तुम कहते रहोगे वो सुनेंगे नहीं
अब तुम्हारे ही तुमसे मनेंगे नहीं
इक कदम जो उठाया सबक देने को
चाहकर भी कदम अब रुकेंगे नहीं
जा चुका जो समय हाथ से अब तेरे
जिन्दगी भर वो पल अब मिलेंगे नहीं
जोड़ते -जोड़ते वक्त लगता बहुत
टूटे रिश्ते सहज तो जुड़ेंगे नहीं
तेरे 'मैं' के इस फैलाव की छाँव में
तेरे नन्हे भी खुलके बढेंगे नहीं
छोटी राई का पर्वत बना देख ले
खाइयां पाटकर भी पटेंगे नहीं
चढ़ ले चढ़ ले कहा तो चढ़े पेड़ पर
अब उतरने को कोई कहेंगे नहीं
निज का अभिमान इतना बड़ा क्या करें
घर की देहरी पे जो झुक सकेंगे नहीं
जो दलीलें हों झूठी, और इल्ज़ाम भी
सच के साहस के आगे टिकेंगे नहीं
दिल के रिश्तों को जोड़ा फिर तोड़ा, मगर
खून के हैं जो रिश्ते , मिटेंगे नहीं
32 टिप्पणियां:
बेहतरीन ग़ज़ल कही है आपने सुधा जी। आप कम लिखती हैं लेकिन जब लिखती हैं तो लाजवाब कर देती हैं।
बहुत ही सुंदर लिखा है आपने। ।।।
सादर नमस्कार,
आपकी प्रविष्टि् की चर्चा शुक्रवार ( 25-04-2021) को
"धुआँ धुआँ सा आसमाँ क्यूँ है" (चर्चा अंक- 4047) पर होगी। चर्चा में आप सादर आमंत्रित हैं।
धन्यवाद.
…
"मीना भारद्वाज"
निज का अभिमान इतना बड़ा क्या करें
घर की देहरी पे जो झुक सकेंगे नहीं
बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति, सुधा दी।
बहुत ख़ूब !
लेकिन आज के डिजिटल दौर में खून के रिश्ते भी गाढ़े नहीं रहे बल्कि वर्चुअल हो गए हैं.
बहुत सुंदर।
चढ़ ले चढ़ ले कहा तो चढ़े पेड़ पर
अब उतरने को कोई कहेंगे नहीं। लाजवाब
तहेदिल से धन्यवाद जितेंद्र जी! सराहनासम्पन्न प्रतिक्रिया द्वारा उत्साहवर्धन हेतु...
सादर आभार।
हार्दिक धन्यवाद एवं आभार पुरुषोत्तम जी!
उत्साहवर्धन हेतु...।
सहृदय धन्यवाद एवं आभार मीना जी !मेरी रचना को चर्चा मंच पर स्थान देने हेतु...।
तहेदिल से धन्यवाद ज्योति जी!उत्साहवर्धन हेतु...।
सस्नेह आभार।
जी, सर! वैसे आप बिल्कुल सही कह रहे हैं।
तहेदिल से धन्यवाद आपका।
सादर आभार।
सस्नेह आभार एवं धन्यवाद भाई!
कृपया शुक्रवार के स्थान पर रविवार पढ़े । धन्यवाद.
बेहतरीन रचना सखी
जोड़ते -जोड़ते वक्त लगता बहुत
टूटे रिश्ते सहज तो जुड़ेंगे नहीं
वाकई अहम की दीवार बीच में खड़ी हो तो रिश्तों का जुड़ना सहज नहीं होता, सुंदर संदेश देती रचना
वाह! बहुत खूबसूरत पंक्तियाँ।
सहृदय धन्यवाद एवं आभार सखी!
तहेदिल से धन्यवाद एवं आभार आ.अनीता जी!
सादर आभार एवं धन्यवाद ओंकार जी!
हार्दिक धन्यवाद एवं आभार नितीश जी !
वाह!सुधा जी ,लाजवाब सृजन ।
तेरे मैं' के इस फैलाव की छाँव में
तेरे नन्हे भी खुलके बढेंगे नहीं ।
ये "मैं " न जाने क्यों इतना हावी रहता है ।
खूबसूरत ग़ज़ल । ग़ज़ल का हर शेर दिल से निकल हुआ और दिल तक पहुँचा ।
वाह बस वाह
दिल के रिश्तों को जोड़ा फिर तोड़ा, मगर
खून के हैं जो रिश्ते , मिटेंगे नहीं
बहुत खूब कहा आपने,ये रिश्तें जो एक बार बंध गए लाख खींचातानी करों टूटेंगे तो नहीं हाँ,दरार भले पड़ जाये।
एक-एक शेर लाज़बाब ,सादर नमन सुधा जी
तहेदिल से धन्यवाद एवं आभार शुभा जी!
अत्यंत आभार एवं धन्यवाद संगीता जी!
हार्दिक धन्यवाद एवं आभार कामिनी जी!
तेरे 'मैं' के इस फैलाव की छाँव में
तेरे नन्हे भी खुलके बढेंगे नहीं
छोटी राई का पर्वत बना देख ले
खाइयां पाटकर भी पटेंगे नहीं...बहुत ही सटीक संदर्भों को उठाती हुई खूबसूरत गजल, खासतौर से अहम पर खास चोट कर गई आपकी उत्कृष्ट लेखनी । बहुत शुभकामनाएं सुधा जी ।
सहृदय धन्यवाद एवं आभार जिज्ञासा जी!
निज का अभिमान इतना बड़ा क्या करें
घर की देहरी पे जो झुक सकेंगे नहीं
क्या बात है प्रिय सुधा जी! जीवन के विभिन्न संदर्भो पर गहरे चिंतन से भरी रचना में खरी बात मन को छू गयी! सच में अपने हर हाल में अपने होते हैं और निजदेहरी के लिए मान क्या अभिमान क्या!! सटीक विमर्श 👌👌👌👌भावपूर्ण लेखन के लिए हार्दिक शुभकामनाएं 🌹🌹💐❤🙏
सहृदय धन्यवाद एवं आभार रेणु जी!सारगर्भित प्रतिक्रिया द्वारा उत्साहवर्धन हेतु।
सही कहा सुधा जी ख़ून के रिश्ते कभी मिटते नहीं
गहन भाव सृजन
सहृदय धन्यवाद रितु जी!
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