबला हो गया है मेरा बेटा मेरे बगैर....कितना तड़पा होगा ....कैसी माँ हूँ मैं.....खुद को कोसते हुए नीचे उतरकर प्रेम और ममत्व के वशीभूत भारी कदमों से उसकी तरफ बढ़ी उसे गले लगाने......।

तभी मनीष स्कूटर स्टार्ट करके हेलमेट पहनते हुए बोला; माँ! जल्दी आकर बैठ न स्कूटर में !....  जल्दी !...... कितनी देर कर दी तूने आने में......जल्दी कर वरना बैंक बन्द हो जायेगा । अपने पेंशन के कागजात तो लायी है न..... ?

सुनते ही सरला के मन से भावनाओं का ज्वार एक झटके में उतर गया ,  माथे पर बल और आँखों में प्रश्न लिए वह बिना कुछ कहे उसके पीछे बैठ गयी।

कुछ ही समय में वे बैंक पहुँच गये। स्कूटर पार्क कर मनीष ने बड़ी तत्परता से माँ के झोले से पेपर्स लिए और उसे आने का इशारा कर फटाफट बैंक में घुस गया।

थोड़ी सी कार्यवाही और सरला के दस्तखत के बाद अब पूरे छः महीने की पेंशन उसके हाथ में थी.....।

पैसों को बड़ी सावधानी से अपने पास रखकर सारे पेपर्स वापस माँ के झोले में ठूँसकर माँ का हाथ पकड़े वह वापस स्कूटर के पास आया और  हेलमेट पहनकर उसे बैठने का इशारा कर स्कूटर लेकर वापस उसी स्टॉप की तरफ चल पड़ा।

रास्ते में केले के ठेले पर रुककर उसने एक दर्जन केले खरीदकर माँ को दिये तो वह बोली बेटा ! घर के लिए सिर्फ केले ही नहीं थोड़ी मिठाई भी खरीदेंगे,  उसकी बात को बीच में ही काटते हुए वह बोला ;  "मिठाई क्यों...? कौन खाता है मिठाई आजकल...? बस केले ठीक हैं।   फिर स्कूटर स्टार्ट कर चल दिया।

स्टॉपेज पर पहुँचकर माँ को स्कूटर से उतारकर  वह बोला ; माँ ! अभी मैं कुछ जल्दी में हूँ फिर मिलते हैं।और घुर्रर्रर...  की आवाज और धुआँ छोडते हुए पल भर में आँखों से ओझल हो गया।

कन्धे में टंगा झोला और  हाथ में पॉलीथिन में रखे केले पकड़े वह ठगी सी उस धुएं को देखती रह गयी...।

उसे लगा उसके पैरों के नीचे की जमीन खिसक रही है सर चकराने लगा मन इस सच को जैसे मान ही नहीं रहा था , वह बुदबुदायी ; "तो मीना सच्ची कह रही थी तुझे 'मतलबी' । तू तो सचमुच बहुत ही बड़ा मतलबी निकला रे ! और मैं बावरी सब कुछ भूलकर तुझे..............   गला रुंध गया आँँसू भी अपना सब्र तोड़ चुके थी, 

उसे  सहारे की जरूरत थी ,एक हाथ फैलाकर ऐसे चलने लगी जैसे घुप्प अंधेरे में कुछ सूझ न रहा हो तभी उसने अपने कन्धे पर कोई प्यार भरी छुवन महसूस की मुड़कर देखा तो मीना खड़ी थी, बोली ; माँ तू ठीक तो है न.....।

"हाँ.... हाँ .....मैं ठीक हूँ पर तू !...... पर तू यहाँ कैसे" ? फटाफट आँसू पोंछकर सामान्य होने की कोशिश करते हुए बोली तो मीना ने कहा माँ ! "बताती हूँ माँ! पहले चल तो उधर..... गाड़ी में बैठकर बात करेंगे" सामने गाड़ी में दामाद जी को देखकर वह कुछ सकुचा सी गयी।

मीना ने माँ को गाड़ी में बिठाया और खुद भी बैठते हुए  बोली ;  "माँ हमें इसी बात का शक था इसलिए हम भी तेरे पीछे से आ गये"

क्या कहती अब कहने को कुछ बचा ही कहाँ था उसने  मीना के सिर पर हाथ फेरा और अपनी नजरें झुका ली..... अपने घर की चाह छोड़ वह चल दी फिर बेटी के सासरे........।




 




शुक्रवार, 25 सितंबर 2020

मुक्तक-- 'नसीब'

broken mirror ;broken hopes

इधर  सम्भालते  उधर से छूट जाता है,

आइना हाथ से फिसल के टूट जाता है,

बहुत की कोशिशें सम्भल सकें,हम भी तो कभी,

पर ये नसीब तो पल-भर में रूठ जाता है ।


सहारा ना मिला तो ना सही , उठ बैठे हम ,

घाव रिसते रहें, ना पा सके कोई मलहम।

जमाना ये न समझे, हम गिरे भी राहों में,

होंठ भींचे, मुस्कराये पी गये झट सारे गम ।


कभी रंगती दिखी हमको भी ये तकदीर ऐसे,

लगा पतझड़ गयी अब खिल रही बसंत जैसे,

चार दिन चाँदनी के फिर अंधेरी रात सी थी,

बदा तकदीर में जो अब बदलता भी कैसे ?


फिर भी हारे नहीं चलते रहे, चलना ही था,

रात लम्बी थी मगर रात को ढ़लना ही था,

मिटा तम तो सवेरे सूर्य ज्यों ही जगमगाया,

घटा घनघोर छायी सूर्य को छुपना ही था।


अंधेरों में ही मापी हमने तो जीवन की राहें,

नहीं है भाग्य में तो छोड़ दी यूँ सुख की चाहें,

राह कंटक भरी पैरों को ना परवाह इनकी,

शूल चुभते रहे भरते नहीं अब दर्दे-आहें ।


सोमवार, 14 सितंबर 2020

सोसाइटी में कोरोना की दस्तक

 

Covid 19 fear ; lockdown


माफ कीजिएगा इंस्पेक्टर साहब ! आपसे एक रिक्वेस्ट है कृपया आप सोसाइटी के गेट को बन्द न करें और ये पेपर मेरा मतलब नोटिस....हाँ ...इसे भी गेट के बाहर चिपकाने की क्या जरूरत है  आप न इसे हमें दे दीजिए हम सभी को वॉर्न कर देंगे, और इसे यहाँ चिपकाते हैं न...ये सोसाइटी ऑफिस के बाहर ....यहाँ सही रहेगा ये ....आप बेफिक्र रहिए....सोसायटी के प्रधान राकेश चौहान ने जब कहा तो इंस्पेक्टर साहब बोले; चौहान जी मुझे ये नहीं समझ मे नहीं आ रहा कि आप गेट को सील क्यों नहीं करने देना चाहते.....आपकी सोसाइटी में इसके अलावा दो गेट और हैं और इस गेट के पास वाले अपार्टमेंट में कोरोना पॉजीटिव का पेशेंट मिला है तो ये गेट सबकी सुरक्षा को देखकर बन्द होना चाहिए इसमें आपको क्या परेशानी है?

