एक कली जब खिलने को थी, तब से ही निहारा करता था। दूर कहीं क्षितिज में खड़ा वह प्रेम निभाया करता था । दीवाना सा वह भ्रमर, पुष्प पे जान लुटाया करता था । कली खिली फिर फूल बनी, खुशबू महकी फ़िज़ा में मिली। फ़िज़ा में महकी खुशबू से ही कुछ खुशियाँ चुराया करता था। वह दूर कहीं क्षितिज में खड़ा बस प्रेम निभाया करता था । फूल की सुन्दरता को देख सारे चमन में बहार आयी। आते जाते हर मन को , महक थी इसकी अति भायी। जाने कितनी बुरी नजर से इसको बचाया करता था । दूर कहीं क्षितिज में खड़ा, वह प्रहरी बन जाया करता था । फूल ने समझा प्रेम भ्रमर का, चाहा कि अब वो करीब आये। हाथ मेरा वो थाम ले आकर, प्रीत अमर वो कर जाये। डरता था छूकर बिखर न जाये, बस दिल में बसाया करता था । दीवाना सा वह भ्रमर पुष्प पे जान लुटाया करता था । एक वनमाली हक से आकर, फूल उठा कर चला गया । उसके बहारों भरे चमन में, काँटे बिछाकर चला गया । तब विरही मन यादों के सहारे, जीवन बिताया करता था । दूर वहीं क्षितिज में खड़ा, वह आँसू बहाया करता था । दीवाना था वह भ्रमर पुष्प पे, जान लुटाया करता था....
टिप्पणियाँ
सुंदर वर्णन शरद आगमन के साथ मोहक रूप प्रकृति का।
बहुत बहुत सुंदर।
विहग विराव भली
टपकन तुहिन बिंदु
खुशी की ज्यों लोर है
मनमोहक सृजन ।
आपकी लिखी रचना शुक्रवार २१ अक्टूबर २०२२ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
शशि भी गगन पथ
स्वर्णिम से अंबरांत
छटा हर छोर हैं////
बहुत सुन्दर और मनभावन अभिव्यक्ति प्रिय सुधा जी।मोहक शब्दों में सहजता से उतार कर आपने शरद की भोर को और भी मोहक बना दिया है।हार्दिक बधाई और दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं।♥️♥️🌹🌹