बहुत समय से बोझिल मन को इस दीवाली खोला

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बहुत समय से बोझिल मन को  इस दीवाली खोला भारी भरकम भरा था उसमें  उम्मीदों का झोला कुछ अपने से कुछ अपनों से  उम्मीदें थी पाली कुछ थी अधूरी, कुछ अनदेखी  कुछ टूटी कुछ खाली बड़े जतन से एक एक को , मैंने आज टटोला बहुत समय से बोझिल मन को इस दीवाली खोला दीप जला करके आवाहन,  माँ लक्ष्मी से बोली मनबक्से में झाँकों तो माँ ! भरी दुखों की झोली क्या न किया सबके हित,  फिर भी क्या है मैने पाया क्यों जीवन में है मंडराता ,  ना-उम्मीदी का साया ? गुमसुम सी गम की गठरी में, हुआ अचानक रोला बहुत समय से बोझिल मन को इस दीवाली खोला प्रकट हुई माँ दिव्य रूप धर,  स्नेहवचन फिर बोली ये कैसा परहित बोलो,  जिसमें उम्मीदी घोली अनपेक्षित मन भाव लिए जो , भला सभी का करते सुख, समृद्धि, सौहार्द, शांति से,  मन की झोली भरते मिले अयाचित सब सुख उनको, मन है जिनका भोला बहुत समय से बोझिल मन को इस दीवाली खोला मैं माँ तुम सब अंश मेरे,  पर मन मजबूत रखो तो नहीं अपेक्षा रखो किसी से,  निज बल स्वयं बनो तो दुख का कारण सदा अपेक्षा,  मन का बोझ बढ़ाती बदले में क्या मिला सोचकर,  ...

कबूतर की दादागिरी


Pigeon'sdadagiri
                    चित्र साभार pixabay से


एक कबूतर जमा रहा है,

 बिखरे दानों पर अधिकार ।

शेष कबूतर दूर हो रहे,

उसकी दादागिरी से हार ।


गोल घूमता गुटर-गुटर कर ,

गुस्से से फूला जाता ।

एक-एक के पीछे पड़कर,

उड़ा सभी को दम पाता ।


श्वेत कबूतर तो कुष्ठी से,

हैं अछूत इसके आगे ।

देख दूर से इसके तेवर,

बेचारे डरकर भागे ।


बैठ मुंडेरी तिरछी नजर से,

सबकी बैंड बजाता वो ।

सुबह से पड़ा दाना छत पर,

पूरे दिन फिर खाता वो ।


समझ ना आता डर क्यों उसका,

इतना माने पूरा दल ?

मिलकर सब ही उसे भगाने,

क्यों न लगाते अपना बल ?


किस्सों में पढ़ते हैं हम जो,

क्या ये सच में है सरदार ?

या कोई बागी नेता ये,

बना रहा अपनी सरकार ?


नील गगन के पंछी भी क्या,

झेलते होंगे सियासी मार ?

इन उन्मुक्त उड़ानों का क्या,

भरते होंगे ये कर भार ?


टिप्पणियाँ

  1. सुंदर कल्पना...जानवरों में वर्चस्व की लड़ाई तो होती सुनी है....विशेषकर शेर इत्यादि में...शायद कबूतरों में भी होती हो लेकिन ये लड़ाई सियासी तो नहीं ही होती होगी....

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    उत्तर
    1. पता नहीं नैनवाल जी! वाकई कई दिनों एक कबूतर ऐसा कर रहा है मेरी छत पर....जहाँ सुबह ढ़ेर सारे कबूतर मिलकर दाना चुगते थे एक दो लड़ते भी थे ...पर आजकल कुछ दिनों से ऐसा हो रहा है वह फिर अकेले चुगता है पूरा दाना।
      हाँ सियासत तो क्या होती होगी पर दबदबा बहुत है उसका।
      तहेदिल से धन्यवाद एवं आभार आपका।

      हटाएं
  2. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार(१५ -१०-२०२१) को
    'जन नायक श्री राम'(चर्चा अंक-४२१८)
    पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

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    उत्तर
    1. तहेदिल से धन्यवाद प्रिय अनीता जी! मेरी रचना को चर्चा मंच पर स्थान देने हेतु।
      सस्नेह आभार।

      हटाएं
  3. समझ ना आता डर क्यों उसका,
    इतना माने पूरा दल ?
    मिलकर सब ही उसे भगाने,
    क्यों न लगाते अपना बल ?
    यह तो कबूतर की कहानी है
    पर हकीकत में हम इंसानों मैं भी ऐसा ही हो रहा है!
    हमारी और पक्षियों की दशा कुछ मामलों में एक समान ही है!
    बेहतरीन अभिव्यक्ति

