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बीती ताहि बिसार दे

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  स्मृतियों का दामन थामें मन कभी-कभी अतीत के भीषण बियाबान में पहुँच जाता है और भटकने लगता है उसी तकलीफ के साथ जिससे वर्षो पहले उबर भी लिए । ये दुख की यादें कितनी ही देर तक मन में, और ध्यान में उतर कर उन बीतें दुखों के घावों की पपड़ियाँ खुरच -खुरच कर उस दर्द को पुनः ताजा करने लगती हैं।  पता भी नहीं चलता कि यादों के झुरमुट में फंसे हम जाने - अनजाने ही उन दुखों का ध्यान कर रहे हैं जिनसे बड़ी बहादुरी से बहुत पहले निबट भी लिए । कहते हैं जो भी हम ध्यान करते हैं वही हमारे जीवन में घटित होता है और इस तरह हमारी ही नकारात्मक सोच और बीते दुखों का ध्यान करने के कारण हमारे वर्तमान के अच्छे खासे दिन भी फिरने लगते हैं ।  परंतु ये मन आज पर टिकता ही कहाँ है  ! कल से इतना जुड़ा है कि चैन ही नहीं इसे ।   ये 'कल' एक उम्र में आने वाले कल (भविष्य) के सुनहरे सपने लेकर जब युवाओं के ध्यान मे सजता है तो बहुत कुछ करवा जाता है परंतु ढ़लती उम्र के साथ यादों के बहाने बीते कल (अतीत) में जाकर बीते कष्टों और नकारात्मक अनुभवों का आंकलन करने में लग जाता है । फिर खुद ही कई समस्याओं को न्यौता देने...

इधर कुआँ तो उधर खायी है.....

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  अपने देश में तो आजकल चुनाव की लहर सी आयी है। पर ये क्या ! मतादाताओं के चेहरे पर तो गहरी उदासीनता ही छायी है । करें भी क्या, हमेशा से मतदान के बाद जनता देश की बहुत पछतायी है । इस बार जायेंं तो जायें भी कहाँँ इधर कुआँ तो उधर खायी है । चन्द सफलताओं के बाद ही भा.ज.पा में तो जाने कैसी अकड़ सी आयी है । अपने "पी.एम" जी तो बस बाहर ही छपलाये देश को भीतर से तो दीमक खायी है । बेरोजगारी, भुखमरी, गरीबी और मंहगाई में रत्ती भर भी कमी नहीं आयी है । शिशिर  की ठण्ड से ठिठुरकर मरते गरीब जाने कहाँ सरकार ने कम्बल बँटवायी हैं ? इस बार जायें तो जायें भी कहाँ इधर कुआँँ तो उधर खायी है । कॉंग्रेस की जी-तोड़, कमर-कस मेहनत शायद रंग ले भी आयेगी । मुफ्त ये,मुफ्त वो, मुफ्त सो,का लालच देकर शायद बहुमत पा भी जायेगी । जरूरत, लालच,या मजबूरी (जो भी कहो) बेचकर अपने बेसकीमती मत को फिर नये नेता के बचकानेपन पर सारी जनता सिर धुन-धुनकर पछतायेगी । रुको ! देखो !समझो ! परखो ! फिर सही चुनो ! लिखने में मेरी तो लेखनी भी कसमसाई है । हमेशा से यहाँ यूँ ही ठगी गय...

सपने जो आधे-अधूरे

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कुछ सपने जो आधे -अधूरे यत्र-तत्र बिखरे मन में यूँ जाने कब होंगे पूरे .....? मेरे सपने जो आधे -अधूरे            दिन ढ़लने को आया देखो        सांझ सामने आयी.....        सुबह के सपने ने जाने क्यूँ        ली मन में अंगड़ाई...... बोला; भरोसा था तुम पे तुम मुझे करोगे पूरा..... देख हौसला लगा था ऐसा कि छोड़ न दोगे अधूरा....           डूबती आँखें हताशा लिए           फिर वही झूठी दिलाशा लिए           चंद साँसों की आशाओं संग           वह चुप फिर से सोया......           देख दुखी अपने सपने को           मन मेरा फिर-फिर रोया..... सहलाने को प्यार से उसको जो अपना हाथ बढ़ाया.... ढ़ेरों अधूरे सपनों की फिर गर्त में खुद को पाया......          हर पल नित नव मौसम में          सपने जो मन में सजाये....

....रवि शशि दोनों भाई-भाई.......