परेशानी तो कुछ नहीं सर!बस सोच रहे हैं इसे हम ही अन्दर से लॉक देंगे सबको बता भी देंगे तो कोई इधर से नहीं आयेगा वो क्या है न सर! अगर आप बन्द करेंगे तो  लोगोंं के मन में इस बिमारी को लेकर भय बैठ जायेगा और आप तो जानते ही हैं भय से रोग प्रतिरोधक क्षमता भी कम हो सकती है...है न सर !

ठीक है चौहान जी आप इस गेट को कुछ दिन के लिए बन्द कर दीजिए और सोसाइटी में सोशल डिस्टेसिंग और अन्य नियमों का पालन जरूर होना चाहिए, इस तरह सख्त हिदायत देकर इंस्पेक्टर साहब अपनी टीम के साथ चले गये....।

तब साथ में खड़े शर्मा जी बोले; वैसे चौहान जी हम समझे नहीं आप काहे उस पुलिस वाले को गेट बन्द नहीं करने दिए....?

अजी शर्मा जी ! वो क्या है न , आप भी बड़े भोले हैं, अच्छा आप ही बताइए ये कौन सा महीना चल रहा है...? कहते हुए चौहान जी सोसाइटी ऑफिस में जाकर की कुर्सी में पसर गये।

शर्मा जी बोले ; "सावन है जी पर इसमें क्या" ?

आप देखे न शर्मा जी हमारे तीसरे गेट के पास बने मंदिर में आजकल कैसा तांता लगा है श्रद्धालुओं का...          जब सबको पता चलेगा कि हमारी सोसाइटी में भी ये कमबख्त कोरोना दस्तक दे चुका तो .......तब बाहर के लोग हमारी सोसाइटी के मंदिर में क्यों आयेंगे... अब तो समझ ही गये होंगे आप......चौहान जी अपनी भौहें नचाते हुए बोले।

ओह ! बात तो पक्की है चौहान जी मान गये आपको... मंदिर में लोग नहीं तो चढ़ावा भी नहीं... पहले ही लॉकडाउन में मंदिर बन्द रहे....अब जब खुले हैंं तो..........वैसे भी अब कोनों काम ठप्प नहीं तो मंदिर क्यों...है न...।

बगल में कुर्सी खिसकाकर बैठते हुए शर्मा जी बोले और उनके ठहाकों की आवाज से सिक्योरिटी ऑफिस गूँज उठा।









शुक्रवार, 11 सितंबर 2020

लघुकथा---नानी दादी के नुस्खे



Old sick grandmother lying on bed


आज दादी की तबीयत ठीक नहीं है । अक्कू बेटा मुझे कीचन में कुछ काम है तुम दादी के पास बैठकर इनका ख्याल रखो मैं अपने काम निबटाकर अभी आती हूँ।

 "हाँ माँ ! मैं यही पर हूँ आप चिंता मत करो, मैं ख्याल रखूंगा दादी का......   दादी !  मैं हूँ आपके पास। कुछ परेशानी हो तो मुझे बताइयेगा" कहकर अक्षय अपने मोबाइल में व्यस्त हो गया।

थोड़ी देर बाद दादी ने कराहते आवाज दी; "अक्कू! बेटा! पैरों में तेज दर्द हो रहा है,देख तो चारपाई के नीचे मैंने दर्द निवारक तेल बनाकर शीशी मेंं रखा है , थोड़ा तेल लगा दे पैरों में....आराम पड़ जायेगा"।

"ओह दादी !  तेल लगाने से कुछ नहीं होगा । रुको !मैं मोबाइल में गूगल पर सर्च करता हूँ , यहाँ 'नानी दादी के नुस्खे'  में बहुत सारे घरेलू उपाय लिखे रहते हैं, उन्हें पढ़कर आपके  पैरों के दर्द को मिटाने का कोई अच्छा सा उपाय देखता हूँ और वही दवा बनाकर आपके पैरों में लगाउंगा", कहकर अक्षय पुनः मोबाइल में व्यस्त हो गया।

बेचारी दादी कराहते हुए बोली; "हम्म अपनी दादी नानी तो जायें भाड़ में..... गूगल पे दादी नानी के नुस्खे .....हे मेरे राम जी!  क्या जमाना आ गया है"...!

                               चित्र साभार गूगल से....


शनिवार, 5 सितंबर 2020

मेरे ऐक्वेरियम की वो नन्हींं फिश...

 

little golden fish

मेरे ऐक्वेरियम की वो नन्हींं फिश

देखो जीना हमें है सिखा रही

है बंधी फिर भी उन्मुक्त सोच से

काँच घर  को समन्दर बना रही


मेरे ऐक्वेरियम की वो नन्हींं फिश

देखो जीना हमें है सिखा रही


जब वो आयी तो थोड़ा उदास थी

बहुत प्यारी थी अपने में खास थी

जल्द हिलमिल गयी बदले परिवेश में

हर हालात मन से अपना रही


मेरे ऐक्वेरियम की वो नन्हीं फिश

देखो जीना हमें है सिखा रही


दाने दाने की जब वो मोहताज है

 खुद पे फिर भी उसे इतना नाज है

है विधाता की अनुपम सी कृति वो

मूल्यांकन स्वयं का सिखा रही


मेरे ऐक्वेरियम की वो नन्हींं फिश

देखो जीना हमें है सिखा रही।

     

                   चित्र साभार गूगल से...

मंगलवार, 1 सितंबर 2020

हरि मेरे बड़े विनोदी हैं

peacock feather symbolisis lord krishna

देखो तो अब आयी महारानी !...क्या कह रही थी जाते समय ..."नहीं यार आज जाने का मन नहीं है तुम दोनों इतने सालों बाद मेरे घर मुझसे मिलने आये हो और मैं चली जाऊं ...नहीं नहीं आज के लिए माफी माँग लूंगी ठाकुर जी से...आज नहीं जा पाउँगी सत्संग में.....

हैं न मीना ! यही कह रही थी न ये"(कमला ने चुटकी लेते हुए कहा)।

"हाँ सखी! कहा तो यही था और हमने ही इसे जबरदस्ती भेजा इसका दोहरा मन देखते हुए .....।

और अब देखो सबके बाद आयी ....अरे लगता है इसे तो याद भी न रहा होगा वहाँ कि हम आये हैं ......हैं न!...

दोनों सखियाँ सरला का मजाक बनाते हुए हँसने लगी

तो सरला बोली;   "हँसो हँसो खूब हँसो तुम दोनों भी......खूब मजाक उड़ाओ मेरा.......

पर मैं भी बता देती हूँ कि मैं भूली नहीं थी तुमको वहाँ भी.....

अरे !सच बताऊँ तो आज मन ही नहीं लगा सत्संग में....

बचपन की जिन मस्तियों को याद कर हम तीनों खूब हँसे थे न सुबह से...रह रहकर वही यादें वहाँ भी कुलबुला रही थी मन में".......

