तन में मन है या मन में तन ?
ये मन भी न पल में इतना वृहद कि समेट लेता है अपने में सारे तन को, और हवा हो जाता है जाने कहाँ-कहाँ ! तन का जीव इसमें समाया उतराता उकताता जैसे हिचकोले सा खाता, भय और विस्मय से भरा, बेबस ! मन उसे लेकर वहाँ घुस जाता है जहाँ सुई भी ना घुस पाये, बेपरवाह सा पसर जाता है। बेचारा तन का जीव सिमटा सा अपने आकार को संकुचित करता, समायोजित करता रहता है बामुश्किल स्वयं को इसी के अनुरूप वहाँ जहाँ ये पसर चुका होता है सबके बीच। लाख कोशिश करके भी ये समेटा नहीं जाता, जिद्दी बच्चे सा अड़ जाता है । अनेकानेक सवाल और तर्क करता है समझाने के हर प्रयास पर , और अड़ा ही रहता है तब तक वहीं जब तक भर ना जाय । और फिर भरते ही उचटकर खिसक लेता वहाँ से तन की परवाह किए बगैर । इसमें निर्लिप्त बेचारा तन फिर से खिंचता भागता सा चला आ रहा होता है इसके साथ, कुछ लेकर तो कुछ खोकर अनमना सा अपने आप से असंतुष्ट और बेबस । हाँ ! निरा बेबस होता है ऐसा तन जो मन के अधीन हो। ये मन वृहद् से वृहद्तम रूप लिए सब कुछ अपने में समेटकर करता रहता है मनमानी । वहीं इसके विपरीत कभी ये पलभर में सिकुड़कर या सिमटकर अत्यंत सूक्ष्म रूप में छिपक...
सुंदर कल्पना...जानवरों में वर्चस्व की लड़ाई तो होती सुनी है....विशेषकर शेर इत्यादि में...शायद कबूतरों में भी होती हो लेकिन ये लड़ाई सियासी तो नहीं ही होती होगी....
जवाब देंहटाएंपता नहीं नैनवाल जी! वाकई कई दिनों एक कबूतर ऐसा कर रहा है मेरी छत पर....जहाँ सुबह ढ़ेर सारे कबूतर मिलकर दाना चुगते थे एक दो लड़ते भी थे ...पर आजकल कुछ दिनों से ऐसा हो रहा है वह फिर अकेले चुगता है पूरा दाना।
हटाएंहाँ सियासत तो क्या होती होगी पर दबदबा बहुत है उसका।
तहेदिल से धन्यवाद एवं आभार आपका।
जी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार(१५ -१०-२०२१) को
'जन नायक श्री राम'(चर्चा अंक-४२१८) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
तहेदिल से धन्यवाद प्रिय अनीता जी! मेरी रचना को चर्चा मंच पर स्थान देने हेतु।
हटाएंसस्नेह आभार।
समझ ना आता डर क्यों उसका,
जवाब देंहटाएंइतना माने पूरा दल ?
मिलकर सब ही उसे भगाने,
क्यों न लगाते अपना बल ?
यह तो कबूतर की कहानी है
पर हकीकत में हम इंसानों मैं भी ऐसा ही हो रहा है!
हमारी और पक्षियों की दशा कुछ मामलों में एक समान ही है!
बेहतरीन अभिव्यक्ति
जी, सही कहा प्रिय मनीषा जी! आपने...पर हम मनुष्य ही करते होंगे ऐसा अन्य प्राणी नहीं ...ऐसा मैं सोचती थी। कबूतरों में ऐसी स्वार्थी प्रवृत्ति देख आश्चर्य में हूँ....
हटाएंहृदयतल से धन्यवाद विमर्श हेतु।
वाह!बहुत खूब 👌
जवाब देंहटाएंहार्दिक धन्यवाद एवं आभार शुभा जी !