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स्कूल की छुट्टियां और बच्चों का आपस में लड़ना झगड़ना..... फिर शिकायत.... बड़ों की डाँट - डपट...... पल में एक हो जाना....अगले ही पल रूठना... माँ का उन्हें अलग-अलग करना... तो एक-दूसरे के पास जाने के दसों बहाने ढूँढ़ना.... न मिल पाने पर एक दूसरे के लिए तड़पना....       तब माँ ने सोचा- -- यही सजा है सही, इसी पर कुछ इनको मैं बताऊँ, दोनोंं फिर न लड़ें आपस में,ऐसा कुछ समझाऊँ... दोनोंं को पास बुलाकर बोली.... आओ बच्चों तुम्हें सुनाऊँ एक अजब कहानी, ना कोई था राजा जिसमें ना थी कोई रानी... बच्चे बोले --तो फिर घोड़े हाथी थे...?                  या हम जैसे साथी थे....!! माँ बोली---हाँ ! साथी थे वे तुम जैसे ही                  रोज झगड़ते थे ऐसे ही...... अच्छा!!!... कौन थे वे ?..      .. .."रवि और शशि". .. रवि शशि दोनों भाई-भाई खूब झगड़ते  थे लरिकाई रोज रोज के शिकवे सुनकर तंग आ गयी उनकी माई...... एक कर्मपथ ता पर विपरीत मत झगड़ेंगे यूँ ही तो होगी जगहँसाई ...

वृद्ध होती माँ

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सलवटें चेहरे पे बढती ,मन मेरा सिकुड़ा रही है वृद्ध होती माँ अब मन से बचपने में जा रही हैं। देर रातों जागकर जो घर-बार सब सँवारती थी, *बीणा*आते जाग जाती , नींद को दुत्कारती थी । शिथिल तन बिसरा सा मन है,नींद उनको भा रही है, वृद्ध होती माँ अब मन से बचपने में जा रही हैंं । हौसला रखकर जिन्होंने हर मुसीबत पार कर ली , अपने ही दम पर हमेशा, हम सब की नैया पार कर दी । अब तो छोटी मुश्किलों से वे बहुत घबरा रही हैं, वृद्ध होती माँ अब मन से बचपने में जा रही हैं । सुनहरे भविष्य के सपने सदा हमको दिखाती , टूटे-रूठे, हारे जब हम, प्यार से उत्साह जगाती । अतीती यादों में खोकर,आज कुछ भरमा रही हैं , वृद्ध होती माँ अब मन से बचपने में जा रही हैंं ।                                                                 चित्र : साभार गूगल से.. (*बीणा* -- भोर का तारा) माँ पर मेरी एक और कविता माँ ! तुम सचमुच देवी हो     ...

जानी ऐसी कला उस कलाकार की....

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  कुछ उलझने ऐसे उलझा गयी असमंजस के भाव जगाकर बुरी तरह मन भटका गयी, जब सहा न गया, मन व्यथित हो उठा आस भी आखिरी सांस लेने लगी जिन्दगी जंग है हार ही हार है नाउम्मीदी ही मन में गहराने लगी पल दो पल भी युगों सा तब लगने लगा कैसे ये पल गुजारें ! दिल तड़पने लगा थक गये हारकर , याद प्रभु को किया हार या जीत सब श्रेय उनको दिया मन के अन्दर से "मै" ज्यों ही जाने लगा एक दिया जैसे तम को हराने लगा बन्द आँखों से बहती जो अश्रुधार थी सूखती सी वो महसूस होने लगी नम से चेहरे पे कुछ गुनगुना सा लगा कुछ खुली आँख उजला सा दिखने लगा उम्मीदों की वो पहली किरण खुशनुमा नाउम्मीदी के बादल छटाने लगी आस में साँस लौटी और विश्वास भी जीने की आस तब मन में आने लगी जब ये जानी कला उस कलाकार की इक नयी सोच मन में समाने लगी भावना गीत बन गुनगुनाने लगी.... गहरा सा तिमिर जब दिखे जिन्दगी में तब ये माने कि अब भोर भी पास है दुख के साये बरसते है सुख बन यहाँ जब ये जाने कि रौशन हुई आस है रात कितनी भी घनी बीत ही जायेगी नयी उजली सुबह सारे सुख लायेगी जब ये उम्मीद मन में जगाने लगी हुई आसान जीवन की हर ...

वह प्रेम निभाया करता था....