"अच्छा तब ही देरी हुई न हमारे पास आने में"...कहकर दोनों सखियां फिर खिल्ली उड़ाई।

अरे नहीं सखी ! सुनो तो बताऊं न कि क्यों देरी हुई.. पर तुम तो अपनी ही चलाये जा रही हो...सरला बोली।

"अच्छा! चल बता ...कौन सा बहाना बनायेगी सुनते हैं" कहते हुए एक दूसरे के हाथ पे ताली मारकर दोनों खिलखिलाई।

सरला बोली; "बहाना नहीं सखी, सच कह रही हूँ जब जा रही थी न तो सोचा आज सबसे आखिरी में दरवाजे के पास ही बैठूंगी सत्संग खत्म होते ही सबसे पहले प्रसाद लेकर दौड़ी चली आउंगी ।

सत्संग भवन के बाहर पहुंची तो चप्पलें उतारते हुए ख्याल आया कहीं चप्पलें इधर-उधर न हो जायें, मुझे जल्दी जाना है न, इसलिये सबसे आखिरी मे सबसे हटकर अपनी चप्पलें उतारी ताकि झट से पहन कर आ सकूँ।

और संत्संग में भी कहाँ मन लगा, बचपन की मस्तियाँ जो याद की थी न हमने,  अनायास ही याद आकर होंठों में मुस्कराहट फैला रही थी, तभी ध्यान आता सत्संग में हूँ तो मन ही मन माफी माँग रही थी ठाकुर जी से...

संत्संग खत्म होते ही अपनी बारी का इंतज़ार किये बिना ही झपटकर प्रसाद लिया और बाहर की तरफ भागी।

चप्पलें पहनने लगी तो देखा एक चप्पल गायब... हड़बड़ाकर चप्पल ढूंढने लगी तो सबकी चप्पलें इधर-उधर कर दी.....

क्या बताऊँ सखी! कुछ लोग ताने मारने लगे तो कुछ आश्चर्य से घूर रहे थे मुझे......।

बहुत कोशिश के बाद भी चप्पल न मिली तो मैं समझ गयी और चुपचाप एक कोने में खड़ी इस ठिठोली का आनंद लेने लगी।

ठिठोली ! कैसी ठिठोली ? दोनों सखियों ने एक साथ पूछा।

तब सरला बोली; "हाँ सखी! ठिठोली नहीं तो और क्या?...जब सब अपनी चप्पलें पहनकर चले गये न, तब मेरी चप्पल पूर्ववत स्थान पर जहाँ मैंने रखी थी वहीं पर वैसे ही नजर आयी...

हैं !!!....पर ये ठिठोली की किसने....?   आश्चर्यचकित होकर दोनों समवेत स्वर में बोली।

भक्ति भाव से आनंदित होते हुए सरला बोली;"मेरे हरि ने....हाँ सखी !  ये ठिठोली मेरे हरि ने की।

आज मुझे तुम्हारे साथ हँसी ठिठोली करते देख  स्वयं सखा भाव में आ गये, और मेरे मन के भावों को समझ स्वयं भी ठिठोली कर बैठे....।

सच सखी ! मेरे हरि बड़े विनोदी हैं"।


शनिवार, 29 अगस्त 2020

हायकु



pink flower

1.

लॉकडाउन

बछिया को दबोचे

कुत्तों का झुण्ड


2.

चैत्र की साँझ~

कुटी द्वार पे वृद्धा

बजाए थाली


3.

कोरोना रोग~

भू में पड़े रुपये

ताकते लोग


4.

कोरोना व्याधि~

रुग्ण शिशु लेकर

सड़क पे माँ


5.

अनलॉक 1~

श्रमिक ने बनाई

काँस की कुटी


6.

लॉकडाउन~

तरणताल मध्य

कूदे बन्दर


7.

ज्येष्ठ मध्याह्न~

गुलमोहर छाँव 

लेेेटा पथिक


8.

समुद्र तट~

हाथ पकड़े बैठे

प्रेमी युगल


9.

चारणभूमि~

महिषि पीठ पर

बैठा बगुला


10.

निर्जन पथ~

माँ की गोद में मरा

बीमार बच्चा


11.

प्रसूति कक्ष~

माता शव के साथ

नवजातक


12.

सरयू तट~

मास्क पहने सन्त

भू-पूजन में


13.

पहाड़ी खेत~

पटेला में बालक 

को खींचें बैल


14.

राष्ट्रीय पर्व~

सड़क पर फेंका

तिरंगा मास्क


15.

कोरोना काल~

पुष्पपात्र में फैली

गिलोय बेल


गुरुवार, 27 अगस्त 2020

अनपढ़ माँ की सीख

     
mother with daugher
                        
अभी ही कॉलेज जाना शुरू किया छवि ने।
स्कूली अनुशासन से मुक्त उसके तो जैसे पर ही लग गये अपनी ही कल्पनाओं में खोयी रहती । माँ कुछ पूछे तो कहती ; माँ ! आप ठहरी पुराने जमाने की अनपढ़,समझ नहीं पाओगी।

आज माँ ने उसे फोन पर सखियों से कहते सुना कि मुझे मेरे कॉलेज के लड़कों ने दोस्ती के प्रस्ताव भेजें हैं, समझ नहीं आता किसे हाँ कहूँ और किसे ना...।

तो माँ को उसकी चिन्ता सताने लगी,कि ऐसे तो ये गलत संगति में फंस जायेगी। पर इसे समझाऊँ भी तो कैसे ?..

बहुत सोच विचार कर माँ ने उसे पार्क चलने को कहा।  वहाँ बरसाती घास व कंटीली झाड़ देखकर छवि बोली;   "माँ! यहाँ तो झाड़ी है, चलो वापस चलते हैं"!  

 माँ बोली ;  "इतनी भी क्या जल्दी है ? जब आये हैं तो थोड़ा घूम लेते हैं न"।

"पर माँ देखो न कँटीली घास"! छवि ने कहा

"छोड़ न बेटा ! देख फूल भी तो हैं" कहते हुए माँ उसे लेकर पार्क में घुस गयी थोड़ा आगे जाकर बाहर निकले तो अपने कपड़ों पर काँटे चुभे देखकर छवि  कुढ़़कर बोली "माँ! देखो,कितने सारे काँटे चुभ गये हैं"।

कोई नहीं झाड़ देंगे। देखना कोई फूल भी चिपका होगा ? (माँ ने चुटकी लेते हुए कहा)

छवि(झुंझलाकर) -   ओह माँ! फूल क्यों चिपकेंगे?सिर्फ काँटे हैं जो निकल भी नहीं रहे। खींचने पर कपड़े खराब कर रहे हैं । सब आपकी वजह से !....मना किया था न मैंने ! अब देखो ! 

तब माँ ने बोली;  "सही कहा बेटा! फूल नहीं चिपकते , उन्हें तो  चुनना पड़ता है। और ये काँटे हैं जो चिपककर छूटते भी नहीं, समय भी खराब करते हैं और कपड़े भी, है न".. (बड़े प्यार से उसकी आँखों में झाँकते हुए फिर बोली) "बेटा! दोस्त भी ऐसे ही होते हैं अच्छे दोस्त सोच समझकर चुनने से मिलते हैं और बुरे इन्हीं काँटों की तरह जबरदस्ती चिपकते हैं।और फिर समय बर्बाद तो करते ही हैं अगर सम्भलें नहीं तो पूरा चरित्र ही खराब कर देते हैं। इसीलिए हमें दोस्ती भी सोच समझ कर करनी चाहिए।

बात छवि की समझ में आ चुकी थी। माँ का मंतव्य और युक्ति देख उसके चेहरे पर मुस्कराहट खिल उठी।

                    

                                       चित्र साभार गूगल से...
