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. जी, सही कहा प्रिय मनीषा जी! आपने...पर हम मनुष्य ही करते होंगे ऐसा अन्य प्राणी नहीं ...ऐसा मैं सोचती थी। कबूतरों में ऐसी स्वार्थी प्रवृत्ति देख आश्चर्य में हूँ....
      हृदयतल से धन्यवाद विमर्श हेतु।

      हटाएं
  4. अच्छी कविता है यह सुधा जी। हम भी वर्षों से कबूतरों को दाने खिलाते समय ऐसे एकाध कबूतर को देखते ही हैं। आपने कबूतरों के समूह का रूपक लेते हुए ऐसी प्रवृत्ति के लिए मानवीय परिप्रेक्ष्य में संकेत किया है। गहन मनन का विषय है यह। वैसे सरल स्वभाव के कबूतरों की तुलना में मानव स्वभाव जटिल भी होता है तथा व्यक्ति से व्यक्ति भिन्नता लिए हुए भी। किन्तु स्वीकार करना होगा कि आपने निश्चय ही एक अनूठी कविता लिखी है, एक अछूते विषय पर लेखनी चलाई है तथा कुछ ऐसे विचार प्रस्तुत किए हैं जिन पर विचारशील एवं संवेदनशील व्यक्तियों को समय देना चाहिए। इसके लिए अभिनन्दन की पात्र तो आप हैं ही।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. तहेदिल से धन्यवाद आ.जितेन्द्र जी सराहना सम्पन्न प्रतिक्रिया से उत्साहवर्धन करने हेतु....रचना का मंतव्य एवं मर्म तक पहुँचकर सार स्पष्ट करने हेतु अत्यंत आभार आपका।

      हटाएं
  5. सुधा दी, कबूतरों के माध्यम से इंसान की फिदरत का बहुत ही सुंदर तरीके से वर्णन किया है आपने। बहुत ही गहनता से कबूतरों की वर्चस्व की लड़ाई का वर्णन।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. तहेदिल से धन्यवाद एवं आभार ज्योति जी!आपके सराहनीय अनमोल प्रतिक्रिया के लिए।

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  6. रोजमर्रा से किसी दृश्य को उठा उसको एहसासों से जोड़कर फिर कवि की कल्पना और तर्क बुद्धि के संयोग से आपने एक अनूठा अछूता सा काव्य रच दिया सुधा जी।
    नमन आपकी लेखनी को पक्षियों में भी नेताशाही के गुण पनप रहे हैं।
    बहुत सुंदर सृजन।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. जी,आ.कुसुम जी! पक्षियों की ऐसी नेताशाही देख हैरान हूँ मैं....
      सराहनीय प्रतिक्रिया से प्रोत्साहित करने हेतु तहेदिल से धन्यवाद एवं आभार आपका।

      हटाएं
  7. अत्यंत आभार एवं धन्यवाद सर!

    जवाब देंहटाएं
  8. वर्चस्व की लड़ाई का सुंदर और यथार्थवादी दृष्टिकोण एक पक्षी को केंद्र में रख कर आपने किया है, वह बहुत ही सराहनीय है सुधा जी ।। कभी कभी मन के किसी कोने में छुपी भावना को पक्षी या पशु रूपांतरित करवा देते हैं,कभी कभी मैं भी ऐसे दृश्य देखती हूं फिर महसूस करती हूं,तब! जब मेरे आंगन में कई सारी गौरैया धीरे धीरे चूं चूं करते करते अचानक अपना सुर तेज कर देती हैं तो अक्सर लगता है कि वो किसी को पुकार रहीं,लड़ रहीं या शिकायत कर रहीं हैं। सुंदर सृजन के लिए हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई सुधा जी ।

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    उत्तर
    1. जी, जिज्ञासा जी!सही कहा आपने...
      तहेदिल से धन्यवाद एवं आभार आपका उत्साहवर्धन हेतु।

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  9. इंसान तो पक्षियों से कुछ न सीख पाया लेकिन लगता है अब पक्षी ही इंसान से दबंगई सीख रहे।
    यथार्थ चित्रण सुंदर शब्दों में बांधा है ।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. दबंगई! बिल्कुल सही कहा आपने....ये पशु-पक्षी इंसानो से दबंगई सीख रहे हैं..
      हृदयतल से धन्यवाद एवं आभार आ.संगीता जी!आपकी सराहना पाकर अति प्रोत्साहित हूँ।

      हटाएं

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