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एक कली जब खिलने को थी, तब से ही निहारा करता था। दूर कहीं क्षितिज में खड़ा वह प्रेम निभाया करता था । दीवाना सा वह भ्रमर, पुष्प पे जान लुटाया करता था । कली खिली फिर फूल बनी, खुशबू महकी फ़िज़ा में मिली। फ़िज़ा में महकी खुशबू से ही कुछ खुशियाँ चुराया करता था। वह दूर कहीं क्षितिज में खड़ा बस प्रेम निभाया करता था । फूल की सुन्दरता को देख सारे चमन में बहार आयी। आते जाते हर मन को , महक थी इसकी अति भायी। जाने कितनी बुरी नजर से इसको बचाया करता था । दूर कहीं क्षितिज में खड़ा,  वह प्रहरी बन जाया करता था । फूल ने समझा प्रेम भ्रमर का, चाहा कि अब वो करीब आये। हाथ मेरा वो थाम ले आकर, प्रीत अमर वो कर जाये। डरता था छूकर बिखर न जाये, बस  दिल में बसाया करता था । दीवाना सा वह भ्रमर पुष्प पे जान लुटाया करता था । एक वनमाली हक से आकर, फूल उठा कर चला गया । उसके बहारों भरे चमन में, काँटे बिछाकर चला गया । तब विरही मन यादों के सहारे, जीवन बिताया करता था । दूर वहीं क्षितिज में खड़ा, वह आँसू बहाया करता था । दीवाना था वह भ्रमर पुष्प पे, जान लुटाया कर...

ज्येष्ठ की तपिश और प्यासी चिड़िया

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सुबह की ताजी हवा थी महकी कोयल कुहू - कुहू बोल रही थी । घर के आँगन में छोटी सोनल अलसाई आँखें खोल रही थी । चीं-चीं कर कुछ नन्ही चिड़ियां सोनल के निकट आई । सूखी चोंच उदास थी आँखें धीरे से वे फुसफुसाई । सुनो सखी ! कुछ मदद करोगी ? छत पर थोड़ा नीर रखोगी ? बढ़ रही अब तपिश धरा पर, सूख गये हैं सब नदी-नाले । प्यासे हैं पानी को तरसते, हम अम्बर में उड़ने वाले । तुम पंखे ,कूलर, ए.सी. में रहते हम सूरज दादा का गुस्सा सहते झुलस रहे हैं, हमें बचालो ! छत पर थोड़ा पानी तो डालो ! जेठ जो आया तपिश बढ गयी, बिन पानी प्यासी हम रह गयी । सुनकर सोनल को तरस आ गया चिड़ियों का दुख दिल में छा गया अब सोनल सुबह सवेरे उठकर चौड़े बर्तन में पानी भरकर, साथ में दाना छत पर रखती है । चिड़ियों का दुख कम करती है । मित्रों से भी विनय करती सोनल आप भी रखना छत पर थोड़ा जल ।। चित्र: साभार गूगल से...

पेड़-- पर्यावरण संतुलन की इकाई

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हम अचल, मूक ही सही मगर तेरा जीवन निर्भर है हम पर तू भूल गया अपनी ही जरूरत हम बिन तेरा जीवन नश्वर तेरी दुनिया का अस्तित्व हैं हम हम पर ही हाथ उठाता है, आदम तू भूला जाता है हम संग खुद को ही मिटाता है अपना आवास बनाने को तू पेड़ काटता जाता है परिन्दोंं के नीड़ों को तोड़ तू अपनी खुशी  मनाता है बस बहुत हुआ ताण्डव तेरा अबकी तो अपनी बारी है हम पेड़ भले ही अचल,अबुलन हम बिन ये सृष्टि अधूरी है वन-उपवन मिटाकर,बंगले सजा सुख शान्ति कहाँ से लायेगा ? साँसों में तेरे प्राण निहित तो प्राणवायु कहाँ से पायेगा ? चींटी से लेकर हाथी तक आश्रित हैं हम पर ही सब तू पुनः विचार ले आदम हम बिन पर्यावरण संतुलित नहीं रह पायेगा ।

सुख का कोई इंतजार....

