सफर ख्वाहिशों का थमा धीरे -धीरे
मौसम बदलने लगा धीरे-धीरे
जगा आँख मलने लगा धीरे-धीरे ।
जमाना जो आगे बहुत दूर निकला
रुका , साथ चलने लगा धीरे - धीरे।
हुआ चाँद रोशन खिली सी निशा है
कि बादल जो छँटने लगा धीरे-धीरे ।
खुशी मंजिलों की मनायें या मानें
सफर ख्वाहिशों का थमा धीरे -धीरे।
अवचेतन में आशा का दीपक जला तो
मुकद्दर बदलने लगा धीरे-धीरे ।
हवा मन - मुआफिक सी बहने लगी है
मन में विश्वास ऐसा जगा धीरे -धीरे ।
अनावृत हुआ सच भले देर से ही
लगा टूटने अब भरम धीरे-धीरे ।
टिप्पणियाँ
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जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
मुकद्दर बदलने लगा धीरे-धीरे ।
बहुत सुन्दर भावाभिव्यक्ति सुधा जी !
सादर आभार ।
सफर ख्वाहिशों का थमा धीरे -धीरे।
एक बार पढ़ा, फिर पढ़ा
और फिर पढ़ा धीरे धीरे
बहुत सुंदर रचना!!
हर शेर मुकम्मल और बेहतरीन है।
सस्नेह प्रणाम।
लगा टूटने अब भरम धीरे-धीरे ।
बहुत सुन्दर रचना यह सच है कि यदि भरम टूट जाए तभी सत्य से परिचय हो सकता है।साधुवाद।
जो मन में है छलका।
बहकने लगी है,
गजल धीरे - धीरे।
सुन्दर प्रस्तुति
लफ्ज़ दर लफ्ज़ पढ़ते गए
असर हुआ हम पर धीरे धीरे ।
और फिर पढ़ा धीरे धीरे.......बहुत सुंदर रचना!!
हवा मन - मुआफिक सी बहने लगी है
मन में विश्वास ऐसा जगा धीरे -धीरे ।
ये विश्वास बढ़ता रहें धीरे धीरे।
बहुत खूबसूरत गज़ल।