शुक्रवार, 21 अगस्त 2020

'वृद्धाश्रम'-- दूजी पारी जीवन की....



hopeless old couple heading towards oldage home



ऐसी निष्ठुर रीत से उनकी
ये प्रथम मुलाकात हुई
काटे से ना कटती थी वो
ऐसी भयावह रात हुई

शब्द चुभे हिय में नश्तर से
नयनों से लहू टपकता था
पतझड़े पेड़ सा खालीपन
मन सूनेपन से उचटता था
कष्ट हँसे जब पुष्प चुभोये
कण्टक की बरसात हुई
काटे से ना कटती थी वो
ऐसी भयावह रात हुई

फिर पत्थर सा हुआ हृदय
आँखों में नीरवता छायी
एक असहनीय मजबूरी
वृद्धाश्रम तक ले आयी
मोह का धागा टूट गया
जाने ऐसी क्या बात हुई
काटे से ना कटती थी वो
ऐसी भयावह रात हुई

नये सिरे से शुरू था जीवन
नहीं मृत्यु से ही भय था
दूजी पारी थी जीवन की
दूजा ही ये आश्रय था
अपलक स्तब्ध थी आँखें
उम्र ढ़ली शुरुआत हुई
काटे से ना कटती थी वो
ऐसी भयावह रात हुई

                चित्र साभार गूगल से...





शनिवार, 8 अगस्त 2020

पीरियड

                      


techers lesson

"पीरियड ! कौन सा"? राहुल ने जैसे ही कहा लड़कियाँ मुँह में हाथ रखकर हा!..कहते हुए एक दूसरे को देखने लगी, 
राहुल-  "अरे!क्या हुआ ? अभी नेहा किस पीरियड की बात कर रही थी"? 
रश्मि(गुस्से में )- "शर्म नहीं आती ऐसी बातें करते हुए, अभी मैम को बताते हैं। "
सभी लड़कियाँ क्लासटीचर से राहुल की शिकायत करने चली गयी और मैम को सब बताते हुए बोली कि कल भी इसने नेहा के बैग में रखे पैड के बारे में पूछा कि ग्रीन पैकेट में क्या है" ? 
क्लासटीचर ने क्रोधित होते हुए राहुल से पूछा तो उसने सहजता से कहा; "जी मैम! मैंने पूछा था इनसे "।
"बड़े ढ़ीठ हो तुम! गलती का एहसास तक नहीं, अभी तुम्हारे पैरेंट्स को बताती हूँ", कहकर मैम ने उसके घर फोन किया। 
(राहुल अब भी अपनी गलती नहीं समझ पाया ।उसे कक्षा से बाहर खड़ा कर दिया गया)।

उधर फोन सुनकर उसके पैरेंट्स सब काम-काज छोड़ हड़बड़ाकर स्कूल पहुँचे।  
राहुल की माँ-"मैम!क्या हुआ मेरे बेटे को?वो ठीक तो है न" ?
टीचर-"जी!वह तो ठीक है, लेकिन उसकी हरकतें ठीक नहीं हैं, बिगड़ रहा है आजकल । लड़कियों के बैग चैक करता है,उन्हें पीरियड्स के बारे में पूछता है"। 
(टीचर की शिकायत पर राहुल कुछ सकुचा गया)।
राहुल के पापा-  "क्या ये सच है ? राहुल" !
राहुल (धीमें स्वर में) ---"जी,पापा ! पर"..
(जोरदार थप्पड़ की आवाज से पूरी कक्षा गूँज उठी)।
तभी राहुल की माँ ने उसके पापा का हाथ पकड़कर रोकते हुए मैम से निवेदन किया कि उन्हें बेटे से अकेले में बात करने की आज्ञा दें।और राहुल को बरामदे में ले गयी।
थोड़ी ही देर में आकर सब से बोली कि  "इसने नेहा का बैग नोटबुक लेने के लिए उसी के कहने पर खोला।और उसमें ग्रीन पैकेट देखकर पूछा कि इसमें क्या है?... मतलब खाने की कौन सी चीज है"।
"इसने लड़कियों को फुसफुसाते सुना कि पीरियड है, ध्यान रखना! किसी को पता न चले।तो इसने उनसे पूछा कि कौन सा पीरियड? मतलब किस सबजैक्ट का पीरियड"?
"क्योंकि बारह साल का राहुल अभी उस पीरियड्स के बारे में नहीं जानता।जिसे इसी उम्र में लड़कियाँ जान जाती हैं"।
सच जानकर टीचर का सिर पश्चाताप से झुक गया...।

                                 चित्र साभार गूगल से......














गुरुवार, 30 जुलाई 2020

सुहानी भोर


sunrise

उदियांचल से सूर्य झांकता,
पनिहारिन सह चिड़िया चहकी।
कुहकी कोयल डाल-डाल पर,
ताल-ताल पर कुमुदिनी महकी।
निरभ्र आसमां खिला-खिला सा,
ज्यों स्वागत करता हो रवि का।
अन्तर्द्वन्द उमड़े भावों से,
लिखने को मन आतुर कवि का।।

दुहती ग्वालिन दुग्ध गरगर स्वर,
चाटती बछड़ा गाय प्यार से।
गीली-गीली चूनर उसकी,
तर होती बछड़े की लार से।
उद्यमशील निरन्तर कर्मठ,
भान नहीं उनको इस छवि का।
अन्तर्द्वन्द उमड़े भावों से,
लिखने को मन आतुर कवि का

कहीं हलधर हल लिए काँध पर,
बैलों संग खेतों में जाते।
सुरभित बयार से महकी दिशाएं,
कृषिका का आँचल महकाते।
सुसज्जित प्रकृति भोर में देखो,
मनमोहती हो जैसे अवि का।
अन्तर्द्वन्द उमड़े भावों से,
लिखने को मन आतुर कवि का

         चित्र, साभार गूगल से...

शनिवार, 25 जुलाई 2020

पावस में इस बार


 village

पावस में इस बार
गाँवों में बहार आयी
बंझर थे जो खेत वर्षों से
फिर से फसलें लहरायी

हल जो सड़ते थे कोने में
वर्षों बाद मिले खेतों से
बैल आलसी बैठे थे जो
भोर घसाए हल जोतने

गाय भैंस रम्भाती आँगन 
बछड़े कुदक-फुदकते हैं
भेड़ बकरियों को बिगलाते
ग्वाले अब घर-गाँव में हैं।

शुक्र मनाएं सौंधी माटी
हल्या अपने गाँव जो आये
कोरोना ने शहर छुड़ाया
गाँव हरेला तीज मनाये

चहल-पहल है पहले वाली
गाँव में रौनक फिर आयी
धान रोपायी कहीं गुड़ाई
पावस रिमझिम बरखा लायी

    
बिगलाते=बेगल /पृथक करना /झुण्ड में से अपनी -अपनी भेड़ बकरियाँँ अलग करना
घसाए= घास - पानी खिला-पिलाकर तैयार करना
हल्या=हलधर, खेतों में हल जोतने वाला कृषक
   
            चित्र साभार गूगल से...