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                       चित्र :साभार गूगल से" मेरे घर के ठीक सामने बन रहा है एक नया घर वहीं आती वह मजदूरन हर रोज काम पर । देख उसे मन प्रश्न करता मुझ से बार-बार । होगा इसे भी जीवन में कहीं सुख का कोई इंतजार ? गोद में नन्हा बच्चा फिर से है वह जच्चा सिर पर ईंटों का भार न सुख न सुविधा ऐसे में दिखती बड़ी लाचार.. होगा इसे भी जीवन में कहीं सुख का कोई इन्तजार ? बोझ तन से ढो रही वह मन में बच्चे का ध्यान, पल-पल में होता उसको उसकी भूख-प्यास का भान । छाँव बिठाकर सिर सहलाकर देती है माँ का प्यार.. होगा इसे भी जीवन में कहीं सुख का कोई इन्तजार ? जब सब हैं सुस्ताते वह बच्चे पर प्यार लुटाती । बड़ी मुश्किल से बैठ जतन से गोद मेंं उसको अपना सुलाती वह ही तो उसका संसार.. होगा इसे भी जीवन में कहीं सुख का कोई इन्तजार ?   ना कोई शिकवा इसे अपने रब से ना ही कोई गिला है किस्मत से जो है उसी में खुशी ढूँढती सी संतुष्ट जीवन का सार.. होगा इसे भी जीवन में कहीं सुख का कोई इंतजार...? लगता है खुद की न परवाह उसको वो माँ है सुख...

हौले से कदम बढ़ाए जा...

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अस्मत से खेलती दुनिया में चुप छुप अस्तित्व बनाये जा आ मेरी लाडो छुपके मेरे पीछे हौले से कदम बढ़ाये जा..... छोड़ दे अपनी ओढ़नी चुनरी, लाज शरम को ताक लगा बेटोंं सा वसन पहनाऊँ तुझको कोणों को अपने छुपाये जा आ मेरी लाडो छुपके मेरे पीछे  हौले से कदम बढ़ाए जा.... छोड़ दे बिंंदिया चूड़ी कंगना अखाड़ा बनाऊँ अब घर का अँगना कोमल नाजुक हाथों में अब  अस्त्र-शस्त्र पहनाए जा आ मेरी लाडो छुपके मेरे पीछे हौले से कदम बढ़ाए जा..... तब तक छुप-छुप चल मेरी लाडो जब तक तुझमेंं शक्ति न आये आँखों से बरसे न जब तक शोले किलकारी से दुश्मन न थरथराये हर इक जतन से शक्ति बढ़ाकर फिर तू रूप दिखाए जा... आ मेरी लाडो छुपके मेरे पीछे हौले से कदम बढाए जा....।। रक्तबीज की इस दुनिया में रक्तपान कर शक्ति बढ़ा चण्ड-मुण्ड भी पनप न पायेंं ऐसी लीला-खेल रचा   आ मेरी लाडो छुपके मेरे पीछे हौले से कदम बढ़ाए जा..... रणचण्डी दुर्गा बन काली ब्रह्माणी,इन्द्राणी, शिवा.... अब अम्बे के रूपोंं में आकर  डरी सी धरा का डर तू भगा आ मेरी लाडो छुपके मेरे पीछे  ...

लावारिस : "टाइगर तो क्या आज कुत्ता भी न रहा"

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हैलो शेरू ! बडे़ दिनों बाद दिखाई दिया,कहाँ व्यस्त था यार ! आजकल ?  (डॉगी टाइगर ने डॉगी शेरू के पास जाकर बड़ी आत्मीयता से पूछा) तो शेरू खिसियाते हुए पीछे हटा और बुदबुदाते हुए बोला; ओह्हो!फँस गया... अरे यार !  परे हट !  मालकिन ने देख लिया तो मेरी खैर नहीं ,  यूँ गली के कुत्तों से मेरा बात करना मालकिन को बिल्कुल नहीं भाता ,  मेरी बैण्ड बजवायेगा क्या ?.. टाइगर  -  "अरे शेरू! मैं कोई गली का कुत्ता नहीं ! अबे यार ! तूने मुझे पहचाना नहीं  ?  मैं 'टाइगर' तेरे मालिक के दोस्त वर्मा जी का टाइगर ! शेरू (आश्चर्य चकित होकर) -- टाइगर ! अरे ! ये तेरी क्या दशा हो गयी है यार !  कितना कमजोर हो गया है तू  !  मैं तो क्या तुझे तो कोई भी नहीं पहचान पायेगा ।क्या हुआ यार ! बीमार है क्या ?  इलाज-विलाज नहीं करवाया क्या तेरे मालिक ने ?  डींगें तो बड़ी-बड़ी हांकता है तेरा मालिक !  ओह ! माफ करना यार ! अपने मालिक के बारे में सुनकर गुस्सा आ रहा होगा,  हैं न !  मुझे भी आता है  , क्या करे ? वफादार प्राणी जो होते हैं हम कु...

