संदेश

सितंबर, 2017 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

भ्रात की सजी कलाई (रोला छंद)

चित्र
सावन पावन मास , बहन है पीहर आई । राखी लाई साथ, भ्रात की सजी कलाई ।। टीका करती भाल, मधुर मिष्ठान खिलाती । देकर शुभ आशीष, बहन अतिशय हर्षाती ।। सावन का त्यौहार, बहन राखी ले आयी । अति पावन यह रीत, नेह से खूब निभाई ।। तिलक लगाकर माथ, मधुर मिष्ठान्न खिलाया । दिया प्रेम उपहार , भ्रात का मन हर्षाया ।। राखी का त्योहार, बहन है राह ताकती । थाल सजाकर आज, मुदित मन द्वार झाँकती ।। आया भाई द्वार, बहन अतिशय हर्षायी ।  बाँधी रेशम डोर, भ्रात की सजी कलाई ।। सादर अभिनंदन आपका 🙏 पढ़िए राखी पर मेरी एक और रचना निम्न लिंक पर जरा अलग सा अब की मैंने राखी पर्व मनाया  

चुप सो जा ! मेरे मन ! चुप सो जा !!

चित्र
             रात छाई है घनी, पर कल सुबह होनी नयी,         कर बन्द आँखें ,  सब्र रख तू ,             मत रो ,मुझे न यूँ सता ! चुप सो जा !  मेरे मन ! चुप सो जा !!       तब तक तू चुप सोया ही रह !      जब तक न हो जाये सुबह     नींद में सपनों की दुनिया तू सजा ! चुप सो जा ! मेरे मन ! चुप सो जा !!        सोना जरुरी है नयी शुरुआत करनी है        भूलकर सारी मुसीबत, आस भरनी है     जिन्दगी के खेल फिर-फिर खेलने तू जा ! चुप सो जा ! मेरे मन ! चुप सो जा !!       सोकर जगेगा तब नया सा प्राण पायेगा      जो खो दिया अब तक, उसे भी भूल जायेगा     पाकर नया कुछ, फिर पुराना तू यहाँ खो जा चुप सो जा ! मेरे मन ! चुप सो जा !!      दस्तूर हैं दुनिया के कुछ वो तू भी सीख ले       है सुरमई सुबह यहाँ,  तो साँझ भी ढ़...

जाने कब खत्म होगा ,ये इंतज़ार......

चित्र
  ये अमावस की अंधेरी रात तिस पर अनवरत बरसती        ये मुई बरसात  टपक रही मेरी झोपड़ी       की घास-फूस        भीगती सिकुड़ती        मिट्टी की दीवारें       जाने कब खत्म होगा           ये इन्तजार ?       कब होगी सुबह..?            और मिटेगा         ये घना अंधकार !        थम ही जायेगी किसी पल              फिर यह बरसात       तब चमकेंगी किरणें रवि की         खिलखिलाती गुनगुनी सी ।        सूख भी जायेंगी धीरे-धीरे            ये भीगी दीवारें     गुनगुनायेंगी गीत आशाओं के,     मिट्टी की सौंधी खुशबू के साथ ।    झूम उठेगी इसकी घास - फूस की छत            बहेगी जब मधुर बयार  फिर भ...

आओ बुढ़ापा जिएं ..

चित्र
वृद्धावस्था अभिशाप नहीं । यदि आर्थिक सक्षमता है तो मानसिक कमजोर नहीं बनना । सहानुभूति और दया का पात्र न बनकर, मनोबल रखते हुए आत्मविश्वास के साथ वृद्धावस्था को भी जिन्दादिली से जीने की कोशिश जो करते हैंं , वे वृृद्ध अनुकरणीय बन जाते है । मानसिक दुर्बलता से निकलने के लिए यदि कुछ ऐसा सोचें तो - जी लिया बचपन , जी ली जवानी       आओ बुढापा जिएं । यही तो समय है, स्वयं को निखारेंं      जानेंं कि हम कौन हैं ?     कभी नाम पहचान था फिर हुआ काम पहचान अपनी   आगे रिश्तों से जाने गये  सांसारिकता में हम खो गये । ये तन तो है साधन जीवन सफर का     ये पहचान किरदार है इन्हीं में उलझकर क्या जीवन बिताना जरा अब तो जाने ,कहाँँ हमको जाना ? यही तो समय है स्वयं को पहचाने         जाने कि हम कौन हैं ? क्या याद बचपन को करना   क्या फिर जवानी पे मरना     यदि ये मोह माया रहेगी तो फिर - फिर ये काया मिलेगी  भवसागर की लहरों में आकर     क्या डूबना क्या उतरना...

फ़ॉलोअर