कटता नहीं बक्त, अब नीड़ भी रिक्त
वो मंजिल को अपनी निकलने लगे हैं,
कदम चार माँ-बाप भी संग चले हैं ।
बीती उमर के अनुभव बताकर
आशीष में हाथ बढ़ने लगे हैं ।
सुबह शाम हर पल फिकर में उन्हीं की
अतीती सफर याद करने लगे ह़ै ।
सफलता से उनकी खुश तो बहुत हैं
मगर दूरियों से मचलने लगे हैं ।
राहें सुगम हों जीवन सफर की
दुआएं सुबह शाम करने लगे हैं ।
मंदिम लगे जब कभी नूर उनका
अर्चन में प्रभु पे बिगड़ने लगे हैं ।
कटता नहीं वक्त,अब नीड़ भी रिक्त
परिंदे जो 'पर' खोल उड़ने लगे हैं ।
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पढ़िए एक और गजल इसी ब्लॉग पर
● सफर ख्वाहिशों का थमा धीरे-धीरे
पंछी उड़ ही जाते हैं नीड़ सूना करके
जवाब देंहटाएंमुट्ठीभर देकर खुशियाँ यादें दूना करके
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क्या कहें महसूस कर सकते हैं आपकी विह्वलता, भावपूर्ण अभिव्यक्ति दी।
सस्नेह प्रणाम।
वाह
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंS शानदार
जवाब देंहटाएंशब्दों के बहुत सुंदर मोती पिरोए हैं,मन की विह्वलता को दर्शाती बहुत सुन्दर रचना।
जवाब देंहटाएंसफलता से उनकी खुश तो बहुत हैं
जवाब देंहटाएंमगर दूरियों से मचलने लगे हैं ।
सुंदर... प्रासंगिक विषय पर लिखी गयी ग़ज़ल...
माँ बाप के महत्त्व को भूल जाते हैं हम लोग अक्सर ...
जवाब देंहटाएंआपने बाखूबी हर पंक्ति में इस को बताने का प्रयास किया है ...
कटता नहीं वक्त,अब नीड़ भी रिक्त
जवाब देंहटाएंपरिंदे जो 'पर' खोल उड़ने लगे हैं ।//
हर घर से पलायन कर रहे घर के चिरागों पर मर्मांतक रचना प्रिय सुधा! मैं इस वेदना को तीन चार सालों से झेल रही सखी! ये खाली नीड़ डराने लगे है! आँखे नम कर गई ये रचना 😞