अधूरी उड़ान

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एक थी परी हौसला और उम्मीदों के मजबूत पंखों से उड़ने को बेताब कर जमाने से बगावत पढ़कर जीते कई खिताब विद्यालय भी था सुदूर पैदल चलती रोज मीलों दूर अकेले भी निर्भय होकर वीरान जंगली,ऊबड़-खाबड़ पहाड़ी राहों पर खूंखार जंगली जानवर भी जैसे साथी बन गये थे उसके हर विघ्न और बाधाएं जैसे हार गयी थी उससे कदम कदम की सफलता पाकर पंख उसके मजबूत बन गये उड़ान की प्रकिया के लिए पायी डिग्रियां सबूत बन गये एक अनोखा व्यक्तित्व लिए आत्मविश्वास से भरपूर बढ़ रही थी अनवरत आगे कि मंजिल अब नहीं सुदूर तभी अचानक कदम उसके उलझकर जमीं पर लुढ़क गये सम्भलकर देखा उसने हाय! आँखों से आँसू छलक गये आरक्षण रूपी बेड़ियों ने जकड़ लिए थे बढ़ते कदम उड़ान भरने को आतुर पंखों ने फड़फड़ तड़प कर तोड़ा दम।।                चित्र;साभार गूगल से...

"तन्हाई रास आने लगी"

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वो तो पुरानी बातें थी जब हम...... अकेलेपन से डरते थे कोई न कोई साथ रहे ऐसा सोचा करते थे कभी तन्हा हुए तो  टीवी चलाते, रेडियो बजाते... फिर भी चैन न आये तो फोन करते, दोस्तों को बुलाते..... जाने क्यों तन्हाई से डरते थे पर जब से मिले तुम..!!! सब बदल सा गया, बस तेरे ख्यालों में... मन अटक सा गया..!!! अब कोई साथ हो , तो वह खलता है मन में बस तेरा ही सपना पलता है... सपनीली दुनिया में  ख्वावों की मन्जिल है उसमें हम तुम रहते फिर तन्हा किसको कहते ? अब तो घर के उस कोने में मन अपना लगता है, जहाँ न आये कोई बाधा  ख्यालों में न हो खलल  बस मैं और तुम..... मेरे प्यारे मोबाइल!!! आ तेरी नजर उतारूँ अब तुझ पर ही मैं अपना हर पल वारूँ..... जब से तुझसे मन लगाने लगी तब से....सच में..... तन्हाई रास आने लगी......। अब तो ....... कहाँ हैं...कैसे हैं ....कोई साथ है..... कोई फर्क नहीं पड़ता.... रास्ता भटक गये!!! तो भी नहीं कोई चिन्ता बस तू और ये इन्टरनैट साथ रहे ...... तो समझो सब कुछ सैट अब तो बस .…...... तुझ पर ही मन...

सुख-दुख के भंवरजाल से माँ बचा लो....

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जाने क्या मुझसे खता हो गयी ? यूँ लग रहा माँ खफा हो गई... माँ की कृपा बिन जीवन में मेरी देखो तो क्या दुर्दशा हो गयी...... माँ! माफ कर दो, अब मान जाओ इक बार मुझ पर कृपा तो बनाओ कृपा बिन तो मेरी उजड़ी सी दुनिया माँ ! बर्बाद होने से मुझको बचाओ..... माँ! तेरे आँचल के साया तले तो चिलमिलाती लू भी मुझे छू न पायी तेरी ओट रहकर तो तूफान से भी, निडर हो के माँ मैंने नजरें मिलाई..... तेरे साथ बिन मेरा,  मन डर रहा माँ ! तन्हा सा जीवन, भय लग रहा माँ ! दिव्य ज्योति से मन के अंधेरे मिटा दो, शरण में हूँ माँ मैं ,चरण में जगह दो...... ना मैं जोग जानूँ न ही तप मैं जानूँ नियम भी न जानूँ, न संयम मैं जानूँ पाप-पुण्य हैं क्या, धर्म-कर्म कैसे ? सुख -दुख के भंवरजाल से माँ बचा लो.... गुमराह हूँ मैंं, माँ सही राह ला दो, भंवर में है नैया, पार माँ लगा दो... तुम बिन नहीं मेरा,कोई सहारा माँ मूरख हूँ, अवगुण मेरे तुम भुला दो... खता माफ कर दो,माँ मान जाओ, विश्वास भक्ति का, मेरे मन में जगाओ.... भंवर में है नैया, पार माँ लगा लो... सुख-दुख के भंवरजाल से माँ बचा लो...   ...