गुरुवार, 23 जुलाई 2020

आज मौसम का रुख जब उसे समझ आया

summer weather


की जो नादानियाँ तब
खुद पे अब तरस आया...
आज मौसम का रुख,
जब उसे समझ आया

तप्त तो था मौसम
वो कड़वी दवा पीती रही ...
वजह बेवजह ही
खुद को सजा देती रही
सजा-ए-दर्द सहे मन
भी बहुत पछताया
आज मौसम का रुख
जब उसे समझ आया

हाँ! मौसम की ये फितरत
ना समझ पाती थी....
उसकी खुशियों के खातिर
कुछ भी कर जाती थी
उसकी गर्मी और सर्दी में
खुद को उलझाया....
आज मौसम का रुख
जब उसे समझ आया.....

दी सजाएं जो रोग बनके
तन में पलती रही...
नैन बरसात से बरसे
ये उम्र ढ़लती रही......
कुछ सुहाना हुआ मौसम
पर न अब रास आया
आज मौसम का रुख
जब उसे समझ आया।

सुख में दुःख में जो न सम्भले
वो दिन रीत गये
सर्दी गर्मी और बरसात के
दिन बीत गये
ढ़ल गयी साँझ, देखो अब
रात का तमस छाया
की जो  नादानियाँ तब
खुद पे अब तरस आया।
आज मौसम का रुख
जब उसे समझ आया...
        
        चित्र ; साभार पिन्टरेस्ट से


शुक्रवार, 10 जुलाई 2020

फर्क

money makes difference


ट्रिंग-ट्रिंग....(डोरबेल की आवाज सुनते ही माधव दरवाजे पर आता है)
माधव (बाहर खड़े व्यक्ति से)  - जी ?

व्यक्ति--  "मैं बैंक से....आपने लोन अप्लाई किया है" ?

माधव--"जी , जी सर जी! आइए प्लीज"! ( उन्हें आदर सहित अन्दर लाकर सोफे की तरफ इशारा करते हुए ) "बैठिये सर जी!प्लीज बैठिये ...आराम से" ....
"श्रीमती जी!... देखिये सर जी आये हैं, जल्दी से चाय-नाश्ते की व्यवस्था करो ! पहले पानी, ठण्डा वगैरह लाओ!"

बैंक कर्मचारी- नहीं नहीं इसकी जरूरत नहीं ,आप लोग कष्ट न करें ,धन्यवाद आपका।

माधव- अरे सर जी! कैसी बातें करते हैं , कष्ट कैसा ? ये तो हम भारतीयों के संस्कार हैं, अतिथि देवो भवः...है न...(बनावटी हँसी के साथ)।

(फटाफट मेज कोल्ड ड्रिंक, चाय और नाश्ते से सज जाती है)

तभी डोरबेल बजती है ट्रिंग-ट्रिंग....

माधव (दरवाजे पे) -- क्या है बे?

कूड़ेवाला- सर जी! बहुत प्यास लगी है थोड़ा पानी .......

माधव- घर से पानी लेकर निकला करो ! अपना गिलास-विलास कुछ है?

कूड़ेवाला- नहीं सर जी!गिलास तो नहीं...

माधव (अन्दर आते हुए)-  "श्रीमती जी! इसे डिस्पोजल गिलास में पानी दे दो...खुद ही उसे फेंक देगा ...दूर से देना...
और हाँ इसने डोरबेल को छुआ उसे सैनीटाइजर से साफ कर दो और उसे साफ-साफ कह दो ऐसे समय में कोई पानी-वानी नहीं मिलेगा अपना पानी लेकर आया करे"!
"इन्हीं दो टके के लोगों की वजह से देश में कोरोना बढ़ता ही जा रहा है.....आ जाते हैं मुँह उठाकर"
( वह बड़बड़ाते हुए अन्दर आता है)

और फिर बड़े आदर भाव से..
"अरे सर जी!आपने कुछ लिया क्यों नहीं"... (नाश्ते की ट्रे बैंक कर्मचारी की ओर बढ़ाते हुए )

तभी उनकी आठ वर्षीय बेटी  सैनीटाइजर की बोतल लेकर बैंक कर्मचारी के पास आती है, और प्रश्न भरे नेत्रों से टुकर-टुकर ताकती है कभी बैंक कर्मचारी को तो कभी बाहर खड़े कूड़ेवाले को....।


               चित्र, साभार गूगल से....





शनिवार, 27 जून 2020

एक चिट्ठी से कोर्ट मैरिज तक...

love story : Form love letters to marriage

                       चित्र, साभार गूगल से...

ऑण्टी! आपका बेटा शिवा रोज मेरे पीछे मेरे स्कूल तक क्यों आता है? जबकि वो तो सरकारी स्कूल में पढ़ता है न,  और आपके पड़ोस में रहने वाली दीदीयाँ शिवा का नाम लेकर मुझे क्यों चिढ़ाती है ?
आप शिवा को समझाना न ऑण्टी!  कि उधर से न आया करे। घर पर आयी मम्मी की सहेली से ग्यारह वर्षीय भोली सी सलोनी बोली तो दोनों सखियाँ ओहो! कहकर हँसने लगी...।

कुछ दिनों बाद दीपावली के पर्व पर मम्मी ने सलोनी को शिवा के घर मिठाई देने भेजा। सभी बड़ों को अभिवादन कर वह शिवा से बोली"तुमने ऑण्टी की बात मानी और उसके बाद मेरे पीछे नहीं आये इसके लिए थैंक्यू!
पंद्रह वर्षीय शिवा भी मुस्कुराते हुए हाथ आगे बढ़ाकर बोला,"फ्रेण्ड्स"?
"फ्रेण्ड्स" कहकर सलोनी ने भी अपना हाथ आगे बढाया तो शिवा ने तुरन्त अपनी जेब से फोल्ड किया कागज उसके हाथ में थमाते हुए उसके कान में धीरे से कहा, "पढ़कर इसका जबाब जरूर देना, मैं इंतजार करूंगा"।
"क्या है ये" सलोनी ने आश्चर्य से पूछा तो शिवा ने होंठों पर उंगली रखते हुए "श्श्श..." कहकर उसे चुप रहने का संकेत किया ।
कागज मुट्ठी में लेकर वह घर आयी और बड़े भोलेपन से सबके सामने ही उसे खोलकर पढ़ने का प्रयत्न करने लगी।
"प्रि य सलोनी तुम मुझे ब हु त अ च छी अच्छी...
ओहो!ये शिवा भी न... पूरा हिन्दी में लिखा है... मैं इतनी मुश्किल हिंदी कैसे पढ़ूँ....भैया से पढाती हूँ"और अपने बड़े भाई दीपक को कागज थमाकर बोली "भैया!  शिवा ने इसका ऑन्सर माँगा है पर ये हिन्दी में है, आप तो जानते हो न मेरी हिन्दी कितनी वीक है ,पढ़कर बताओ न, क्या है इसमें" ?..   कहकर उसके बगल में बैठ गयी ।
दीपक मन ही मन चिट्ठी पढ़ी तो पढते-पढ़ते उसकी भौंहें तन  गयी , चिट्ठी समाप्त कर उसे झिड़कते हुए बोला "सलोनी तू कभी भी शिवा से नहीं मिलेगी ...ठीक है...।

सलोनी बोली, "पर... भैया क्यों ?  आज ही तो हमने दोस्ती की है" ...
सुनते ही दीपक ने अपने बैग से लकड़ी का स्केल निकालकर उस पर दे मारा , क्या है भैया ? ...
मम्म्म्मी!!!.... कहते हुए वह भागकर मम्मी से लिपटकर रोने लगी।  दोनों की शिकायत सुनकर मम्मी बोली, "देख सलोनी दीपक तेरा बड़ा भाई है, तेरा भला चाहता है,तुझे उसका कहना मानना चाहिए"

