धन्य-धन्य कोदंड (कुण्डलिया छंद)

💐 विजयादशमी पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं💐 पुरुषोत्तम श्रीराम का, धनुष हुआ कोदंड । शर निकले जब चाप से, करते रोर प्रचंड ।। करते रोर प्रचंड, शत्रुदल थर थर काँपे। सुनकर के टंकार, विकल हो बल को भाँपे ।। कहे सुधा कर जोरि, कर्म निष्काम नरोत्तम । सर्वशक्तिमय राम, मर्यादा पुरुषोत्तम ।। अति गर्वित कोदंड है, सज काँधे श्रीराम । हुआ अलौकिक बाँस भी, करता शत्रु तमाम ।। करता शत्रु तमाम, साथ प्रभुजी का पाया । कर भीषण टंकार, सिंधु का दर्प घटाया ।। धन्य धन्य कोदंड, धारते जिसे अवधपति । धन्य दण्डकारण्य, सदा से हो गर्वित अति । सादर अभिनंदन 🙏🙏 पढ़िए प्रभु श्रीराम पर एक और रचना मनहरण घनाक्षरी छंद में ● आज प्राण प्रतिष्ठा का दिन है
ग़ज़ल अच्छी लिखी है आपने।
जवाब देंहटाएंसादर आभार एवं धन्यवाद आ.जितेन्द्र जी !
हटाएंहार्दिक धन्यवाद एवं आभार आ.सर ! मेरी रचना को पाँच लिंकों के आनंद मंच पर चयन करने हेतु ।
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरुवार (27-04-2023) को "सारे जग को रौशनी, देता है आदित्य" (चर्चा अंक 4659) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
तहेदिल से धन्यवाद आ.शास्त्री जी ! मेरी रचना को चयन करने के लिए ।
हटाएंसादर आभार ।
अवचेतन में आशा का दीपक जला तो
जवाब देंहटाएंमुकद्दर बदलने लगा धीरे-धीरे ।
बहुत सुन्दर भावाभिव्यक्ति सुधा जी !
तहेदिल से धन्यवाद एवं आभार मीनाजी !
हटाएंकभी-कभी कोई बात जो मन में घुमड़ रही होती है,वही अचानक सामने आ जाती है. पढ़ कर ऐसा लगा. बादल छंट गया धीरे-धीरे. अभिनन्दन !
जवाब देंहटाएंजी, तहेदिल से धन्यवाद एवं आभार आपका ।
हटाएंखुशी मंजिलों की मनायें या मानें
जवाब देंहटाएंसफर ख्वाहिशों का थमा धीरे -धीरे।
एक बार पढ़ा, फिर पढ़ा
और फिर पढ़ा धीरे धीरे
बहुत सुंदर रचना!!
तहेदिल से धन्यवाद एवं आभार रूपा जी !
हटाएंवाह्ह दी लाज़वाब गज़ल लिखी है आपने।
जवाब देंहटाएंहर शेर मुकम्मल और बेहतरीन है।
सस्नेह प्रणाम।
तहेदिल से धन्यवाद एवं आभार प्रिय श्वेता !
हटाएंगंगा-जमुनी तहज़ीब की नुमाइंदगी करने वाली ज़ुबान में ग़ज़ल पढ़ते वक़्त पहले तो दिलो-दिमाग में खटकती है फिर मन को ये भाने लगती है - धीरे-धीरे है !
जवाब देंहटाएंतहेदिल से धन्यवाद एवं आभार आदरणीय सर !
हटाएंअनावृत हुआ सच भले देर से ही
जवाब देंहटाएंलगा टूटने अब भरम धीरे-धीरे ।
बहुत सुन्दर रचना यह सच है कि यदि भरम टूट जाए तभी सत्य से परिचय हो सकता है।साधुवाद।
सस्नेह आभार भाई !
हटाएंवाह! सुन्दर भावाभिव्यक्ति सुधा जी ।
जवाब देंहटाएंहृदयतल से धन्यवाद एवं आभार शुभा जी !
हटाएंसुरा - सा सुधा रस,
जवाब देंहटाएंजो मन में है छलका।
बहकने लगी है,
गजल धीरे - धीरे।
हृदयतल से धन्यवाद एवं आभार आ.विश्वमोहन जी !
हटाएंहृदयतल से धन्यवाद एवं आभार आ.विश्वमोहन जी !
हटाएंबहुत सुंदर ग़ज़ल
जवाब देंहटाएंतहेदिल से धन्यवाद एवं आभार सखी !
हटाएंवाह! बहुत खूबसूरत 😍
जवाब देंहटाएंतहेदिल से धन्यवाद एवं आभार प्रिय मनीषा !
हटाएंसपनों का सफर शुरू हुआ है धीरे- धीरे
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति
दिल से धन्यवाद एवं आभार रितु जी !
हटाएंबहुत खूबसूरत सृजन।
जवाब देंहटाएंलफ्ज़ दर लफ्ज़ पढ़ते गए
असर हुआ हम पर धीरे धीरे ।
सादर आभार एवं धन्यवाद आ.संगीता जी !
हटाएंसुंदर काव्य सृजन
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद मनोज जी !
हटाएंएक बार पढ़ा, फिर पढ़ा
जवाब देंहटाएंऔर फिर पढ़ा धीरे धीरे.......बहुत सुंदर रचना!!
हार्दिक आभार एवं धन्यवाद संजय जी !
हटाएंबहुत ही सुंदर गजल, सुधा दी।
जवाब देंहटाएंदिल से धन्यवाद आपका ।
हटाएंबहुत ही सुंदर गजल, सुधा दी।
जवाब देंहटाएंहृदयतल से धन्यवाद एवं आभार ज्योति जी !
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जवाब देंहटाएंहवा मन - मुआफिक सी बहने लगी है
मन में विश्वास ऐसा जगा धीरे -धीरे ।
ये विश्वास बढ़ता रहें धीरे धीरे।
बहुत खूबसूरत गज़ल।
विश्वास जगा धीमे धीमे मेरा। बहुत बहुत धन्यवाद। इस ब्लॉग को hom स्क्रीन पर रख रहा हूं। बहुत उत्साह वर्धक हैं।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत मधुर और सराहनीय रचना
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