ऐ वसंत! तुम सबको खुशियों की वजह दे दो ....

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                     चित्र : साभार Shutterstock से ऐ रितुराज वसंत ! तुम तो बहुत खुशनुमा हो न !!! आते ही धरा में रंगीनियां जो बिखेर देते हो ! बिसरकर बीती सारी आपदाएं  खिलती -मुस्कराती है प्रकृति, मन बदल देते हो, सुनो न ! अब की कुछ तो नया कर दो ! ऐ वसंत ! तुम सबको खुशियों की वजह दे दो। हैं जो दुखियारे, जीते मारे -मारे कुछ उनकी भी सुन लो, कुछ दुख तुम ही हर लो, पतझड़ से झड़ जायें उनके दुख,कोंपल सुख की दे दो ! ऐ वसंत ! तुम सबको खुशियों की वजह दे दो । तेरे रंगीन नजारे, आँखों को तो भाते हैं । पर  लब ज्यों ही खिलते हैं, आँसू भी टपक जाते हैं, अधरों की रूठी मुस्कानो को हंसने की वजह दे दो ! ऐ वसंत! तुम सबको खुशियों की वजह दे दो । तेरी ये शीतल बयार, जख्मों को न भाती है भूले बिसरे घावों की,पपड़ी उड़ जाती है, उन घावों पर मलने को, कोई मलहम दे दो ! ऐ वसंत ! तुम सबको खुशियों की वजह दे दो । तरसते है जो भूखे, दो जून की रोटी को मधुमास आये या जाये, क्या जाने वे तुझको, आने वाले कल की,उम्मीद नयी दे दो ! ऐ वसंत !...

इम्तिहान - "जिन्दगी का "

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उम्मीदें जब टूट कर बिखर जाती है, अरमान दम तोड़ते यूँ ही अंधेरों में । कंटीली राहों पर आगे बढ़े तो कैसे ? शून्य पर सारी आशाएं सिमट जाती हैं । विश्वास भी स्वयं से खो जाता है, निराशा के अंधेरे में मन भटकता है। जायें तो कहाँ  लगे हर छोर बेगाना सा , जिन्दगी भी तब स्वयं से रूठ जाती है। तरसती निगाहें  सहारे की तलाश में , आकर सम्भाले कोई ऐसा अजीज चाहते हैं । कौन वक्त गँवाता है , टूटे को जोड़ने में बेरुखी अपनों की और भी तन्हा कर जाती है । बस यही पल अपना इम्तिहान होता है .... कोई सह जाता है , कोई बैठे रोता है । बिखरकर भी जो निखरना चाहते है.... वे ही उस असीम का आशीष पाते हैं । उस पल जो बाँध लें, खुद को अपने में इक ज्योत नजर आती मन के अँधेरे में.... हौसला रखकर मन में जो आशा जगाते हैं, इक नया अध्याय तब जीवन में पाते हैं ।।                 चित्र : साभार Shutterstock से...

धरा तुम महकी-महकी बहकी-बहकी सी हो

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फूलों की पंखुड़ियों से धरा तुम यूँ मखमली हो गयी महकती बासंती खुशबू संग शीतल बयार हौले से बही खुशियों की सौगात लिए तुम अति प्रसन्न सी हो । धरा तुम महकी - महकी बहकी - बहकी सी हो ! सुमधुर सरगम गुनगुनाती धानी चुनरी सतरंगी फूलों कढ़ी हौले-हौले से सरसराती, नवोढ़ा सा सोलह श्रृंगार किये आज खिली - खिली सजी-धजी सी हो । धरा तुम महकी - महकी बहकी-बहकी सी हो ! कोई बदरी संदेशा ले के आई  क्या ? आसमां ने प्रेम-पाती भिजवाई क्या ? प्रेम रंग में भीगी भीगी आज मदहोश सी हो । धरा तुम महकी-महकी बहकी - बहकी सी हो ! मिलन की ऋतु आई धरा धानी चुनरीओढे मुख छुपाकर यूँ लजाई , नव - नवेली सुमुखि जैसे सकुचि बैठी मुँह दिखाई आसमां से मिलन के पल "हाल ए दिल" तुम कह भी पायी ? आज इतनी खोई खोई सी हो । धरा तुम महकी - महकी बहकी - बहकी सी हो ! चाँद भी रात सुनहरी आभा लिए था । चाँदनी लिबास से अब ऊब गया क्या ? तुम्हारे पास बहुत पास उतर आया ऐसे , सगुन का संदेश ले के आया जैसे सुनहरी चाँदनी से तुम नहायी रात भर क्या ? ऐसे निखरी और निखरी सी हो । धरा तुम महकी-महकी बहकी-बहकी सी हो !    ...