पर मम्मी मैंने किया क्या है?..... "चुप कर...बड़ों के मुँह नहीं लगते , जा! जाकर सारी तैयारियां देख"!
कहकर मम्मी अपने कामों में व्यस्त हो गयी।

प्रश्नों की झड़ी सी लग गयी सलोनी के बालमन में....क्या लिखा था शिवा ने ऐसा? मुझे क्यों मारा भैया ने?मम्मी ने मेरा पक्ष क्यों नहीं लिया?...तभी बाँह में पड़े चोट के निशान को देखकर सलोनी फफक-फफक कर रोने लगी....अब उसका मन दीपावली की लड़ियों और फुलझड़ियों में भी नहीं लग रहा था।

अगले दिन सलोनी जब ट्यूशन के लिए निकली तो रास्ते मे खड़ा शिवा मुस्कुराते हुए बोला , हे सलोनी!...हाय!....
सलोनी ने उसे देखकर नजरें फेर ली...
ए! क्या हुआ ? ऐसी उखड़ी-उखड़ी सी क्यों है ? और मेरी चिट्ठी का जबाब ?

"ओह! तो तूने चिट्ठी लिखी थी वो"!   वह झल्लाकर बोली, "ये देख ये है उसका जबाब" (अपनी बाँह पर पड़े निशान को दिखाते हुए उसके आँसू छलक पड़े) फिर चिढ़कर बोली, "अब जा भी यहाँ से... भैया ने कहा है अगर मैंने तुझसे बात की तो वे मेरी और पिटाई करेंगे। आँसू पोंछते हुए वहाँ से चली गयी, उसके दर्द से शिवा की भी आँखे नम हो गयी वह वहीं खड़ा न जाने कब तक उसे जाते देखता रहा।

उस दिन के बाद शिवा और सलोनी को कभी किसी ने आपस में बात करते नहीं देखा।

समय अपनी रफ्तार से आगे बढ़ रहा था सलोनी अपनी ग्रेजुएशन पूरी कर चुकी थी तभी घर में उस के रिश्ते की बात चलने लगी तो सभी बड़ों के सामने वह बेझिझक निडर होकर बोली मम्मी! मेरे रिश्ते की फिक्र मत करो , मेरा रिश्ता हो चुका है....सभी के कान खड़े हो गये माथे पर बल डालकर सबने आश्चर्य से एक स्वर में पूछा ,"क्या! ...."हाँ! वो मेरा रिश्ता....वो मेरी शादी हो चुकी है ....मेरा मतलब हम शादी कर चुके हैं" ,(कुछ हकलाते हुए सलोनी बोली तो सबके पैरों तले जमीन खिसक गयी)।
 मम्मी ने पास आकर उसे झिंझोड़ते हुए पूछा "होश में तो है न तू ?....जानती भी है क्या कह रही है ?... किससे हो गयी तेरी शादी?...ये कैसा मजाक है"?....(फिर दोनों हाथों से उसका सिर सहलाते हुए) क्या हुआ बेटा ! गुस्सा है क्या? पापा और भैया के सामने ये कैसी बातें कर रही है"?...

सलोनी--"नहीं मम्मी! गुस्सा नहीं हूँ, यही सच है जिसे सोच-समझकर पूरे होश में आप सभी को बता रही हूँ कि मैं और शिवा शादी कर चुके हैंं" ..।

"शिवा! वही न...बंगाली ऑण्टी का बेटा"! दीपक ने पूछा, .....

हाँ भैया ! वही शिवा जिसकी चिट्ठी पढ़कर आपने मुझे तब मारा था जब मैं ये सब कुछ जानती भी नहीं थी, काश आपने मुझे प्यार से ये सब समझाया होता, काश मम्मी ने आपका पक्ष न लेकर मेरे मन में उठने वाले प्रश्नों को शान्त किया होता, तो आज मुझे आप सभी से छिपाकर ये कदम नहीं उठाना पड़ता।

तभी गरजती आवाज में पापा बोले, "शादी कोई बच्चों का खेल नहीं बेटा! और तुम्हारा ये खेल हमें स्वीकार नहीं, खत्म करो इसे और सब शान्त होकर अपना-अपना काम करो!जाओ यहाँ से "।

सलोनी--"नहीं पापा हमने कोई खेल नहीं खेला है, कोर्ट मैरिज की है हमने, वह भी आज नहीं पूरे सात महीने पहले हम कोर्ट में शादी कर चुके हैं , आप सब से छुपाकर क्योंकि छः महीने तक आप इस शादी को कैंसिल करवा सकते थे,पर अब नहीं , अब मैं और शिवा कानूनन पति-पत्नी हैं।

ढ़ीठ कहीं की! पापा से ऐसे बात करती है, गुस्साया दीपक चीखते हुए उसे मारने को झपटा ।

पापा ने उसे रोका और  क्रोधित होकर कहा, "शादी हो चुकी तो यहाँ क्या कर रही हो, निकलो यहाँ से .....यहाँ रहने की जरूरत नहीं है तुम्हें"!.....

"ठीक है पापा चली जाती हूँ" कहते हुए सलोनी ने दरवाजा खोला तो बाहर शिवा खड़ा था, सलोनी का हाथ पकड़कर अन्दर लाते हुए बोला ,"यूँ रूठकर नहीं बड़ों का आशीर्वाद लेकर विदा लेते हैं", कहते हुए पापा के चरणस्पर्श के लिए झुका तो वे दो कदम पीछे हटते हुए बोले, "जाओगे कहाँ? तुम्हारे मम्मी-पापा भी तुम्हें स्वीकार नहीं करेंगे" ।

तभी शिवा के मम्मी-पापा भी अन्दर आते हुए बोले हमने तो कब का स्वीकार कर लिया समधी जी !अपनी बहू को भी और आपको भी....अब तो हम स्वागत के लिए आये हैं...स्वीकार क्यों न करते इन बच्चों के पवित्र प्रेम को..... जिन्होंने बचपन से अपनी सीमा में रहकर प्रेम किया और और अब विधिवत शादी के पवित्र बंधन में बँध गये...

