आर्थिक दरकार
बड़ी मेहनत से कमाया
इच्छाओं पर अंकुश लगा
पाई-पाई कर बचाया
कुछ जरूरी जरूरतों के अलावा
नहीं की कभी मन की
न बच्चों को करने दी
बचपन से ही उन्हें
सर सहलाकर समझाया
और कमी-बेसियों के
संग ही पढाया-लिखाया।
बुढापे की देहलीज में जाते -जाते
अपनी जमापूँजी को बड़े जतन से
बेटी - बेटों में बाँटने के लिए
सपरिवार बैठकर
सबने दिमाग घुमाया
बेटियों के ब्याह में दहेज
का बराबर हिसाब लगाया
बेटियों को विदा कर
बचे - खुचे पैसों में
बेटे की नौकरी के मार्फत
लोन का जुगाड़ लगाया
दिन-रात एक कर
शहर में दो कमरों का
छोटा सा घर बनाया
अपनी सफलता पर
आप ही जश्न मना
दसों रोगों के चलते
असमय ही
विदा ले ली संसार से...
इधर बेटा नई-नई नौकरी
माता-पिता का अंतिम संस्कार
बहन-बहनोइयों का सत्कार
लोन का बोझ ढोते
बड़ा ऐश कर रहा
लोगों की नजर में........
सुनी-सुनाई कही-कहाई सुन
अब बहनें भी आ धमकी
अपने शहरी घर
कानूनी कागजात लेकर
भाई ! हम भी हैं हिस्सेदार
इस शहरी घर पर
हमारा भी है अधिकार
हिस्सा दे हमारा !
करे भी तो क्या
कानून का मारा ?...
तिस पर ये विभिन्न त्योहार
रक्षा बंधन फिर भाई दूज
इन्हीं से तो निभता है न
भाई-बहन का पवित्र प्यार!
अब बड़ी आसानी से
कहते हैं लोग-बाग
पड़ौसी और रिश्तेदार
माँ-बाप तक ही होता है मायका
भाई बड़ा खुदगर्ज निकला
नहीं उसे बहिनों से प्यार
मुँह नहीं लगाता उन्हें
हे राम ! माँ-बाप बिना
कैसे सूने हो गये
इन बेचारियों के त्योहार !
क्या करें किसे दोष दें
कौन है इन परिस्थितियों
का जिम्मेदार ?
माँ-बाप और उनके संस्कार ?
या मध्यम वर्ग की
आर्थिक दरकार ?
टिप्पणियाँ
सादर आभार।
तहेदिल से धन्यवाद एवं आभार आपका।
आपकी प्रविष्टि् की चर्चा शुक्रवार (24-09-2021) को "तुम रजनी के चाँद बनोगे ? या दिन के मार्त्तण्ड प्रखर ?" (चर्चा अंक- 4197) पर होगी। चर्चा में आप सादर आमंत्रित हैं।
धन्यवाद सहित।
"मीना भारद्वाज"
सामयिक चिंतनयुक्त मर्मस्पर्शी प्रस्तुति
सादर आभार।
सादर आभार।
सादर आभार।
सस्नेह आभार।
कौन है इन परिस्थितियों
का जिम्मेदार ?
माँ-बाप और उनके संस्कार ?
या मध्यम वर्ग की
आर्थिक दरकार ?
"ये सवाल" गंभीर चोट करते है मन पर शायद, "मध्यम वर्ग की
आर्थिक दरकार" बहुत सी समस्याओं को जन्म देता है।
एक गंभीर चिंतन है आपकी इस सृजन में,सादर नमन सुधा जी
मध्यम वर्ग के व्यक्ति की पीड़ा...।
सच पूरा जीवन समेट दिया आपने... वाह!👌
उसकी ख़ुद की आर्थिक आवश्यकताओं को किसी ने समझा, वो भी उन्हीं परिस्थितियों में से गुजर रहा होता है।
बड़ी मेहनत से कमा रहा
इच्छाओं पर अंकुश लगा रहा
पाई-पाई कर बचा रहा
कुछ जरूरी जरूरतों के अलावा
नहीं कर रहा मन की
न बच्चों को करने दे रहा
बचपन से ही उन्हें
सर सहलाकर समझा रहा
कमी-बेसियों को।
कौन समझ था है बस दोष मोड़ती है दुनिया जिसमें काफी स्वयं भुक्त होगी होते हैं।
बस दुसरे के लिए अलग मान दण्ड।
साधुवाद।
मध्य वर्ग का दुख को बहुत ही अच्छे से बयां किया है आपने!
हृदयतल से धन्यवाद एवं आभार आपका।
हृदयतलसे धन्यवाद एवं आभार आपका।
सही कहा आपने लोग दायित्व जिम्मेदारी या ऋण नहीं देखते बस दौलत देखते हैं बेटे के नाम।
क्या यथार्थ चित्रण किया है आपने मन स्पर्श कर गयी रचना।
बेटियों का दर्द तो सब देखते हैं पर हर बार बेटा ही गलत हो ये जरूरी नहीं।
बहन हो या भाई या माता-पिता परिस्थितियों के अनुसार ही व्यवहार तय होते हैं चाहे कोई भी वर्ग हो।
सारगर्भित अत्यंत प्रभावशाली अभिव्यक्ति।
सस्नेह।
श्रम अनर्थक, तोष किसका?
सुन्दर भाव
सुन्दर सारगर्भित प्रतिक्रिया से उत्साहवर्धन हेतु तहेदिल से धन्यवाद एवं आभार आपका।