"अब इसमें क्या अच्छा है ?...

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जो भी होता है अच्छे के लिए होता है      जो हो गया अच्छा ही हुआ। जो हो रहा है वह भी अच्छा ही हो रहा है।    जो होगा वह भी अच्छा ही होगा ।              अच्छा ,  अच्छा ,  अच्छा !!!     जीवन में सकारात्मक सोच रखेंगे            तो सब अच्छा होगा !!!                         मूलमंत्र माना इसे और अपने मन में, सोच में , व्यवहार में          भरने की कोशिश भी की। परन्तु हर बार कुछ ऐसा हुआ अब तक,          कि प्रश्न किया मन ने मुझसे ,          कभी अजीब सा मुँह बिचकाकर,            तो कभी कन्धे उचकाकर        "भला अब इसमें क्या अच्छा है" ?                     क्या करूँ ?        कैसे बहलाऊँ इस नादान मन को ?  ...

मेरे दीप तुम्हें जलना होगा

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    है अंधियारी रात बहुत, अब तुमको ही तम हरना होगा... हवा का रुख भी है तूफानी, फिर भी    मेरे दीप तुम्हें जलना होगा !!! मंदिम-मंदिम ही सही तुम्हें, हर हाल में रोशन रहना होगा....    अब आशाएं बस तुमसे ही, मेरे दीप तुम्हें जलना होगा !!!  तूफान सामने से गुजरे जब, शय मिले जिधर लौ उधर झुकाना... शुभ शान्त हवा के झोकों संग, फिर हौले से  तुम जगमगाना !!! अब हार नहीं लाचार नहीं हर तिमिर तुम्हेंं हरना होगा... उम्मीदों की बाती बनकर, मेरे दीप तुम्हें जलना होगा !!! राहों में अंधेरापन इतना,गर तुम ही नहीं तो कुछ भी नहीं.... क्या पाया यों थककर हमने, मंजिल न मिली तो कुछ भी नहीं !!! हौसला निज मन में रखकर, तूफ़ानों से अब लड़ना होगा .... मन ज्योतिर्मय करने को मेरे दीप तुम्हें जलना होगा !!! जलने मिटने से क्या डरना, नियति यही किस्मत भी यही.... रोशन हो जहांं कर्तव्य निभे, अविजित तुमको रहना होगा !!! अंधियारों में प्रज्वलित रहके  जग ज्योतिर्मय करना होगा तूफानो में अविचलित रह के अब ज्योतिपुंज बनना होगा अब आशाएं बस तुमसे ही म...

जीवन जैसी ही नदिया निरन्तर बहती जाती....

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पहाड़ों से उद्गम, बचपन सा अल्हड़पन, चपल, चंचल वेगवती,झरने प्रपात बनाती अलवेली सी नदिया, इठलाती बलखाती राह के मुश्किल रौड़ो से,कभी नहीं घबराती काट पर्वत शिखरों को,अपनी राह बनाती इठलाती सी बालपन में,सस्वर आगे बढ़ती जीवन जैसी ही नदिया, निरन्तर बहती जाती.... अठखेलियां खेलते, उछलते-कूदते पर्वतों से उतरकर,मैदानों तक पहुँचती बचपन भी छोड़ आती पहाड़ों पर ही यौवनावस्था में जिम्मदारियाँँ निभाती कर्मठ बन मैदानों की उर्वरा शक्ति बढ़ाती कहीं नहरों में बँटकर,सिंचित करती धरा को कहीं अन्य नदियों से मिल सुन्दर संगम बनाती अब व्यस्त हो गयी नदिया रिश्ते अनेक निभाती जीवन जैसी ही नदिया, निरन्तर बहती जाती........ अन्नपूरित धरा होती, सिंचित होकर नदियों से हर जीवन चेतन होता,तृषा मिटाती सदियों से, अनवरत गतिशील प्रवृति, थामें कहाँ थम पाती है थमती गर क्षण भर तो,विद्युत बना जाती है परोपकार करते हुये कर्मठ जीवन अपनाती जीवन जैसी ही नदिया, निरन्तर बहती जाती....... वेगवती कब रुकती, आगे बढ़ना नियति है उसकी अब और सयानी होकर, आगे पथ अपना स्वयं बनाती छोड़ चपलता चंचलता , गंभीरता अपनाती कहीं डेल्टा कहीं...