हम जानते हैं आप गढ़वाली ब्राह्मण हैं तो हम भी बंगाली ब्राह्मण हैं समधीजी! इसलिए क्रोध और शंका छोड़कर बच्चों को अपना आशीर्वाद दीजिए
निमंत्रण पत्र  मेज में रखते हुए हाथ जोड़कर बोले
आज शाम को छोटी सी पार्टी का ये प्रथम निमंत्रण आप ही के लिए लाया हूँ आइएगा जरूर... बच्चों को आपके आशीर्वाद की जरूरत है.. हम इंतजार करेंगे।

चलो बहू अपने घर चलो! कहकर बाहर निकले तो
शिवा के दोस्त बैण्डबाजों के साथ पूरी बारात लिए खड़े थे। सारी कॉलोनी आश्चर्य मिश्रित खुशी के साथ बारात में शामिल हुई ।

इधर सलोनी के पिता को दिल का दौरा पड़ गया , भाई उन्हें लेकर अस्पताल पहुंचा, तो शिवा भी अस्पताल में ही मिला, सलोनी और शिवा ने पार्टी छोड़कर अस्पताल में पापा की खूब सेवा की...जब पापा होश में आये तो सलोनी और शिवा को सामने देखा, उन्हें पास बुलाकर उनके सिर में हाथ फेरकर आशीर्वाद दिया। अंततः गढवाली और बंगाली परिवार आपस मे रिश्तेदार बन गये।










शनिवार, 20 जून 2020

क्षण-भंगुर जीवन


cotton


"सान्ता ! ओ सान्ता ! तूने फिर चक्की खोल दी, अरे!इस महामारी में भी तू अपनी आदत से बाज नहीं आ रही ।कितने सारे लोग गेहूं पिसवाने आ रहे हैं,अगर किसी को बीमारी होगी तो तू तो मरेगी ही अपने साथ मुझे और मेरे बच्चों को भी मारेगी" ।

"चुप करो जी ! ऐसा कुछ नहीं होगा और देखो मैंने अच्छे से मुँह ढ़का है फिर भी नसीब में अभी मौत होगी तो वैसे भी आ जायेगी ।
चक्की बन्द कर देंगे तो खायेंगे क्या ? कोरोना से नहीं तो भूख से मर जायेंगे , तुम जाओ जी ! बैठो घर के अन्दर !  मुझे मेरा काम करने दो"!

"हाँ ! हाँ ! मत मान मान मेरी मेरी बात । यहीं रह अपनी चक्की में ! तेरा खाना -पीना यहीं भेज दूँगा और हाँ ! सो भी यहीं जाना कहीं कोने में ! मैं तो चला । अपने बच्चों के साथ मजे से जीऊंगा ! तुझे मरना है न , तो मर"!  (बड़बड़ाते हुए अमरजीत वहाँ से चला गया)।
(हुँह करके सान्ता भी मुँह घुमाकर अपने काम में व्यस्त हो गयी)

दोपहर में बेटी दीपा ने आवाज लगायी "माँ ! बाबूजी !खाना तैयार है जल्दी आ जाओ तो सान्ता बोली "बेटा ! तुम खा लो और अपने बाबूजी को भी खिला देना, मैं बाद में खा लूँगी" ।
"बाबूजी तो यहाँ नहीं हैं माँ ! "  दीपा बोली,

(कहा नहीं माना तो गुस्से में मुँह फुलाकर बैठे होंगे कहीं सान्ता बड़बड़ायी)     फिर बोली , "ताऊजी के घर होंगे बुला लाओ" !

थोड़ी देर बाद दीपा आयी और बोली, "बाबूजी ताऊजी के घर भी नहीं हैं माँ ! और अड़ोस-पड़ोस में भी पता किया , कहीं नहीं हैं"।

सान्ता चक्की बन्द कर घर आ गयी, हाथ-मुँह धोने बाथरूम का दरवाजा खोलने लगी तो दरवाजा अन्दर से बन्द था ,ओह ! तो ये यहाँ हैं,(सोचकर वहीं खड़े-खड़े इंतजार करने लगी) 

कुछ देर बाद भी दरवाजा न खुला तो आवाज लगायी बच्चे भी आवाज लगाने लगे, शोर सुनकर पड़ोसी भी जमा हो गये, तब भी दरवाजा न खुला तो सबको डर और संदेह होने लगा।

जबरन दरवाजा तोड़ा तो सब हक्के-बक्के रह गये, अमरजीत को फर्श पर लुढ़का देखकर सान्ता के तो पैरों तले जमीन ही खिसक गयी ।

उठाकर कमरे में लाये, कोई हाथ की तो कोई पैर की मालिस करने लगा।
किसी ने फोन करके डॉक्टर बुलाया जाँच से पता चला कि अचानक दिल का दौरा पड़ने से उसकी मृत्यु हो गयी है । पूरे परिवार पर तो दुखों का पहाड़ ही टूट पड़ा ।

कहाँ अमरजीत महामारी से बचने और मजे से जीने की बात कर रहा था और कहाँ ये क्षण- भंगुर जीवन पल भर में समाप्त हो गया।

रविवार, 31 मई 2020

'प्रवासी'

  migrators


मुक्तक---मेरा प्रथम प्रयास
                      (1)
हमें तो गर्व था खुद पे कि हम भारत के वासी हैं
दुखी हैं आज जब जाना यहाँ तो हम प्रवासी हैं
सियासत की सुनो जानो तो बस इक वोट भर हैं हम
सिवा इसके नहीं कुछ भी बस अंत्यज उपवासी हैं
         
                       ( 2)
महामारी के संकट में आज दर-दर भटकते हैं
जो मंजिल थी चुनी खुद ही उसी में अब अटकते हैं
मदद के नाम पर नेता सियासी खेल हैं रचते
कहीं मोहरे कहीं प्यादे बने हम यूँ लटकते हैं

                         (3)
सहारे के दिखावे में जो भावुकता दिखाते हैं
बड़े दानी बने मिलके जो तस्वीरें खिंचाते हैं
सजे से बन्द डिब्बे यों मिले अक्सर हमें खाली
किसी की बेबसी पर भी सियासत ही सजाते हैं

        चित्र गूगल से साभार....

बुधवार, 20 मई 2020

गीत- मधुप उनको भाने लगा...


beautiful flies roaming around flowers




देखो इक भँवरा बागों में आकर
मधुर गीत गाने लगा
कभी पास आकर कभी दूर जाकर
अदाएं दिखाने लगा

पेड़ों की डाली पे झूले झुलाये
फूलों की खुशबू को वो गुनगुनाए
प्रीत के गीत गाकर वो चालाक भँवरा
पुष्पों को लुभाने लगा
कभी पास आकर कभी दूर जाकर
अदाएं दिखाने लगा ।

नहीं प्रेम उसको वो मकरन्द चाहता
इक बार लेकर कभी फिर न आता
मासूम गुल को बहकाये ये जालिम
स्वयं में फँसाने लगा
कभी पास आकर कभी दूर जाकर
अदाएं दिखाने लगा ।

सभी फूल की दिल्लगी ले रहा ये
वफा क्या ये जाने नहीं
यहाँ आज कल और जाने कहाँ ये
सदाएं भी माने नहीं
पटे फूल सारे रंगे इसके रंग में
मधुप उनको भाने लगा
कभी पास आकर कभी दूर जाकर
अदाएं दिखाने लगा ।

ना लौटा जो जाके तो गुल बिलबिलाके
राह उसकी तकने लगे
विरह पीर सहते , दलपुंज ढ़हते
नयन अश्रु बहने लगे
दिखी दूजि बगिया खिले फूल पर फिर
बेवफा गुनगुनाने लगा ।
कभी पास आकर कभी दूर जाकर
अदाएं दिखाने लगा ।


     चित्र साभार गूगल से



पढ़िए मानवीकरण पर आधारित एक और गीत
             ◆ पुष्प और भ्रमर





शुक्रवार, 8 मई 2020

गीत-- शीतल से चाँद का क्या होना



Different phases of moon

               

इस गरम मिजाजी दुनिया में
शीतल से चाँद का क्या होना
कुछ दिन ही सामना कर पाता
फिर लुप्त कहीं छुप छुप रोना

जस को तस सीख न पाया वो
व्यवहार कटु न सह पाता
क्रोध स्वयं पीकर अपना
निशदिन ऐसे घटता जाता
निर्लिप्त दुखी सा बैठ कहीं
प्रभुत्व स्वयं का फिर खोना
इस गरम मिजाजी दुनिया में
शीतल से चाँद का क्या होना

स्वामित्व दिखाने को जग में
कड़वा बनना ही पड़ता है
सूरज जब ताप उगलता है
जग छाँव में तभी दुबकता है
अति मीठे गुण में गन्ने सा
कोल्हू में निचोड़ा नित जाना
इस गरम मिजाजी दुनिया में
शीतल से चाँद का क्या होना
         
               चित्र साभार गूगल से...

