तन में मन है या मन में तन ?

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ये मन भी न पल में इतना वृहद कि समेट लेता है अपने में सारे तन को, और हवा हो जाता है जाने कहाँ-कहाँ ! तन का जीव इसमें समाया उतराता उकताता जैसे हिचकोले सा खाता, भय और विस्मय से भरा, बेबस ! मन उसे लेकर वहाँ घुस जाता है जहाँ सुई भी ना घुस पाये, बेपरवाह सा पसर जाता है। बेचारा तन का जीव सिमटा सा अपने आकार को संकुचित करता, समायोजित करता रहता है बामुश्किल स्वयं को इसी के अनुरूप वहाँ जहाँ ये पसर चुका होता है सबके बीच।  लाख कोशिश करके भी ये समेटा नहीं जाता,  जिद्दी बच्चे सा अड़ जाता है । अनेकानेक सवाल और तर्क करता है समझाने के हर प्रयास पर , और अड़ा ही रहता है तब तक वहीं जब तक भर ना जाय । और फिर भरते ही उचटकर खिसक लेता वहाँ से तन की परवाह किए बगैर । इसमें निर्लिप्त बेचारा तन फिर से खिंचता भागता सा चला आ रहा होता है इसके साथ, कुछ लेकर तो कुछ खोकर अनमना सा अपने आप से असंतुष्ट और बेबस । हाँ ! निरा बेबस होता है ऐसा तन जो मन के अधीन हो।  ये मन वृहद् से वृहद्तम रूप लिए सब कुछ अपने में समेटकर करता रहता है मनमानी । वहीं इसके विपरीत कभी ये पलभर में सिकुड़कर या सिमटकर अत्यंत सूक्ष्म रूप में छिपक...

कटता नहीं बक्त, अब नीड़ भी रिक्त

 

Bied Nest

वो मंजिल को अपनी निकलने लगे हैं,

कदम चार माँ-बाप भी संग चले हैं ।


बीती उमर के अनुभव बताकर

आशीष में हाथ बढ़ने लगे हैं ।


सुबह शाम हर पल फिकर में उन्हीं की

अतीती सफर याद करने लगे ह़ै ।


सफलता से उनकी खुश तो बहुत हैं

मगर दूरियों से मचलने लगे हैं ।


राहें सुगम हों जीवन सफर की

दुआएं सुबह शाम करने लगे हैं ।


मंदिम लगे जब कभी नूर उनका

अर्चन में प्रभु पे बिगड़ने लगे हैं ।


कटता नहीं वक्त,अब नीड़ भी रिक्त

परिंदे जो 'पर' खोल उड़ने लगे हैं ।


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पढ़िए एक और गजल इसी ब्लॉग पर

● सफर ख्वाहिशों का थमा धीरे-धीरे



टिप्पणियाँ

  1. पंछी उड़ ही जाते हैं नीड़ सूना करके
    मुट्ठीभर देकर खुशियाँ यादें दूना करके
    ----
    क्या कहें महसूस कर सकते हैं आपकी विह्वलता, भावपूर्ण अभिव्यक्ति दी।
    सस्नेह प्रणाम।

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  2. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  3. शब्दों के बहुत सुंदर मोती पिरोए हैं,मन की विह्वलता को दर्शाती बहुत सुन्दर रचना।

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  4. सफलता से उनकी खुश तो बहुत हैं
    मगर दूरियों से मचलने लगे हैं ।

    सुंदर... प्रासंगिक विषय पर लिखी गयी ग़ज़ल...

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  5. माँ बाप के महत्त्व को भूल जाते हैं हम लोग अक्सर ...
    आपने बाखूबी हर पंक्ति में इस को बताने का प्रयास किया है ...

    जवाब देंहटाएं
  6. कटता नहीं वक्त,अब नीड़ भी रिक्त
    परिंदे जो 'पर' खोल उड़ने लगे हैं ।//
    हर घर से पलायन कर रहे घर के चिरागों पर मर्मांतक रचना प्रिय सुधा! मैं इस वेदना को तीन चार सालों से झेल रही सखी! ये खाली नीड़ डराने लगे है! आँखे नम कर गई ये रचना 😞

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