इधर सम्भालते उधर से छूट जाता है,
आइना हाथ से फिसल के टूट जाता है,
बहुत की कोशिशें सम्भल सकें,हम भी तो कभी,
पर ये नसीब तो पल-भर में रूठ जाता है ।
सहारा ना मिला तो ना सही , उठ बैठे हम ,
घाव रिसते रहें, ना पा सके कोई मलहम।
जमाना ये न समझे, हम गिरे भी राहों में,
होंठ भींचे, मुस्कराये पी गये झट सारे गम ।
कभी रंगती दिखी हमको भी ये तकदीर ऐसे,
लगा पतझड़ गयी अब खिल रही बसंत जैसे,
चार दिन चाँदनी के फिर अंधेरी रात सी थी,
बदा तकदीर में जो अब बदलता भी कैसे ?
फिर भी हारे नहीं चलते रहे, चलना ही था,
रात लम्बी थी मगर रात को ढ़लना ही था,
मिटा तम तो सवेरे सूर्य ज्यों ही जगमगाया,
घटा घनघोर छायी सूर्य को छुपना ही था।
अंधेरों में ही मापी हमने तो जीवन की राहें,
नहीं है भाग्य में तो छोड़ दी यूँ सुख की चाहें,
राह कंटक भरी पैरों को ना परवाह इनकी,
शूल चुभते रहे भरते नहीं अब दर्दे-आहें ।
37 टिप्पणियां:
फिर भी हारे नहीं चलते रहे, चलना ही था
रात लम्बी थी मगर रात को ढ़लना ही था
मिटा तम तो सवेरे सूर्य ज्यों ही जगमगाया
घटा घनघोर छायी सूर्य को छुपना ही था।
हृदयस्पर्शी सृजन सुधा जी ! सभी मुक्तक हृदय मे उतरते हुए।
बहुत सुंदर!
बेहतरीन रचना।
भावपूर्ण प्रस्तुति सुधा जी "आईना फिसलकर छूट जाता"
किन्तु जिन्दगी आईना नहीं सच्चाई है,गिरना उठना ,चोट लगना दर्द की पीड़ा को सह कर भी हार नहीं मानता उसके घाव भी एक दिन मुस्कराते हैं और उसकी जीत पर तालियां बजाते हैं ।
अंधेरों में ही मापी हमने तो जीवन की राहें
नहीं है भाग्य में तो छोड़ दी यूँ सुख की चाहें
राह कंटक भरी पैरों को ना परवाह इनकी
शूल चुभते रहे भरते नहीं अब दर्दे-आहें
दिल को छूती रचना, सुधा दी।
बहुत सुन्दर रचना।
हृदयतल से धन्यवाद एवं आभार मीना जी!उत्साहवर्धन हेतु।
हार्दिक धन्यवाद एवं आभार आ.विश्वमोहन जी!
हार्दिक धन्यवाद एवं आभार आदरणीय!
हृदयतल से धन्यवाद रितु जी!
सस्नेह आभार।
अत्यंत आभार एवं धन्यवाद जेन्नी शबनम जी!
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" रविवार 27 सितम्बर 2020 को साझा की गयी है.............. पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
"फिर भी हारे नहीं चलते रहे, चलना ही था
रात लम्बी थी मगर रात को ढ़लना ही था"
बहुत ही सुंदर सृजन,नसीब में ना तो ना सही हिम्मत नहीं टूटनी चाहिए,सादर नमन आपको
हृदयतल से धन्यवाद आदरणीय सर! मेरी रचना को पाँच लिंको के आनंद में साझा करने हेतु...
सादर आभार।
जी,कामिनी जी! सादर आभार एवं धन्यवाद आपका उत्साहवर्धन करती प्रतिक्रिया हेतु।
हर रंग का दर्शन हुआ... पढ़ना सुखद लगा...
साधुवाद
सुन्दर सृजन
बहुत सुंदर
बहुत ही सुंदर सृजन।
फिर भी हारे नहीं चलते रहे, चलना ही था
रात लम्बी थी मगर रात को ढ़लना ही था
मिटा तम तो सवेरे सूर्य ज्यों ही जगमगाया
घटा घनघोर छायी सूर्य को छुपना ही था।...वाह !
हृदयतल से धन्यवाद आदरणीय विभा जी!
आपको अच्छी लगा तो सृजन सार्थक हुआ
सादर आभार।
अत्यंत आभार एवं धन्यवाद आ.जोशी जी!
हार्दिक धन्यवाद एवं आभार आ.ओंकार जी!
अत्यंत आभार एवं धन्यवाद प्रिय अनीता जी!
हृदयतल से धन्यवाद आ.रविन्द्र जी मेरी रचना को चर्चा मंच पर साझा करने हेतु...
सादर आभार।
सच आपकी सभी रचनाएँ बहुत ही मर्म स्पर्शी और मन को छू लेने वाली हैं |
तहेदिल से धन्यवाद आलोक सिन्हा जी!
ब्लॉग पर आपका स्वागत है।
अंधेरों में ही मापी हमने तो जीवन की राहें
नहीं है भाग्य में तो छोड़ दी यूँ सुख की चाहें
राह कंटक भरी पैरों को ना परवाह इनकी
शूल चुभते रहे भरते नहीं अब दर्दे-आ
,,,,,।
,,,,,, बहुत भावपूर्ण रचना मुझे ये पंक्तिया दिल को छू गई,।
हार्दिक धन्यवाद आ.मधुलिका जी!
ब्लॉग पर आपका स्वागत है।
बहुत अच्छी एवं भावपूर्ण काव्य-रचना है सुधा जी यह । मन को छू लेने वाली । अभिनंदन ।
अत्यंत आभार एवं धन्यवाद आ.माथुर जी!
बेहतरीन पोस्ट
हार्दिक धन्यवाद आदरणीय!
सादर आभार।
बहुत सुंदर रचना.... फिर उठने का हौसला देती हुई कविता।
हार्दिक धन्यवाद डबराल जी!
सादर आभार।
बहुत की कोशिशें सम्भल सकें,हम भी तो कभी पर ये नसीब तो पल-भर में रूठ जाता है | बहुत सुदर | सभी मुक्तक बहुत अच्छे हैं |
अत्यंत आभार आपका।
एक टिप्पणी भेजें