वृद्ध होती माँ अब मन से बचपने में जा रही हैं।
देर रातों जागकर जो घर-बार सब सँवारती थी,
*बीणा*आते जाग जाती , नींद को दुत्कारती थी ।
शिथिल तन बिसरा सा मन है,नींद उनको भा रही है,
वृद्ध होती माँ अब मन से बचपने में जा रही हैंं ।
हौसला रखकर जिन्होंने हर मुसीबत पार कर ली ,
अपने ही दम पर हमेशा, हम सब की नैया पार कर दी ।
अब तो छोटी मुश्किलों से वे बहुत घबरा रही हैं,
वृद्ध होती माँ अब मन से बचपने में जा रही हैं ।
सुनहरे भविष्य के सपने सदा हमको दिखाती ,
टूटे-रूठे, हारे जब हम, प्यार से उत्साह जगाती ।
अतीती यादों में खोकर,आज कुछ भरमा रही हैं ,
वृद्ध होती माँ अब मन से बचपने में जा रही हैंं ।
चित्र : साभार गूगल से..
(*बीणा* -- भोर का तारा)
माँ पर मेरी एक और कविता
9 टिप्पणियां:
बहुत खूबसूरत रचना है ....यही सच है !!
सादर नमस्कार ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (5-4-22) को "शुक्रिया प्रभु का....."(चर्चा अंक 4391) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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कामिनी सिन्हा
हृदय स्पर्शी सृजन, सच माँ बहुत याद आ रही है।
अभिनव सृजन।
तहेदिल से धन्यवाद एवं आभार कामिनी जी ! मेरी रचना साझा करने हेतु ।
तहेदिल से धन्यवाद जवं आभार आ.कुसुम जी !
मेरीमाँ की ही मर्म कंथा लिख दी आपने प्रिय सुधा जी।एक समय की वीरांगना सी माँ को इस असश्क्त रूप में देखने की पीड़ा बहुत असहनीय है।मेरे पास दो मायेँ हैं( माँ और सासु माँ)दोनो की कंचन काया को जर्जर होते देख बहुत उदास हो जाती हूँ पर समय के प्रहार से कौन बच पाया है।बहुत मर्मांतक अभिव्यक्ति,जो आँखें भिगो गयी।
वृध्द होती माँ का बहुत ही सुंदर चित्रण किया है आपने, सुधा दी।
जी सही कहा आपने समय के प्रहार से कौन बच पाया है ।
अत्यंत आभार एवं धन्यवाद आपका ।
तहेदिल से धन्यवाद एवं आभार ज्योति जी !
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