तन में मन है या मन में तन ?

चित्र
ये मन भी न पल में इतना वृहद कि समेट लेता है अपने में सारे तन को, और हवा हो जाता है जाने कहाँ-कहाँ ! तन का जीव इसमें समाया उतराता उकताता जैसे हिचकोले सा खाता, भय और विस्मय से भरा, बेबस ! मन उसे लेकर वहाँ घुस जाता है जहाँ सुई भी ना घुस पाये, बेपरवाह सा पसर जाता है। बेचारा तन का जीव सिमटा सा अपने आकार को संकुचित करता, समायोजित करता रहता है बामुश्किल स्वयं को इसी के अनुरूप वहाँ जहाँ ये पसर चुका होता है सबके बीच।  लाख कोशिश करके भी ये समेटा नहीं जाता,  जिद्दी बच्चे सा अड़ जाता है । अनेकानेक सवाल और तर्क करता है समझाने के हर प्रयास पर , और अड़ा ही रहता है तब तक वहीं जब तक भर ना जाय । और फिर भरते ही उचटकर खिसक लेता वहाँ से तन की परवाह किए बगैर । इसमें निर्लिप्त बेचारा तन फिर से खिंचता भागता सा चला आ रहा होता है इसके साथ, कुछ लेकर तो कुछ खोकर अनमना सा अपने आप से असंतुष्ट और बेबस । हाँ ! निरा बेबस होता है ऐसा तन जो मन के अधीन हो।  ये मन वृहद् से वृहद्तम रूप लिए सब कुछ अपने में समेटकर करता रहता है मनमानी । वहीं इसके विपरीत कभी ये पलभर में सिकुड़कर या सिमटकर अत्यंत सूक्ष्म रूप में छिपक...

दर्द होंठों में दबाकर....

old man feet ;full of dust ;

उम्र भर संघर्ष करके

रोटियाँ अब कुछ कमाई

झोपड़ी मे खाट ताने

नींद नैनों जब समायी

नींद उचटी स्वप्न भय से

क्षीण काया जब बिलखती

दर्द होठों में दबाकर

भींच मुट्ठी रूह तड़पती...


शिथिल देह सूखा गला जब

घूँट जल को है तरसता

हस्त कंपित जब उठा वो

सामने मटका भी हँसता

ब्याधियाँ तन बैठकर फिर

आज बिस्तर हैं पकड़ती

दर्द होंठों में दबाकर

भींच मुट्ठी रुह तड़पती


ये मिला संघर्ष करके

मौत ताने मारती है

असह्य सी इस पीर से

अब जिन्दगी भी हारती है

खत्म होती देख लिप्सा

रोटियाँ भी हैं सुबकती

दर्द होंठों में दबाकर

भींच मुट्ठी रुह तड़पती



                          चित्र साभार गूगल से....



ऐसे ही एक और रचना वृद्धावस्था पर

 "वृद्धावस्था  "








टिप्पणियाँ

  1. यथार्थ !
    बहुत सुंदर नव गीत सुना जी अभिनव व्यंजनाएं।
    आपने दृश्य उत्पन्न कर दिया है।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. दिल से धन्यवाद कुसुम जी!उत्साहवर्धन हेतु....
      सस्नेह आभार।

      हटाएं
  2. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार १८ दिसंबर २०२० के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. अत्यंत आभार एवं धन्यवाद श्वेता जी! मेरी रचना साझा करने हेतु।

      हटाएं
  3. शिथिल देह सूखा गला जब

    घूँट जल को है तरसता

    हस्त कंपित जब उठा वो

    दूर मटका उसपे हँसता

    ब्याधियाँ तन बैठकर फिर

    आज बिस्तर हैं पकड़ती
    बहुत सुंदर यथार्थ चित्रण करती पंक्तियाँ। वाह क्या खूब।

    जवाब देंहटाएं
  4. उत्तर
    1. बहुत बहुत धन्यवाद शुभा जी!
      सस्नेह आभार।

      हटाएं
  5. अत्यंत आभार एवं धन्यवाद मीना जी!मुझे चर्चा मंच में शामिल करने हेतु...।

    जवाब देंहटाएं
  6. मन को छूता बहुत ही हृदयस्पर्शी सृजन दी।
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  7. गोपेश मोहन जैसवाल18 दिसंबर 2020 को 8:11 am बजे

    वृद्धावस्था का भयावह, निराशापूर्ण किन्तु सच्चा चित्रण !

    जवाब देंहटाएं
  8. मर्मस्पर्शी व भावपूर्ण रचना - - साधुवाद।

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  9. दिल को छूती सुंदर रचना, सुधा दी।

    जवाब देंहटाएं
  10. अत्यंत मर्मस्पर्शी कविता सिरजी है आपने सुधा जी ।

    जवाब देंहटाएं
  11. उम्र जीवन को किस अवस्वथा में ले आता है जहाँ कई बार मन विचलित हो जाता है ....
    व्यथा का सरीक छत्रं करते भाव और शब्द ...

    जवाब देंहटाएं
  12. इस दारुण दृश्य में सच में रुह काँप रही है ... बस आह !

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  13. वाह कितनी सरलता से कितने गूढ़ भावों को लिखा है आपने
    बधाई !

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  14. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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