बहुत समय से बोझिल मन को इस दीवाली खोला

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बहुत समय से बोझिल मन को  इस दीवाली खोला भारी भरकम भरा था उसमें  उम्मीदों का झोला कुछ अपने से कुछ अपनों से  उम्मीदें थी पाली कुछ थी अधूरी, कुछ अनदेखी  कुछ टूटी कुछ खाली बड़े जतन से एक एक को , मैंने आज टटोला बहुत समय से बोझिल मन को इस दीवाली खोला दीप जला करके आवाहन,  माँ लक्ष्मी से बोली मनबक्से में झाँकों तो माँ ! भरी दुखों की झोली क्या न किया सबके हित,  फिर भी क्या है मैने पाया क्यों जीवन में है मंडराता ,  ना-उम्मीदी का साया ? गुमसुम सी गम की गठरी में, हुआ अचानक रोला बहुत समय से बोझिल मन को इस दीवाली खोला प्रकट हुई माँ दिव्य रूप धर,  स्नेहवचन फिर बोली ये कैसा परहित बोलो,  जिसमें उम्मीदी घोली अनपेक्षित मन भाव लिए जो , भला सभी का करते सुख, समृद्धि, सौहार्द, शांति से,  मन की झोली भरते मिले अयाचित सब सुख उनको, मन है जिनका भोला बहुत समय से बोझिल मन को इस दीवाली खोला मैं माँ तुम सब अंश मेरे,  पर मन मजबूत रखो तो नहीं अपेक्षा रखो किसी से,  निज बल स्वयं बनो तो दुख का कारण सदा अपेक्षा,  मन का बोझ बढ़ाती बदले में क्या मिला सोचकर,  ...

अहंकार



Mountains ,trees and river; green landscape
               चित्र, साभार गगूल से......


मानसूनी मौसम में बारिश के चलते,
सूखी सी नदी में उफान आ गया ।
देख पानी से भरा विस्तृत रूप अपना,
इतराने लगी नदी, अहंकार छा गया
बहाती अपने संग कंकड़-पत्थर,
फैलती काट साहिल को अपने!

हुई गर्व से उन्मत इतनी,
पास बने कुएं से उलझी।
बोली कुआं ! देखो तो मुझको,
देखो ! मेरी गहराई चौड़ाई ,
तुम तो ठहरे सिर्फ कूप ही ,
मैं नदी कितनी भर आयी !!

शक्ति मुझमें इतनी कि सबको बहा दूँ ,
चाहूँ  गर  तो  तुमको भी खुद में समा दूँ।
मैं उफनती नदी हूँ. ! देखो जरा मुझको,
देखो ! बढ रही कैसे मेरी गहराई चौड़ाई।

मेरा नीर हिल्लौरें भरता,
मंजिल तक जायेंगे हम तो ।
कूप तू सदा यहीं तक सीमित,
सागर हो आयेंगे हम तो !

कुआं मौन सुन रहा,नदी को ,
नहीं प्रतिकार किया तब उसने।
जैसे  दादुर  की टर्र - टर्र से ,
कोयल मौन हुई तब खुद में ।

चंद समय में मौसम बदला ,
बरसाती जल अब नहीं बरसा।
नदी बेचारी फिर से सूखी
पुनः पतली धारा में बदली।

कुआं नदी को सम्बोधित करके,
फिर बोला  मर्यादित  बनके।
सुनो नदी !  कुछ अनुभव मेरे,
विस्तार ही सब कुछ नहीं बहुतेरे।

गुणवत्ता बिन व्यर्थ है जीवन ,
बिन उद्देश्य दिग्भ्रमित सा मन।
लक्ष्यविहीन व्यर्थ है विस्तार,
विनाशकारी  है अहंकार !!

क्षमा प्रार्थी संकुचित हो नदी बोली,
गलत किया जब "स्व" को भूली ।।








टिप्पणियाँ

  1. कुआं नदी को सम्बोधित करके,
    फिर बोला मर्यादित बनके.......
    सुनो नदी !कुछ अनुभव मेरे,
    विस्तार ही सब कुछ नहीं बहुतेरे.....

    गुणवत्ता बिन व्यर्थ है जीवन ,
    बिन उद्देश्य दिग्भ्रमित सा मन....
    लक्ष्यविहीन व्यर्थ है विस्तार,
    विनाशकारी है अहंकार.......बहुत सुंदर

    जवाब देंहटाएं
  2. वाह वाह अप्रतिम अद्भुत भाव रचना।
    बहुत ही सुंदर सुधा जी ।
    अंहकारी का सदा सर नीचा होता है।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. हार्दिक धन्यवाद, कुसुम जी !
      सस्नेह आभार....

      हटाएं
  3. गुणवत्ता बिन व्यर्थ है जीवन ,
    बिन उद्देश्य दिग्भ्रमित सा मन....
    लक्ष्यविहीन व्यर्थ है विस्तार,
    विनाशकारी है अहंकार.......वाह !! बहुत ख़ूब आदरणीय
    सादर

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. बहुत बहुत शुक्रिया अनीता जी !
      सस्नेह आभार आपका...

      हटाएं
  4. गुणवत्ता बिन व्यर्थ है जीवन ,
    बिन उद्देश्य दिग्भ्रमित सा मन....
    लक्ष्यविहीन व्यर्थ है विस्तार,
    विनाशकारी है अहंकार.......
    बेहतरीन रचना सखी 👌🌹

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. शुक्रिया अनुराधा जी!बहुत बहुत धन्यवाद आपका...

      हटाएं
  5. गुणवत्ता बिन व्यर्थ है जीवन ,
    बिन उद्देश्य दिग्भ्रमित सा मन....
    लक्ष्यविहीन व्यर्थ है विस्तार,
    विनाशकारी है अहंकार.......
    बहुत ही सुंदर रचना, सुधा दी।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. हार्दिक आभार ज्योति जी!बहुत बहुत शुक्रिया...

      हटाएं
  6. आभार अभिलाषा जी ! बहुत बहुत धन्यवाद ।

    जवाब देंहटाएं

  7. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" बुधवार 26 अगस्त 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. हार्दिक धन्यवाद पम्मी जी मेरी रचना को पाँच लिंको का आनंद के प्रतिष्ठित मंच पर साझा करने हेतु।

      हटाएं
  8. वाह!सुधा जी ,एक गहरी सीख देती हुई खूबसूरत रचना ।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. हृदयतल से धन्यवाद शुभा जी!
      सस्नेह आभार।

      हटाएं
  9. हार्दिक धन्यवाद एवं आभार आ.जोशी जी!

    जवाब देंहटाएं

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