सोमवार, 4 मई 2020

सम्भावित डर

               
fear

चित्र गूगल से साभार......

पति की उलाहना से बचने के लिए सुमन ने ड्राइविंग तो सीख ली,  मगर भीड़ भरी सड़कों पर गाड़ी चलाते हुए उसके हाथ-पाँव फूल जाते।आज बेटी को स्कूल से लाते समय उसे दूर चौराहे पर भीड़ दिखी तो उसने स्पीड स्लो कर दी।

"मम्मा ! स्पीड क्यों स्लो कर दी आपने" ? बेटी  झुंझलाकर बोली तो सुमन बोली "बेटा !आगे की भीड़ देखो!वहाँ पहुँचकर क्या करुँगी, मुझे डर लग रहा है, छि!  मेरे बस का नहीं ये ड्राइविंग करना"....

"अभी स्पीड ठीक करो मम्मा! आगे की आगे देखेंगे। ये गाड़ियों के हॉर्न सुन रहे हैं आप? सब हमें ही हॉर्न दे रहे हैं मम्मा !

उसकी झुंझलाहट देखकर सुमन ने थोड़ी स्पीड तो बढ़ा दी पर सोचने लगी, बच्ची है न, आगे तक  नहीं सोचती। अरे ! पहले ही सोचना चाहिए न आगे तक, ताकि किसी मुसीबत में न फँसे ।वह सोच ही रही थी कि उसी चौराहे पर पहुँच गयी जहाँ की भीड़ से डरकर उसने स्पीड कम की थी।

परन्तु ये क्या! यहाँ तो सड़क एकदम खाली है! कोई भीड़ नहींं !

साथ में बैठी बेटी को अपने में मस्त देखकर वह सोची, चलो ठीक है इसे ध्यान नहीं, कोई बड़ा होता तो अभी फिर से टोकता।

तभी उसने भी टोक दिया..."मैंने कहा था न मम्मा ! अब देखो ! कहाँ है भीड़? आप बेकार में डरती हैं और फिर आपको लगता है कि आपसे ड्राइविंग नहीं होगी । आप तो अच्छी ड्राइविंग कर रही हैं! ( मुस्कराते हुए)

"ठीक है दादी माँ!अब नहीं डरूँगी" , कहते हुए वह बुदबुदायी आजकल के बच्चे भी न, एक भी मौका नहीं छोड़ते।

पर वैसे सही तो कहा इसने,आगे की आगे देखेंगे
और आगे देखा तो......
ओह ! ये गलती तो मैं हमेशा करती हूँ  आगे के सम्भावित डर से पहले ही कदम लड़खड़ा कर चली और फिर न जाने कितने हॉर्न (तंज) सहे हैं जीवन में.....।

गाड़ी तो अब सरपट निकल रही थी पर सुमन विचारों के झंझावातों में फंसी सोच रही थी कि---
'दूरदृष्टा होना भी तभी ठीक है जब उचित समय पर उचित निर्णय लेना आये ,नहीं तो संशय और संभावना के मध्य फँसे रह जाते हैं'.....।



















शनिवार, 2 मई 2020

नवगीत--- 'तन्हाई'

loneliness
 अद्य को समृद्ध करने
हेतु अपने सुख थे त्यागे
अब न अपने साथ कोई
जो थे अपनी राह भागे


स्वस्थ थे सुख ले न पाये ,
थी कहाँ परवाह तन की।
भविष्य के सपने सजाते,
ना सुनी यूँ चाह मन की।
व्याधियां हँसने लगी हैं,
सो रहे दिन रात जागे।
अब न अपने साथ कोई,
जो थे अपनी राह भागे।


आज ऐसे यूँ अकेले,
जिन्दगी के दिन हैं कटते ।
अल्लसुबह से रात बीते,
यूँ अतीती पन्ने फटते।
जागते से नेत्र बोले,
स्वप्न झूठी बात लागे।
अब न अपने साथ कोई,
जो थे अपनी राह भागे।

    चित्र गूगल से साभार

सोमवार, 27 अप्रैल 2020

नवगीत: यादें गाँव की

Beautiful memories of village


दशकों पहले शहर आ गये
नहीं हुआ फिर गाँव में जाना

ऊबड़-खाबड़ सी वो राहें,
शान्ति अनंत थी घर-आँगन में।
अपनापन था सकल गाँव में,
भय नहीं था तब कानन में।
यहाँ भीड़ भरी महफिल में,
मुश्किल है निर्भय रह पाना।
दशकों पहले शहर आ गये,
नहीं हुआ फिर गाँव में जाना।

मन अशांत यूँ कभी ढूँढ़ता,
वही शान्त पर्वत की चोटी।
तन्हाई भी पास न आती,
सुनती ज्यूँ प्रतिध्वनि वो मोटी।
यूँ कश्ती भी भूल गई है,
कागज वाली आज ठिकाना।
दशकों पहले शहर आ गये,
नहीं हुआ फिर गाँव में जाना।


रविवार, 26 अप्रैल 2020

'उलझन' किशोरावस्था की



confusions of teenagers
                                                                     


सुनो माँ ! अब तो बात मेरी
और आर करो या पार !
छोटा हूँ तो बचपन सा लाड दो
हूँ बड़ा तो दो अधिकार !

टीवी मोबाइल हो या कम्प्यूटर
मेरे लिए सब लॉक ?
थोड़ी सी गलती कर दूँ तो
सब करते हो ब्लॉक ?

कभी  कहते हो बच्चे नहीं तुम
छोड़ भी दो जिद्द करना !
समझ बूझ कुछ सीखो बड़ों से
बस करो यूं बहस करना !

कभी मुकरते इन बातों से
बड़ा न मुझे समझते
"बच्चे हो बच्चे सा रहो" कह
सख्त हिदायत देते

उलझन में हूँ  समझ न आता !
ऐसे मुझको कुछ नहीं भाता !
बड़ा हो गया या हूँ बच्चा !
क्या मैं निपट अकल का कच्चा ?

पर माँ ! तुम तो सब हो जानती
नटखट लल्ला मुझे मानती ।
फिर अब ऐसे मत रूठो ना
मेरी गलती छुपा भी लो माँ!

माँ मैं आपका  प्यारा बच्चा
जिद्दी हूँ पर मन का सच्चा !


           चित्र साभार गूगल से..  














हो सके तो समभाव रहें

जीवन की धारा के बीचों-बीच बहते चले गये ।  कभी किनारे की चाहना ही न की ।  बतेरे किनारे भाये नजरों को , लुभाए भी मन को ,  पर रुके नहीं कहीं, ब...