हटाएंअच्छी कविता है यह सुधा जी। हम भी वर्षों से कबूतरों को दाने खिलाते समय ऐसे एकाध कबूतर को देखते ही हैं। आपने कबूतरों के समूह का रूपक लेते हुए ऐसी प्रवृत्ति के लिए मानवीय परिप्रेक्ष्य में संकेत किया है। गहन मनन का विषय है यह। वैसे सरल स्वभाव के कबूतरों की तुलना में मानव स्वभाव जटिल भी होता है तथा व्यक्ति से व्यक्ति भिन्नता लिए हुए भी। किन्तु स्वीकार करना होगा कि आपने निश्चय ही एक अनूठी कविता लिखी है, एक अछूते विषय पर लेखनी चलाई है तथा कुछ ऐसे विचार प्रस्तुत किए हैं जिन पर विचारशील एवं संवेदनशील व्यक्तियों को समय देना चाहिए। इसके लिए अभिनन्दन की पात्र तो आप हैं ही।
जवाब देंहटाएंतहेदिल से धन्यवाद आ.जितेन्द्र जी सराहना सम्पन्न प्रतिक्रिया से उत्साहवर्धन करने हेतु....रचना का मंतव्य एवं मर्म तक पहुँचकर सार स्पष्ट करने हेतु अत्यंत आभार आपका।
हटाएंसुधा दी, कबूतरों के माध्यम से इंसान की फिदरत का बहुत ही सुंदर तरीके से वर्णन किया है आपने। बहुत ही गहनता से कबूतरों की वर्चस्व की लड़ाई का वर्णन।
जवाब देंहटाएंतहेदिल से धन्यवाद एवं आभार ज्योति जी!आपके सराहनीय अनमोल प्रतिक्रिया के लिए।
हटाएंरोजमर्रा से किसी दृश्य को उठा उसको एहसासों से जोड़कर फिर कवि की कल्पना और तर्क बुद्धि के संयोग से आपने एक अनूठा अछूता सा काव्य रच दिया सुधा जी।
जवाब देंहटाएंनमन आपकी लेखनी को पक्षियों में भी नेताशाही के गुण पनप रहे हैं।
बहुत सुंदर सृजन।
जी,आ.कुसुम जी! पक्षियों की ऐसी नेताशाही देख हैरान हूँ मैं....
हटाएंसराहनीय प्रतिक्रिया से प्रोत्साहित करने हेतु तहेदिल से धन्यवाद एवं आभार आपका।
अत्यंत आभार एवं धन्यवाद सर!
जवाब देंहटाएंवाह, बहुत ख़ूब
जवाब देंहटाएंहृदयतल से धन्यवाद एवं आभार आदरणीय!
हटाएंवर्चस्व की लड़ाई का सुंदर और यथार्थवादी दृष्टिकोण एक पक्षी को केंद्र में रख कर आपने किया है, वह बहुत ही सराहनीय है सुधा जी ।। कभी कभी मन के किसी कोने में छुपी भावना को पक्षी या पशु रूपांतरित करवा देते हैं,कभी कभी मैं भी ऐसे दृश्य देखती हूं फिर महसूस करती हूं,तब! जब मेरे आंगन में कई सारी गौरैया धीरे धीरे चूं चूं करते करते अचानक अपना सुर तेज कर देती हैं तो अक्सर लगता है कि वो किसी को पुकार रहीं,लड़ रहीं या शिकायत कर रहीं हैं। सुंदर सृजन के लिए हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई सुधा जी ।
जवाब देंहटाएंजी, जिज्ञासा जी!सही कहा आपने...
हटाएंतहेदिल से धन्यवाद एवं आभार आपका उत्साहवर्धन हेतु।
बहुत खूब सृजन
जवाब देंहटाएंतहेदिल से धन्यवाद भारती जी!
हटाएंइंसान तो पक्षियों से कुछ न सीख पाया लेकिन लगता है अब पक्षी ही इंसान से दबंगई सीख रहे।
जवाब देंहटाएंयथार्थ चित्रण सुंदर शब्दों में बांधा है ।
दबंगई! बिल्कुल सही कहा आपने....ये पशु-पक्षी इंसानो से दबंगई सीख रहे हैं..
हटाएंहृदयतल से धन्यवाद एवं आभार आ.संगीता जी!आपकी सराहना पाकर अति प्रोत्साहित हूँ।
सुन्दर सृजन
जवाब देंहटाएंअत्यंत आभार आ.जोशी जी!
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