मिन्नी और नन्हीं तितली

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                         चित्र : साभार गूगल से कम्प्यूटर गेम नहीं मिलने पर मिन्नी बहुत बहुत रोई... गुस्से से  लाल होकर वह घर से बाहर चली गयी.... घर नहीं आउंगी चाहे जो हो, ऐसा सोच के ऐंठ गयी, पार्क में जाकर कुछ बड़बड़ाकर वहीं बैंच पर बैठ गयी । रंग बिरंगे पंखो वाली इक नन्हींं सी तितली आयी पास के फूलों में वह बैठी, कभी दूर जा मंडरायी... नाजुक रंग बिरंगी पंखों को खोल - बन्द कर इतरायी थोड़ी दूर गई पल में वह अपनी सखियों को लायी.... भाँति-भाँति की सुन्दर तितलियां मिन्नी के मन को भायी । भूली मिन्नी रोना धोना, तितली के संग संग खेली कली फूल तितली से खुश, वह अब कम्प्यूटर गेम भूली मनभाते सुन्दर फूल देख, मिन्नी खुश हो खिलखिलाई तितली सी मंडराई वह खेली, गालों में लाली छायी । साँझ हुई तो सभी तितलियाँ दूर देश को चली गयी..... कल फिर आना,मिलक़र खेलेंगे बोली और ओझल हो गयी । खुशी-खुशी और सही समय पर मिन्नी वापस घर आयी..... तरो-ताजा और भली लगती थी लाड़-प्यार सबका पायी । रात सुहाने सपनों में...

बवाल मच गया

सुन सुन कान पक गये,      उसके तो उम्र भर.... इक लब्ज जो कहा तो बवाल मच गया !!! झुक-झुक के ताकने की कोशिश सभी किये थे, घूरती नजर के बाणों से      तन बिधे थे, ललचायी थी निगाहें  नजरों से चाटते थे...... घूँघट स्वयं उठाया तो बवाल मच गया !!! अपने ही इशारों पे नचाते      रहे सदियों से, कठपुतली सी उसे यूँ ही घुमाते     रहे अंगुलियोंं पे, साधन विलास का उसे     समझा सदा तूने जब पाँव स्वयं थिरके तो बवाल मच गया !!! सदा नाचते -गाते घोड़ी पे चढे़ दूल्हे           अपने ही ब्याह में, इस बार नच ली दुल्हन तो बवाल मच गया !!!        

सर्द मौसम और मैं

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देखा सिकुड़ते तन को ठिठुरते जीवन को मन में ख्याल आया... थोड़ा ठिठुरने का , थोड़ा सिकुड़ने का, शॉल हटा लिया.... कानो से ठण्डी हवा , सरसराती हुई निकली, ललकारती सी बोली ; इसमें क्या ? सिर्फ शॉल हटाकर, करते मेरा मुकाबला !! लदा है तन बोझ से, मोटे ऊनी कपड़ो के तुम नहीं ठिठुर सकते ! सिकुड़ना नहीं बस में तेरे ! बस फिर क्या.... मन मुकाबले को तैयार उतार फैंके गरम कपड़े उठा लिए हथियार.... कंटीली सी हवा तन-मन बेधती निकली जब आर - पार हाथ दोनों बंधकर सिकुड़े नाक भी हुई तब लाल.... सिकुड़ने लगा तन मन  पल में मानी हार.... लपके कपड़ों पर ज्यों ही सर्द हवा को ठिठोली सूझी तेजी का रूख अपनाया फिर कपड़ो को दूर उड़ाया आव देखा न ताव देखा जब सामने अलाव देखा !!! दौड़े भागे अलाव के आगे काँप रहे थे ,बने अभागे अलाव की गर्माहट से कुछ जान में जान आयी.... पुनः सहज सी लगने लगी सर्द मौसम से अपनी लड़ाई.... मन के भावों को जैसे सर्द प्रकृति ने भांप लिया मुझे हराने, अलाव बुझाने फिर से मन में ठान लिया मारुत में फिर तेजी आयी अलाव की अग्नि भी पछता...

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