बसंत की पदचाप
चित्र साभार प्रिंट्स से
बसंत की पदचाप सुन
शिशिर अब सकुचा रही
कुहासे की चादर समेटे
्पतली गली से जा रही ।
हवाएं उधारी ले धरा
पात पीले झड़ा रही
नवांकुर से होगा नवसृजन
मन्द-मन्द मुस्करा रही ।
फूली सरसों लहलहाके
सबके मन को भा रही
अमराइयों में झूम-झूमे
कोकिला भी गा रही ।
शिशिर देखे पीछे मुड़ के
जीते कैसे मुझसे लड़ के !
रवि-रश्मियां भी खिलखिला के
वसंत-राग गा रही ।
पंखुड़ियाँ फूलों लदी
सुगन्ध हैंं फैला रही
गुनगुना रहे भ्रमर
तितलियां मंडरा रही ।
नवेली सी सजी धरा
घूँघट में यूँ शरमा रही
रति स्वयं ज्यों काम संग
अब धरा में आ रही ।
टिप्पणियाँ
घूँघट में यूँ शरमा रही
रति स्वयं ज्यों काम संग
अब धरा में आ रही.......।
बहुत ही सुंदर रचना, सुधा दी।
जीते कैसे मुझसे लड़ के !
रवि-रश्मियां भी खिलखिलाके
वसंत-राग गा रही .........वाह !बेहतरीन सृजन आदरणीया दीदी जी
सस्नेह आभार।
सस्नेह आभार।
बसंत की पदचाप सुन
शिशिर अब सकुचा रही
कुहासे की चादर लपेटे
पतली गली से का रही
बेहतरीन प्रस्तुति
सस्नेह आभार...।
सादर आभार आपका।
सस्नेह आभार।
सस्नेह आभार।
ब्लॉग पर आपका स्वागत है।
सस्नेह आभार।
सादर आभार।
घूँघट में यूँ शरमा रही
रति स्वयं ज्यों काम संग
अब धरा में आ रही.......
वाह !!! अनुपम सौंदर्य बिखेरता बसंत की पदचाप ,लाज़बाब सुधा जी ,सादर नमन
हवाएं उधारी ले धरा
पात पीले झड़ा रही
नवांकुर से होगा नवसृजन
मन्द-मन्द मुस्करा रही
बहुत प्यारा प्रकृति गान !
सस्नेह आभार।
सादर आभार।
सस्नेह आभार।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (17-02-2020) को 'गूँगे कंठ की वाणी'(चर्चा अंक-3614) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
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रवीन्द्र सिंह यादव
बहुत सुंदर रचना
सादर आभार।
सस्नेह आभार।